'प्रकाशक-- भारद्वाज पुंस्तकालय गणस्पत रोड (अन्तारकली) लाहीर.
मुद्रक--: बेश्वनाथ एस० ए०, हर ये :लि०, लाहौर
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(१) (२) (३) (४) (४) (६) (७) (८) (६)
वषयससुचा महाराजा (पुर) पोरस गुरु नानक गुरु गोविन्द्सिह हर बनन््दा वरागी धर्मवीर हक्कीकतराय महाराजा रणजीतसिंह
' सरदार हरिसिंह नलवा
स्वामी रामतीथ
. लांला लाजंपतराय
दर प
लेखक के दो शब्द
प्रिय पाठक वन्द | है
प्राचीन काल से लेकर पुण्य वीर भूमि पद्चननद प्रान्त सारे भारतवप का पथप्रद्शक वनता चला आया है । महाभारत काल में कौरव-पांडव संग्राम में ज़िन वीरों ने पुण्य कीर्ति प्राप्त की है उनमें से अधिकतर प्रायः पल्लाब प्रान्त के ही वीर थे। जिन का स्मरण हस बड़े गौरव से करते हैं | महाभारत काल के बाद ज्ञिन वीरो ने इस पुण्य भूमि में जन्म लेकर अपने मस्तिष्क तथा वाहुबल से संसार भर को चकित किया है। उनमें से प्रसिद्ध नी वीरो' की जीवनी इस पुस्तक द्वारां श्रस्तुत की जा रही है | मुझे पूर्ण विश्वास है कि उक्त वीरो' की जीवनी से हमें” अनेक शिक्षाएं मिल्त सके गी। भावी सनन््तत्ति इस पुस्तक को पढ़कर अपने पूर्वजों के सम्बन्ध में पूण परिचय प्राप्त करती हुई उन्नति में अग्रसर होगी तथा देश और हिन्दू जाति को उन्नत करेगी ।
प्रस्तुत पुस्तक में घीरो' की जीवनी तथा ऐतिहासिक तथ्यों" की ओर विशेष ध्यान रखा गया है । इतने पर भी यदि किसी सज्जन को इस पुस्तक में कोई छ्ुटि प्रतीत हो तो सूचित करने को कृपा करे ताकि अगले संस्करण में उसे दूर किया जा सके |
निवेदक रामचन्द्र शार्री
महाराजा पुरु ( पोरस )
भारतवपर आदि काल से ही चीर, ओजस्वी और आदशे सहा- पुरुषों का: अक्षय कोष रहा है। वैदिक काल से लेकर आज तक का इतिहास इस वांव का साक्षी है कि संसार के किसी भी प्रदेश में इतने महापुरुष कहीं नहीं हुए जितने कि भव्य-भूमि भारत में ! जहाँ हरिअन्द्र की सत्यवीरता, कण और बली की दानशीलवा; मर्यादा-पुरुषोत्तम राम की आदशे-मयता, भगवान् ऋृष्णुचन्द्र की .कर्मयोगिता, बुद्ध का अनुपम त्याग और चन्द्रगुप्त मौये,. तथा अशोक आदि के शौय के सामने हमारा सिर श्रद्धा से कुक जाता है, वहाँ प्रतापी महाराजा पुरु (पोरस ) के तेज, बल, पराक्रम तथा आदेश के सम्मुख हम सादर श्रद्धात्नलि भेंट किये बिना नहीं रह सकते | अन्य मलु॒ष्यों की अपेक्षा इनमें यही विशेषता है कि ये वंहुत ही आत्माभिमानी थे। संसार में जितने भी महा पुरुष हुए हैं 'उनमें साधारण मनुष्यों की अपेक्षा कोई न कोई विलक्षण गुण होता.है। पर जिसमें आत्म-गौरव हो वह सर्वो-
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परि माना जाता है। सहाराज पोरस का जन्म इंस्वी सन् से यूबे ३७० बषे के लगभग साना जाता है। क्योंकि ग्रीस के बाद- शाह संसार के महान विजेता सिकन्द्र ( एलेग्ज्ेंडर ) का जन्म- काल ई० सन् से ३५६ वे पूर्व निश्चित रूप से इतिहास- वेत्ताओं ने स्वीकार किया है। यह बड़ा उत्साही तथा पराक्रमी था। यूनान की रियासत सक़दूनिया इसका जन्म-स्थान ओर पिता का नास फिलिप था। इस वीर विजेता ने ई० सन् से ३२६ चष पूथं जनवरी महीने में भारत पर अक्रमण किया | सिकन्द्र ओर महाराजा पुरु में बड़ा भयद्भुर' संग्रास हुओ ). इससे सिक- न्द्रः के जन्म-कालं से कुछ साल पूरब पुरु (पोरस ) का - जन्म उपयुक्त बैठता है। पुरु ओर सिंकन्द्र के युद्ध-छाल में सिकन्द्र.की आअचस्था २६-३० वे की थी ।ऐतिहासिकों ने-इस वात का उल्लेख किया है कि सहाराजा पुरु ने पदिले सिकन्दर की सेना को रोकने के लिए अपने वेंटेको भेजा। जो कि लड़ाई में मारा गया। पोरस की सेना का नायक अर्थात् पोरस का राजकुमार .उस' समय कम्न से कम २०-२२ साल का अवश्य रहा होगा। इस. अनुमान से उस समय पुरु की अवस्था ४५,से ऊपर ही ठहरती है. अस्तु इस विवेचन से पाठक समर .गये होंगे कि पोरस की अवस्था सिकन्दर से १५-२० वर्ष अधिक थी जो कि ई० सन् से ३७०-८० बे पूर्व निश्चित है । पोरस के पिता का नाम महा- राजा चन्द्रसेत था, जो कि मद्र देश का सन्नाद साना गया है। इनका राज्य केवल जेहलम तथा चनाव, नदियों के सध्यवंती आ्रान्त में ही. था, किन्तु पल्ञाव के कई अन्य बड़ेर राजा सी इनके आधीन थे। सिंध
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नदी से लेकर जेहलम तके एक बड़ा प्रान्त जिसका राजा आस था वह भी महाराज चन्द्रसेन के आधीन था | उत्तर पूर्च के छोटे सोटे राजाओं के अति्रिक्त दक्षिणं काश्मीर का राजा अभिसार भी सद्गधाराजा चन्द्रसेत का सामन्त था। चन्द्रसेन एक शक्तिशाली राजा था। यह बड़ा उदार और न्याय-प्रियं, साधु-स्वभाव व्यक्ति था। अपने झुज-बल से इसने पञ्ावं के बहुत सारे राजाओं को आधीन कर '* लिया था | विकासबाद तथा प्रकृति का यह नियम है कि कारण के गुणों से काये के गुणों में विशेषता होती है । महाराजा चन्द्रसेन अपने समय में जैसे स्वेगुण सम्पन्न थे बैसे ही उनके इकलौते पुत्र पोरस में भी किसी गुण की कमी न थी। पिता ने एकमात्र सन्तान होने के कारण बालक पुरु का लालन-पालन बहुत अच्छी अकार से किया। किसी वात की च्रुटि न रखते हुए होनहार बालक 'का.बचपन केचल लाड़ प्यार में ही नष्ट नहीं होने दिया बल्कि उस समय के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय ( यूनिवर्सिटो ) तत्षशित्षा में उसको पढ़ने के लिये भेज दिया |
. आज कल की यूनिवर्सिटियों की अपेक्षा तक्षशिला यूनिवर्सिटी का संसार भर सें अधिक मान था। हो सकता है कि उत्तर भारत सें यही एक सर्वोत्तम विद्या-केन्द्र रहा हो और वही उसकी प्रसिद्धि का कारण बना हो । छुछ सी है, ऐतिद्वासिकों ने शिलालेख आदि के आधार पर जहां तक खोज की है. उससे निःसन्देह यह बात सिद्ध हो गई है कि तक्षशििला एक बहुत बड़ा केन्द्रीय विश्व-विद्या- लय था। जिसमें दूर-दूर के देशों से भी. वालक पढ़ने आया करते
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थे। चन्द्रगुप्त मौथे ने भी यहीं विद्याध्ययन किया। यह मगध देशा की राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) से यहाँ पढ़ने आया था। तत्त-. शिल्ला एक प्रकार की रियासत थी जो कि सिन्ध नदी से लेकर जेहलम तक सानी गई है ।
राजछुमार पुरु ( पोरस ) ने विद्यापीठ के नियमानुसार सारें ' शासतरों का अध्ययन बड़ी तत्परता से किया । उसकी बुद्धि इतनीः विलक्षण थी कि आचाये जिस बात को एक बार बता देते बह तो ब्रह्मा की लकीर बन जाती । थोड़े ही समय में कुमार का अध्ययन्त समाप्त हो गया ओर अब समय आ गया कि विद्यापीठ के ज्लातक को घर जाने की आज्ञा दी जाय। आजकल के उपाधिवितरणोत्सवः की भाँति उस समय भी एक बृहत् सभा बुलाई जाती थी कौर सम्राट था सम्राट के प्रतिनिधि के सामने आचाये लोग अपने' शिष्यों को विद्या-समाप्तिके उपलक्ष्य में उपाधि दिया करते थे। इसके उप- रान्त विद्या-निष्णात वह ब्रह्मचारी गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था ।' एक दिन तत्तशिल्ला के विद्यापीठ में बड़ी भारी सभा बुलाई गई.। जिसमें सम्राट चन्द्रसेन, स्थानीय राजा आम्भी, अभिसार नरेशः आचाय-गण तथा प्रमुख नागरिक उपस्थित थे। प्रधान आचायो ने दीज्ञान्त भाषण में युवराज पोरस को उत्तम २ शिक्षा के साथः विद्यापीठ छोड़ने तथा घर जाने की आज्ञा दी | 'इन दिनों महा- राजा चन्द्रसेन, तत्षशित्रा-नरेश आम्भी के अतिथि बने हुए थे । इसलिए कुछ दिन तक चन्द्रसेन तथा कुमार पुरु-तक्तशित्ला के राजमहल ही में ठहराये गये। कई बे पहले सम्रांद चन्द्रसेन ने.अपनी 'दिग्विजय-यात्रा में आम्भी नरेश को जीत लिया था तब, से. बहार
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इनके अधीन हैं। किन्तु आम्भी हृदय से चन्द्रसेन की आधीनकत स्वीकार नहीं करता था। वह अवसर की ताक में था कि कोई चहाना मिले जिससे इनकी आधीनता से छुटकारा हो । आम्मी बहुत दिनों से किसी एक ऐसे राजा को अपने साथ मिलाना चाहता था जो उसकी तरह मन से चन्द्रसेन के विरुद्ध हो। इसलिए आम्भी ने. एक दिन घूमते हुए अमिसार नरेश से' बातचीत की कि सम्राट चन्द्रसेन अब वृद्ध हो गये हैं मुझे अब उनके बहुत समय तक जीने की आशा नहीं, उनके अन्तिम दिन ही सममने चाहिएं। इस ग्रकार सैकड़ों घुरी भ्ली बातों को कहने के बाद उसने अपने हृदय का ज़हर उगल दिया कि चन्द्रसेन के राज्यत्व काल में तो में उनका सामनन््त बना रहा पर उनके उत्तराधिकारी युरु को तो में अपना सम्राट नहीं मारनूँगा । चन्द्रसेव के मरने पर पुरु से युद्ध करूंगा ओर स्वतन्त्र रूप से मद्र देश का सम्राट बनूँगा ।
इस बात को सुन कर पहिले तो अभिसार नरेश ने अस- सथता प्रकट की, परन्तु लब आम्भी ने अपनी कन्या उवेशी को उसे व्याह देने का वचन किया तो फिर अभिसार नरेश चन्द्रसेन के विरुद्ध लड़ने के लिये कटिवद्ध हो गया। झाम्मी स्वयं वीर था तथा राजनीति के दांव-पेच भी खूब जानता था। सहायक राजा के मिल जाने से सम्भव था कि वह कभी भी विद्रोह खड़ा कर सकता | किन्तु वह अवसर की प्रतीक्षा अवश्य फर रहा था। भावी “किसी के हाथ नहीं, मनुण्य जो सोचता है वह कभी पूरा नहीं डोता और कभी-कभी हो भी जाता है ।
इधर युवराज पुरु कई वर्षो के बाद विद्यापीठ से छुट्टी पा चुके
[ १० ] है। विद्यापीठ में कई नियमों का पालन करना पड़ता था, मनोविनोद की सामग्री विद्यार्थी जीवन में कहों | अब वह स्थ॒तन्त्र है इसलिए फुछ समवयस्क मित्रों तथा राज-क्मचारियों के साथ तक्तशिला के घने जज्ञल में शिकार खेलने निकल पड़ा। राजछुमारों का जन्म से ही यह नेसर्मिक गुण होता है कि वे प्राय: शिकार के शौकीन होते हैं। शिकार खेलने से एक बड़ा भारी लाभ होता है और वह यह कि शिकार पर ठीक लक्ष्य मारना, उसके पीछे दोड़ना तथा अन्त में उसके प्राण लेकर रहना। वस यही गुण, यही विद्या एक विजेता के लिए युद्ध के समय में काम आती है | यद्यपि “अनसभ्यासे विष विद्या” अथात् बिना अभ्यास के विद्याविप तुल्य हो जाती है, के अनुसार पुरु का कई वर्षों वाद धलुर्वाण ग्रहण करने का यह पहिला ही अवसर था और यदि कोई ग़लती भी हो जाती.तो ज्षम्य थी | किन्तु पुरुमें असाधारण शुण थे, भला चहं राजाओं की झुख्य विद्या को कैसे भूल सकता था। अचानक एक शेर की गजेना (दहाड़) सुनाई दी । पुरु सावधान हो गया, मगों को खदेड़ेता हुआ शेर भी सामने आ पहुँचा । यह एक सयझ्कर शेर था जिसको पकड़ने के लिए आम्सी नरेश ने कई प्रयत्न किये थे। पुरु ने निशाना सारा पर ठीक,न लग सका, क्रुद्ध हुए शेर ने आक्रमणकारी पर आक्रमण कर दिया, परन्तु पुरुने बड़ी कुशलता से ऐसे तलवार का वार किया जिससे सिंह घायल हो वहीं मर गया। आज पहिली वार ही पुरु विजित हुआ, विजय
की प्रसन्नता में मित्रों के सांथ पुरु घर की ओर चापिस लोटा ) खआम्भी नरेश का एक भाई जिसका. नाम कर था वह बड़ा ही
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दुराचारी था ॥रियास्त में किसी-की ; सुन्दर चहू-वेटियों को. देख कर वह उनसे घलात्कार करता- तथा उनके सतीत्व को भट्ठ करता | आज जब शिकार खेल कर युवराज पुरु वापिस आ रहे थे तो उनकी एक जी के रोने का करुणा-जनक शब्द सुनांडे पड़ा | ध्यान से देखने पर पता चला कि दुराचारी के क्िसो स्री को अपने रथ पर विठा कर ले जा रहा है। पुरु ने कर्ण के रथ को रोकने के लिये अपना घोड़ा आगे खड़ा कर दिया ।
.. पृरु मे कश से कहा-कर्णय ! तुम राजकुमार हो, तुम्हें ऐसा कमे करते शर्म नहीं आती । इस वात को सुनकर करण शआपे से बाहर हो गया और पुरु से दाग युद्ध करने लगा । बाद में करे ने पुरु के ऊपर तलवार का वार किया, पुरु यह नहीं समम्ा था कि यह घटना इतली सीमा तक पहुँच जायेगी; किन्तु 'होनहार हो के रहे! वालो वात ने भी तो चरितारथ होना था। दोनों में तलवारें चलने लगीं, व्यसनी कण अह्मचारी पुरु के आगे भला कब ठद्दर सकता था । अन्त में करे की छाती पर तलवार का ऐसा गद्दरा घाव लगा कि खून के फव्वारे फूटने के साथ ही उसके प्राण-पखेख भी
उड् गये। छुमार पुरु ने अपने विश्वस्त पुरुष फे साथ उस ल्लरी को घर भेजना चाहा, किन्तु वह स्वयं ही चली जाने को तैयार टो गई। इस अधटित घटना से पुरु बहुत दुखी हुआ। वह नहीं चाहता था कि सआम्भी नरेश के साथ बिगाड़ी जाब; पर जो होना था वद्द हो चुका । ये सब इस बात पर पश्चात्ताप कर ही रदे थे, कि आम्भी नरेश का सेनापति सामने आ पहुँचा ओर कहने लगा क्ि-रोज-दख्ड के नियमानुसार नर-हत्या के अपराध में आपको.में वन्दी करता हूँ !
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पुरु इस वात को सहपे स्वीकार करते हुए चोले-न्याय के सम्मुख राजा ओर रंक सभी एक समान हैं । यद्यपि कुमार के साथियों को यह वात अच्छी नहीं लगी। परन्ठु सेनापति ने पुरु को वन््दी बना लिया और अपने साथ ले गये | ज्ञिस अवला के रक्षण से पुरु के ऊपर विपत्ति के बादल टूट पड़े थे वह चन्द्रभागाँ नांन वाली
ख्री भी घंर न जाकर बंदी पुरु के पीछे २ चल पड़ी | ह ' उधर सम्राद चन्द्रसेन तक्षशित्ना के राजभंवन में अम्भी ओर अभिंतार नरेश के साथ वाठचीत कर रहे हँ। वृद्धावस्था में मनुष्य स्वभाव से ही चिन्ता-शील हो जाता है । चन्द्रसेन की अवस्था अब आखिरी मंजिल पर कदम रख चुकी है। इसलिए चिन्तित होकर आम्भी से कहने लगे--पुरु को शिकार के लिए
गये वहुत समय हो गया वह अभी तक लोट कर नहीं आया | इतने में समाचार मिला कि पुरु ने शिकार में एक सयावने सिंह को मारा है । पिता के लिए पुत्र की वीरता सुनना स्वये से भी बढ़ कर सुखदायी है । चन्द्रसेव तो आनन्द-सागर में हिल्लोरे लेने लगा, परन्तु आम्मी के हृदय में ईप्यो के साँप लोटने लगे । भाग्य की गति वड़ी विचित्र है--जो चन्धसेन अभी हे का सुख ले रह्य था और आम्भी दुःख का अनुभव कर रहा था इन दोनों ने घलटा खाया | सेनापति ने वन्द्दी पुरु को राजा के सामने उपस्थित किया और उसे कण का घातक वतलाया । आम्भी यद्यपि कण के अत्याचारों से तंग आ गयां था और उसका अन्त चाहता ही था परन्तु आतृत्व की ममता तथा पुरु के प्रति वैसनल्थ ने आम्भी को इस वात पर -वाधित कर दिया कि कण के वध के बदले
[१३ ] कल सवेरे पुरु को फॉसी दी जाय। सम्राट चन्द्रसेन इस -,घंदेनो “ को सुनकंरं अचाक् रह गये । उन्होंने आम्भी को बहुत समसारयों, “धमकाया, पुंत्र के स्थान पर अपने आप को फॉँसी के लिए पेंश “किया, किन्तु आम्भी ऐसे स्वर्ण अवसर को हाथ से कब जाने देता। असिसार नरेश हृदय से आम्भी के साथ मिल्ला था इसलिए उसने इस घटना में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। आम्भी ने सम्राट को भी नज़रवन्द कर दिया और पुरु को कारागार भेज दिया।
आम्भी की राजकुमारी उवेशी हृदय से पुरु को चाहती थी। 'जिस दिन तक्षशित्ञा विद्यापीठ में युवराज पुरु के विद्या-समाप्ति 'के उपलक्ष में उत्सव मनाया गया था उ्वेशी भी अ्रपने पिता के साथ चहाँ गई थी। हिन्दु-शासतरों का सिद्धान्त हैं कि प्रेम का सम्बन्ध 'पिछले जन्मों से होता है। उचेशी ने उसी दिन निश्चय कर लिया था कि चाहे फुछ भी क्यों न हो में पुरु के साथ ही शादी करूँगी। आज देवी विपत्ति आ गई, कर्ण के हत्याकाण्ड से पुरु को फोंसी का दण्ड होने के कारण उ्वेशी की आशाओं पर पानी फिर गया। ओम प्राणी को पागल बना देता है, इसी आवेश मे आकर उबंशी मे निश्चय कर लिया के कुछ भी हो पुरु छा उद्धार करना ही पड़ेगा । विचार-सागर में डुचकियाँ लगाती हुई वह अपन आपको भी भूल सी गई, परन्तु पेरों की आहट पाकर अचानक चौंक 'पड़ी। सामने पिता खड़े ६ ओर वे अभितार-नरेश से अभी ' 'उवेशी के विवाह का परामश करके शझ्ाये हैं। आम्भी ने बढ़े 'सधुर शब्दों में कहा--पुत्री! प्भिसार नरेश के साथ मैने भुम्हारा विवाह करना निश्चित कर लिया है। झुम्े हर प्रकार से
[ १७ ] क् वे तुम्दारे योग्य प्रतीत होते हैं। उवेशी पर मानो विजली टूट पड़ी, किन्तु सावधान होकर ,वोली--पिता जी आप मेरे विवाह की चिन्ता न करें में विवाह नहीं करना चाहती हूं।- पिता पुत्री: में बड़ी देर तक बातें होती रहीं। आखिर आम्भी क्रोधित हो कर बहाँ से चला गया !
झ्लियों का यह नेसर्गिक गुण है कि वे जिस- वात पर तलः जाती है उसे रोकले में ब्रह्म सी असमथ्थ हो जाता है। जहाँ' वे ज़रा ज़रा सी बातों से डर जाती है वहाँ साहस में भी ये: किसी से कम नंहीं। उवेशी अपने कमरे से बाहर आई और: सम्राद चन्द्रसेन के पास गई जहाँ वे नज़रबन्द थे । पुत्र की सज़ा सुन कर वे अधंमूर्च्छित अवस्था में न जाने कया प्रल्ाप कर रहे: हैं। उबेशी उनकी ऐसी दशा देख कर व्याकुल हो गई और उनको: सचेत करने की कोशिश करने लगी. परन्तु असह्य “वेदना के कारण महाराज के प्राण-पखेरू उड़ गये। इस घटना ने- उसको: ओर भी उत्तेजित कर दिया । 5
वह वापिस महल में आई ओर कारागार की चाबियों पिता-को; जेब से निकाल कर उनके नाम की मोहर एक कागज पर लगाकर कारागार के अध्यक्ष को लिखने लगी, कि पुरु को इसी समय मुक्त. करे दिया जाय तथा एक्र सैनिक को उनकी राजधानी तक छोड़ने' का प्रबन्ध कर दिया जाय। कास बन ग़या, महल का द्रवाज्ञा बन्द करके उवेशी ने स्वयं सेनिक का वेश धारण किया और कारागार
में पहुँच गई। । कारागार के दरवाजे पर चन्द्रभागा भी अपने" प्राणों-की बाजी लगाये बैठी थी। उवशी ने अपना काम किया ॥
[ १४ ]
कारागार में - पुरु शोकाकुल बैठा कल्पना के संसार में चक्कर लगा- रहा था । मुक्ति का पत्र लेकर काराध्यक्ष पहुँचा, पुरु के आश्रय का ठिकाना न रहा। काराध्यक्ष ने सैनिक वेश धरे उवेशी के साथ
पुरु को विदा किया। .कुछ दूर चलने पर उवेशी ने अपने सैनिक
कपड़े पुरु को पहिना ऋर अपना प्यारा घोड़ा जिसका नाम रत
था सोंपते हुए कहा कि आप असी राज्य-सीमा से वाहर अपनी
राजधानी में चले जाएँ। पुरु ने बैसा ही किया जैसा कि उसने
कहा | मा सारा काये समाप्त-करके उवेशी महल को लौटी और शबना- गार सें जाकर लेट गई । इधर आम्सी अपना मनोरथ सिद्ध जानकर मंत्री के साथ वात-चीत कर रहा था। साथ ही उसने कई राजाओं तथा मित्रों को पत्र भी लिख दिये कि आज से में मद्र- देश का सम्राट हूँ। किन्तु सेनापति ने आकर समाचार सुनाया कि पुरु को कारागार से मुक्त कर दिया गया। आम्भी अ्रवाकू रह गया, पर अब क्या कर सकता है । शिकार हाथ से निकल गया। काराध्यक्ष को घुलाया गयां उसने राजाज्ञा का लिखा पत्र दिखाया । आम्भी ने उवेशी का लेख पहचाना शोर वह खज्ठ लेकर उसके वध के लिए उसके कमरे में चला गया। क्रोध के श्रावेश में चह उसकी छाती पर कटार मारना ही चाहता था क्ि पुत्री के वात्सल्य ने उसके भाव बदल दिये उसने फटार फेंकदी, उ्ेशी चेक पड़ी। वह लज्ना से सिर कुकाये खड़ी क्षमा याचना करने लगी पिता ने वहुत छुछ कहा पर सब ब्यथं। इधर राजफुमार एर
तक्षशिला से भाग कर झपनो राजधानी साकल पहुँच गया फोर
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अपनी सारी सेना लेकर अपने पिता को मुक्त कराने के लिये तक्तशिला की ओर चल पड़ा | वास्तव में कुमार पुरु अचानक देवयोग से ही आम्भी 'के चंगुल भें फंस गया, नहीं तो आम्भी की क्या ताकत थी जो उसे आधीन कर सकता | आधे रास्ते में समाचार मिला कि पिता का स्वगेवास हो गया और आम्भी सेना-सहित मद्र देश पर चढ़ाई करना चाहाता है। आखिर घमासान युद्ध हुआ, आम्भी हार गया ओर उसे बन्दी बना लिया गया । इस समय यदि पुरु चाहता तो 'आम्भी को जान से मार डालता पर वह उदार हृहय का था इस “लिये उसने उसका राज्य उसे वापिस लौटा दिया। इस वात से तक्ष- “शिला नरेश को प्राण-मिन्षा तो मिली पर उसका हृदय ग्लानि से “भर गया। प्राचीन सारतीय राजाओं में यह बड़ा भारी दोष था कि वे शत्नु के साथ भी उदारता का व्यवहार करते थे। यही च्रटि पुरु ने भी की जो उसने आम्भी को छोड़ दिया। यही आंगे चलकर भविष्य में विदेशी आक्रमणकारी सिकन्द्र 'क्रे साथ मिलकर पुरु को घोर विपत्ति में डाल देताहै। उस मय मित्र या शत्र के साथ एक जेसा उदारता का व्यवहार करना
गुण समझा जाता था पर अब वही भारी दोष कहा जा सकता हैं। चन्द्रभागा के कारण ही पुरु पर विपत्ति के बादलों की घटा उमड़ी थी । उसको उर्वशी-रूपी आंदी ने एक ही मोंके में उड़ा दिया। उसने चन्द्रभागा का विद्यापीठ में प्रबन्ध कर दिया और पुरु से विवाह करने का श्रस्ताव अपने पिता से छेड़ दिया। आम्भी यद्यपि अ्याधीन राजा था पर वह अपने विरोधी के 'साथ अपनी .पुत्री
[ १७ |].
का विवाह कदापि नहीं करना चाहता था। पुत्री भी पिता के विरुद्ध चलने को तय्यार नहीं - हुई ओर उसने आजन्मः कुमारी रइदने का ही निश्चय किया। विद्यापीठ के आचार्य दोनों. राजाओं ( पुरु और आम्भी ) का विरोध मिटाना चाहते थे | उनकीः भी यही राय थी कि उवेशी का सम्बन्ध पुरु से हो जाय इसलिये: उन्होंने एक पत्र आम्भी को भी भेजा, पर वह उसे स्वीकार नहीं करता | उबशी ने पुरु को एक पत्र लिखा और उसमें यह भी स्पष्ट कर दिया कि मैं विवाह करने में असमर्थ हूँ। अन्त में वहस्वयं भी पुरु को मिली। चन्द्रभागा भी चाहती है कि मेरा सम्बन्ध पुरु से बन जाय | पुरु अ्रव पिता का उत्तराधिकारी मद्र देश का सम्राट है । उसको उचेशी की ही चिन्ता नहीं बल्कि वह भारत का मानचित्र सामने रखकर द्गविजय की इच्छा कर रहा था। महाराजा पुरु ने कुछ सेना लेकर सब से पहिले उत्तर काश्मीर की ओर प्रस्थान किया। उधर के सारे प्रान्तों को हस्तगत करके वे सिन्ध की ओर लौटे जिन दिनों पुरु सिन््ध प्रदेश का दौरा कर रहा था उन्हीं दिनों फारस का विजेता वीर सेनानी सिकन्दर ( एलेग्ज्ेन्डर ) ने भारत व पर आक्रमण किया । उस समय से लेकर अव तक सिकन्दर की गणना संसार के महान विजेताओं में की जातो हैं। बह बढ़ा उत्साही वीर था। सिकन्दर ने वाल्यावस्था से ही अपने जीवन का यह लक्ष्य बना लिया था कि समस्त संसार को विज्ञय करूँगा। वह बीस वर्ष की अवस्था में राजगद्दी पर बैठा और उसने थोड़े;ही समय में मिसर से लेकर अ्रफगानिस्तान तक एशिया का सारा प्रदेश जीत लिया और फिर ई० सन से ३२६ व पूवे उसने भारतवर्ष
[ एफ 3 'यर आक्रमण किया । ज्ञिस समय सिकन्दर से भारतवर्ष परे आक्रमण किया उस समय भारत -की राजनैतिक व्यवस्था अच्छी 'न थी। भारत कई स्वतन्त्र रियासतों में चेँटा हुआ था। छुछ रियासत्ें अज़ातन्त्र के रूप में थी तो छुछ राजा महाराजाओं के आधघीने थीं। उत्तरी भारत में संव से प्रसिद्ध रियारूत सगध थीं, जिसकी “राजधानी पटना थी। यह विश्ञाल राज्य उत्तर-पश्चिम में सतलुज -नदी के पूर्वी भाग तक गंगा यमुना की घाटी सें फेज्ा हुआ था। इस 'दिस्तृत भूखण्ड पर नन्द वंश राज्य करता था। इसके पास बड़ी भारी वीर सेना भी थी। उत्तर पश्चिस में कई छोटी-छोटी रियासतें थीं जो एक दूसरे से विरोध किया करती थीं। इनके पारस्परिक विरोध से ही सिकन्द्र छुछ ऋंश में सफल हुआ | तक्तशिला, सद्र देश, अभिसार इनका वरणन तो हम पहिले कर चुके हूँ | पर इनके अतिरिक्त चनाव-रावी के सध्य प्रदेश में पोरस का एक सम्बन्धी राज्य करता था। रावी से पूव एक कटोई जाति थी। पद्चाच के दक्षिण पश्चिम में शिविओर मलोई दो जातियें अति प्रसिद्ध थीं। 'सलोई जाति के नाम से मुलतान शहर बन गया । यद्यपि आपसी पैमनस्थ के कारण ही भारत विदेशियों का दास बना। परन्तु हमें यह कभी न भूलना चाहिए 'कि--संसार के महान् विजेता सिकन्दर को भी परास्त करने वाला एक अकेला मंहाराज पुरु ही था। यदि आम्सी सिकन्दर की सहायता न् करता तो वह १६ महीने तक भारत में कदापि न टिक सकता ।
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: अस्तु सिकन्द्र ने अटक से १६ मील उत्तर ओदिन्द नामक स्थान सें अपना शिविर वनाया ओर एक पत्र पुरु को सेजा कि तुम हमारी ओधीनता- स्वीकार कर लो। एक पत्र आम्भी- को भी
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पलेजा । आम्भी ने सिकन््द्रर को अपना सन्नाद इस शर्त पर -मान लिया कि मुझे सद्र देश का राजा वना दिया जाय ।
महाराज पुरु ने साफ़ शब्दों में उत्तर लिख भेज्ञा कि में 'लड़ाई के मैदान भें ही आपका स्वागत करूँगा। इधर एलेग्ज्रेंडर ( सिकन्द्र ) अपने मनमें विचार कर रहा था कि फारस का साम्राज्य तो मैंने जीत लिया ओर आज में भारत के सिंहद्दार 'पर खड़ा हूँ। इस विशांल सुन्दर देश को भी यदि मे अपने अधिकार में कर लूँ तभी में संसार-बिजयी कहला सकता 'हूँ। मेरे पूज्य गुरुदेव अरस्तू इस देश की सदा प्रशंसा किया 'करते हैं । महाराज पुरु के पत्र से वह उत्तेजित हो गया। क्योंकि उन्हां ने यह भी लिखा था कि “सत्र देश के सम्राट ने आज तक किली के आगे सिर नहीं क्ुकाया इस लिये यदि कोई 'विरोधी उसके राज्य में पाँव भी रखेगा तो उसे प्राण-दर्ड मिलेगा | इन शब्दों को पढ़ कर सिकन्दर क्रोध फे श्रावेश से तम- तमा उठा। उसने अपने सेनापति सेल्यूकत (मलयकेतु) को तथा हेफेशियन को घुलाकर पुरू पर चढ़ाई की आज्ञा दें दी। सिन््धु नदी पर क्िश्तियों का पुल बना कर उसे पार किया और सीधा तक्तशिला की शोर बढ़ा । वहाँ के राजा आम्भी ने सब प्रकार से ऐसेग्सेडर की सहायता का वचन दिया। इसके अनन्तर जेहलस नदी फे पूर्वो वट पर अपनी सेना ले जाकर सिकनन््द्र ने पुरु शी सेना 'के साथ भयदुर चद्ध आरम्भ कर दिया। शफ़ि-शालो पर की सेना में हाथियों की अधिकता थी। पएल्ेग्लेडर की सना ने कभी भी हाथियों से चुद्ध नहीं किया था। इस नुझुल संप्राम भें पुरु दी सेना,के दाथियों ने श्रीक सेना को छुदल डाला । इनमें
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भगदड़ मच गई । सेनापति सेल्युकल और देफ्ेशियन के साथ सिकन्द्र एक नाव में बेंठ कर जेहलम नदीं से पार हो गये £ इस समय पुरु की सेना ने इनका पीछा किया, किन्तु युद्धवीर पुरु ने अपना दाहिना हाथ उठाकर अपने सैनिकों को रोक. दिया कि भागते हुए शत्रु पर श्राक्रमण करना युद्ध-नीति के विरुद्ध है । हम पहिले भी लिख चुके हैँ कि भारत के महापुरुषों ने सदा ही; शत्र-मित्र के साथ उदारता का व्यवहार किया। उस समय यह बात' धार्मिक दृष्टि से डचित सममी जाती थी । यही वात यहां पर भी चरिताथ हुई। भागते हुए सिकन्द्र को यदि पुरु बन्दी बना लेता या मार डालता तो उसको फिर भयद्भुर विपत्तियों का सामनाः . न करना पड़ता |
जेहलम नदी के दूसरे तट पर पहुँच कर सिकन्दर ने अपने” सेनापतियों के साथ परामशे किया कि पुरु को जीतना बहुत कठिन: है, इसलिए अपने देश को वापिस लौट जाना चचादिए। सेनाध्यक्षों: ने इस वात का समर्थन किया | क्योंकि ग्रीक सेना भारतीय हस्ति- सेना का सामना नहीं कर सकती। आखिर सिकन्दर ने अपनी: सेना को वापिस लीट जाने की आज्ञा दे दी |
भाग्य में क्या लिखा है, अभी अभी क्या होने-वाला है, इस को कोई नहीं जानता । सिकन्द्र तो निश्चय कर चुका था कि अब! युद्ध नहीं करूँगा किन्तु, इतने में आम्मी सेना-सहित उसको मिलने" आया। परस्पर बात-चीत होने के बाद हस्ति-सेना को परास्तः करने का उत्तरदायित्व आम्भी ने अपने ऊपर ले लिया । सिक- न्द्र ने असन्न होकर कहा-यदि शत्रु की गज-सेता का निरा- - करण आप कर लें तो विजय की पूण सम्भावत़ा है) सिकन्द्र नेः
[ २१५: | उत्साहपूर्वेक ग्रीक सेनापतियों को आज्ञा दी कि सारी सेना एकत्रकर आज रात को ही शत्रु पर आक्रसण करने के लिए नदी पार करनी चाहिए। उस दिन घने बादल छाये हुए थे, नदी में बाढ़ भी आई हुई थी और सामने पोरस की सेना यूनानियों का मुकाबिला करने को खड़ी थी। इसलिये सिकन्दर ने अंधेरी रात में जब कि वर्षा बढ़े ज़ोर से हो रही थी कुछ दूर जाकर नदी को पार कर लिया। इस वार पुरु को विश्वास न था कि सिकन्दर इतनी तख्यारी करके अचानक श्क्रमण कर देगा। जब ग्रात:ःकाल ग्रीक सेनाके जब-घोप सुनाई देने लगे तव पोरस भी सावधान हो गया । दोनों दलों में युद्ध “छिड़ गया। पुरु के सैनिकों ने श्रीक सैनिकों के छके छुड़ा दिये। यदि सचाई से युद्ध होता तो इस वार भी पुरु अवश्य जीत जाते किन्तु उनके साथ विश्वासघात किया गया। श्ञाम्भी के संकेत से अभिसार नरेश ने जो कि गज-सेना का श्रध्यक्ष था, गज-सेना को लौटने का आदेश दे दिया। हस्ति-सेना के पीछे लोट झाने पर पुरु की सेना फुचली जाने लगी। केवल पुर ही अपने हाथी को लेकर खड़े रहे। फुछ विश्वस्त वीर सैनिक भी पुरुकी सहायता करते रहे। फिर घमासान का युद्ध आरंभ हुआ। जब महाराज पुरु का दाथी घायल हो जाता है तो वे दूसरे हाथी पर चढ्ठ कर फिर युद्ध करने लगे । जब वीर पुरु अकेले रह जाते हैं तब सिकन्दर ने पुरु से कहा। वीर-अबर पुरु। आपका श्रव युद्ध करना व्यथ है. । किन्तु महाराज : घुरु ने कह कि जब तक मेरे हाथ में तलवार हैँ तव तझ मुम्े फौन बन्दी बना सकता हैं। वे अफेले द्वी वलवार के बल पर लड़ते रहे। किन्तु चारों झोर दुश्मनों का जमघट था प्ास्िर बन्दी कर लिये गये ।
द
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इतिहासकारों ने महाराज पुरु के वन्दी होने के पग्चात् वाता- ज्ाप का बड़ा रोचक वणन किया है | सब की यही राय है कि सिक- न्दंर ने पोरस से पूछा--तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार क्रिया जाये; इस पर पोरस ने वड़ी निर्भीकता तथा बड़ी वीरता से उत्तर दिया कि 'जैंसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है |? यदि मुझे मुक्त कर दिया जाये तो प्राण रहते में अपने देश को स्वतन्त्र करने का दी प्रयत्न करूँगा । इस बात को सुन कर सिकन्दर बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने 'पुरु का हाथ पकड़ कर कहा। पुरु? इस युद्ध में वस्तुतः तुम्हीं 'बिजयी हुए और आप ही मद्र देश के सम्राद हैँ. । परन्तु आम्भी नरेश आपको मद्र देश का सम्राद स्वीकार नहीं कर सकता। क्योंकि 'यह भी वीर है इसकी पूजा करना हमारा कतेव्य है। आखिर सिक- दर ने जो कहा वही हुआ | किन्तु विचारणीय वात यह है कि जिस वीर सेनानी ने विजय की लालसा से अभिभूत हो कर सुदूर देश से लम्बी यात्रा करके भारत पर आक्रमण करने के ठानी ओर ' भारत के सिंहद्वार पर आते ही जिसने यह उत्कट लालसा अपने अुख द्वारा प्रकट भी की कि “में इस विशाल भारत को जीत कर ही 'विश्व-विजयी कहला सकता हूँ ।? वह पुरु को वन््दी बनाकर तथा उसके इतने ही कहने पर कि “मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाय जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है” को सुनकर उसे . राज्य वापिस लौटा दे सर्वथा असम्भव सी ज्ञात होती है । विजयी _ ससिकन्द्र को तो अधिक उत्सादी होकर अपनी इच्छाहुसार आगे पूवे भारत की ओर बढ़ना चाहिए था। यह हो सकता है कि , आम्भी की कूट-नीति से पुरु वन्दी वनाया गया हो, पर मद्र देश की
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सेना ने फिर घोर युद्ध किया हो और फिर सिकन्दर हार गया हो। चस्तुतः यह वात तो सत्य भी है कि उबेशी हृदय से पुरु फो चादतो थी। जब आम्भी सिकन्दर की सहायता करने को चला था उस समय भी उबेशी ने अपने पिता को रोका था कि आप विदेशी आक्रमण- 'कारी की सहायता कर स्वदेश को पराधीन न बनायें । जब आम्भी न माना ओर उसने अपनी इच्छा के अनुसार ही कार्य किया तो उवेशी मद्र देश के सैनिकों को लेकर फिर समर-भूमि में आई। - सिकन्दर महान राजनीतिज्न था, उसने यह भाप लिया कि चाह्दे आम्भी पुरु को अपना शत्रु समझता हो पर उसकी लड़की ज्वशी जो पुरु से मिली हुईं है । भविष्य में इस सारे राषज्य की अधिष्ठान्री चनने वाली है । इन दोनों (पुर ओर उसी) के आगे अभिलार नरेश की कोई हस्ती नहीं, इसलिए सन्धि करके सिकन्दर ने पीछा छुड्दाया हो । एक वात का श्रेय हम सिकन्दर को अवश्य देंगे कवि उसने आम्भी को वाध्य करके उवशी का विवाद पुरु से करा दिया।
उवेशी का सम्बन्ध हो तो गया पर वह आम्भी को श्रन्छा न लगा। इसलिए उसने आत्म-हत्या कर ली। सन्धि होने पर कई मद्दीनों तक अथांत १६ महीने तक सिकनन्दर भारत में रहा। महा- राज़ परु को उसने बन्दी नहीं बनाया; वल्दि पुद ने उसको ऐस उंग से नजरबन्द रखा जिससे वह ऊझागे बढ़ने में सफल न हो सका। यदि वह विमयी ट्टोद ता कया पृ सारत मे इसझीो चढने से रोकमे वाला कीच हद सकता था। हां इतना प्रदधय
2 उ्रमोत्तर तट * ल््थे तक पिछ ड्धि ही के पाथ्चमात्तर तट इनन््दारा' नगर तझे इ9८-
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न्द्र अवश्य गया, पर पुरु की इच्छा और सम्मति से । इसके लिए: प्रसाणों की आवश्यकता प्रतीत ही नहीं होती कि पुरु जीता या सिकन्दर । तत्कालीन परिणाम ही इस बात का साज्ञी हैं कि वास्तव में महाराज पुरु ही विजयी हुए। फिर उसकी सम्मति से सिकन्द्र विलोंचिस्तान ओर ईरान के रास्ते होता हुआ बावल पहुँचा।' किन्तु वह अपनी जन्मभूमि तक नहीं पहुँच सका । रास्ते में ही ज्वर से पीड़ित होकर ई० सन् से ३२५ वपे पूर्व ३३ वर्ष की आयु में सर गया | इस सहान् विजेता की अमिलापाओं पर भी भारत के वीर प्रतापी सहारा पुरु ने पानी फेर दिया। धन्य है, इनका पोरुषः ओर प्रताप। विद्रोहियों के होने पर भी अकेले उत्तर पश्चिम भारत पर शासन करना उनका असाधारण व्यक्तित्व है
यद्यपि हम इतिहासकऋरों के विरुद्ध जाना डाचेत नहीं सममततेः किन्तु फिर भी किसी संदेहात्मक वात को ज्यों का त्यों मान लेना संगत प्रतीत नहीं होता । हमारे संदेह का विपय केवल इतना है किः क्या सचमुच ही सहाराजा पुरु पर सिकन्द्र ने विजय प्राप्त की, थी? क्योंकि जब संसार के महान विजेता सिकन्द्र की यह भावना थी कि में एक दिन विश्व विजय करके ही चैत्न लूँगा । २० वष की अवस्था से लेकर मृत्यु पयन्त वहः वराबर संग्राम करता ही रहा तो भारत की सीमा पर आकर उसकी बह उत्कट सावना क्यों शिथिल हो गई । यदि वंह पुरु को पराजित कर देता तो पूषे भारत की ओर अवश्य बढ़ता। क्योंकि जब एक विजेता अपने ग्रतिपक्षी राजा पर विजय आप्त कर लेता है तो उसके लिये यह बात अनिवाये रूप से हो जाती:
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है कि वह ओर आगे बढ़े | परन्तु इतिहासकार इस वात को विना किसी हिचकिचाहट के लिख देते हैँ कि सिकन्दर ने पुरु को युद्ध में पराजित कर दिया और बन््दी के रूप में जब पुरु को सिकन्दर ( एलेग्लेन्डर ) के सामने लाया गया तो सिकन्दर ने जब पूछा, चीर प्रवर पुरु। तुम्दारे साथ अब कैसा व्यवहार किया जाय ९ इसके उत्तर में पुरु कह्दे कि “जैसा एक राजा दूसरे राजे के साथ करता है” बस इतनी सी वात को सुनकर सिकन्दर प्रसन्नता पूवेक पुरु को उसका राज्य वापिस लौट दे, हमारी बुद्धि इस घटना को पूर्णतया सत्य मानने को तय्यार नहीं। हो सकता है कि इसमें छुछ तथ्यांश भी हो, पर उपरोक्त सात्र वाक्य को सुन कर सारे संसार के विजय का स्वप्न देखने वाला सिकन्दर ऐसा करने में कभी भी तत्पर नहीं हो सकता ।
किसी यथाथ प्रमाण के चिना हमें शन्तः साइय ओर वहिः- साक्ष्य का सहारा लेना पढ़ता है । वास्तव में सिकन्दर के विजित तथा पुरु के पराजित होने का ज्ञान हमें फेवल इतिद्दास से ही प्रत्तीत डोता है । किसी भी लेखक ने इतिहास से बाहर दृष्टि डालने की कोशिश नहीं की । किन्तु यूनान व फारस के शिलालेखों और पढ़ों तथा परवानों से यह स्पष्ट श्रतीत द्वोता हूँ. कि जेदलम के युद्ध में सिकन्द्र की ही हार हुई। यों तो प्लूटा् के लेखों से शात होता है कि पुरु की सेना में केवल २०,००० पेदल सिपाद्दी और २०६० घुद्सवार थे। इधर सिकन्दर की सेना पुर की सेना से फई शुना अधिक थी। सम्भवतः उसकी सेना में एक लाख से भी 'म्रधिक सेदल सिपादी और २०,००० से भी अधिर घुदसवार थे । इसके
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अतिरिक्त तत्षशिला नरेश (आम्भी ) की ' सेना भी उसके साथ थी। परन्तु पुरु की वीरता तो इसी बात में है कि उसमे इतनी थोढ़ी सेना के सहारे केवल अपने भुज-बल से विश्व-विजयिनी ग्रीक सेना के छक्के छुड़ा दिये । एक विशेष कारण यह भी हो सकता है कि सिकन्दर के सिपाही वर्षों से लड़ाई करते चले आ रहे थे अब उनमें उत्साह की मात्रा अधिक शेप नथी। इस विचार को तो सभी लेखकों ने इस प्रकार लिखा जिस समय जेहलम नदी के किमारे पुरु ओर एलेग्डे
की सेनाओं में संग्राम छिड़ गया ओर पुरु की हस्ति-सेना ने एलेग्जेण्डर की पैदल और घुड़सवार सेना को छुचलना आरम्भ कर दिया | भ्रीक सेना के लिए यह युद्ध अपूर्वे था, उसने कभी हस्ति-सेना से संग्राम नहीं किया था। निदान इस भरक्कुर लड़ाई में श्रीकों का उत्साह भम्न हो .गया। सेल्यूकस ओर हेफेशियनः आदि सेनाध्यक्षों के साथ एत्लेग ज्ेण्डर ने एक किस्ती पर सवार हो नदी पार कर जाने का निश्चय किया ही था कि दूसरे तट से पुरु के सेनिकों ने तीरों की वोछार करनी आरम्भ कर दी। एक सेना-नायक को तीर लगा ओर वह धड़ास से नदी में गिर पढ़ा । इतने में अपने: शीघ्रगामी रथ पर सवार पुरु नदी के इस' ओर आ पहुँचा | उसने देखा कि. सिकन्दर अपनी जान बचाकर भागा जा रहा है पर मेरे सैनिक वाणों की वर्षों बरावर करते ही. जा: रहे हैं । . ,६०: “ महाराज पुरु भारतवषे का एक आदशे सम्राद था। . उसने देखा कि भागते हुए शत्रु पर प्रहार करना पाप है, इसलिए उसक्ते
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हाथ उठाकरं अपने सैनिकों को सम्बोधित करते हए कहा-- मेरे वीर सिपाहियो ! भागते हुए शत्रु पर आक्रमण करना नीति विरुद्ध है। सव लोग अपने-अपने शरों को तरकसों में रख लो। महाराज की आज्ञा पाकर भारतीय वीरों ने तीर चलाना बन्द कर दिया। बची हुई सेना के साथ सिकन्दर और उसके दोनों सेनापति नदी के पार चले गये। नदी पार अपने शिविर. पहुँच कर सिकन्दर ने एक अन्तरह्ग मीटिद्न की । जिसमें उसकीः सेना के कुछ गण्य-मान्य पुरुष तथा छुछ अन्तरद्ग मित्र थे। सिकन्दर ने अपने सेनापति हेफेशियन से पूछा कि अब हमें क्या करना चाहिए। सेनापति ने हवोत्साह होते हुए कहा-- सम्राट ! शत्रु की गज-सेना के आक्रमण से हमारी सेना भ्रत्वन्त भयातुर हो गई है। सारे सिपाही यही कद्द रहे &ूँ कि भारतीय वीर सैनिकों से युद्ध करना स्वेधा असम्भव है। यदि शव भी सेना को पुनः युद्ध करने के लिये कद्दा जाय तो हो सकता है चद्ध अपने असर शब_्र छोड़ दे। प्रधान सेनापति हेफेशियन की थातों का समर्थत करते हुए दूसरे सेनानी सेल्युकस ने कद्दा--सम्राद २ प्रोक सेना को इस प्रकार भयभीत मेने कभी नहीं देखा। इस समय तो वह चिलफुल निरुत्साह हो गई है । में तो यही ठीक सम- मता हें कि अच यहाँ से शीघ्र दी वापिस स्वदेश लेट जाना चाहिए । यदि महाराज पुरु फी सेना नेरात्रि फो दी नदी पार करके आक्रमण कर दिया तो सम्भव हैं समस्त प्रीक सेना छो अपने ग्राणों से भी हाथ घोने पढ़ें। आपको भी बड़ी कठिनाई का सामना करना पढ़ेगा। आगे जैसी आपकी माता ।
[दि
सिकन्दर की यह अन्तरद्ग सभा थी इसमें सबकी राय लेनी अनिवाय थी। दोनों सेनानियों की बात सुन लेने के पश्चात् उसने तीसरे सेनापति क्राटेरस की ओर संकेत किया।। उस ने भी उसी बात का समथन करते हुए कहा कि, सेल्युकस ने जो कुछ कहा इस समय वही उपयुक्त है । यदि मद्र देश की सेना से हमें किसी प्रकार की हानि न भी पहुँचे, तो हमें अपनी सेना का भी कुछ कम भय नहीं । हमारी सेना यहाँ आकर उद्धिम्म सी, हो गई है। वह घर जाने के लिये उत्करिठत है, इसलिए इसे यदि एक. दिन भी और अधिक ठहराया गया तो निश्चय ही सारी सेना में विद्रोह फैल जायगा ओर वे हम लोगों का ही वध कर डालेंगे। . इस अन््तः साक्ष्य से स्पष्ट सिद्ध है कि सिकन्दर के महान् अतापी होने पर भी जब उसकी सेना इतनी निरुत्साहित हो गई सो वह मद्र देश पर कैसे विजय-बैजयन्ती फहरा सकता था। यह ठीक है कि ततक्तशिला नरेश आम्भी ने बाद में आकर सिकन्द्र को सहायता देने का वचन दिया और सहायता दी भी । किन्तु क्राटेरस के उपभेक्त बचनानुसार “प्रीक सेना यहां एक दिन और ठहराने मात्र से आपस में विद्रोह करने को तय्यार बैठी है” वह फिर लड़ाई कैसे लड़ सकती है | हो सकता है कि सिकन्दर्र के ओजस्वी भाषणों से श्रीक सिपाहियों में उत्साह की लद्दर दौड़ पड़ी हो और वे एक शार फिर लड़ाई के मैदान में पुरु की सेना का मुकांबिला करने 'को उद्यत हो गये हों। किन्तु श्रीक सिपाही इस बात को अच्छी प्रकार जानते थे कि यदि उत्तर भारत के इस संग्राम में सिकन्द्र विजयी हो गया तो यह अवश्य ही पूर्व भारत को ओर बढ़ेगा
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और हमें घर वापिस जाना नसोव न हो सकेगा। श्रतः वे लोग लड़े अवश्य पर लापरवाही से। हो सकता है कि सिकनन््दर्र की 'प्राजय का यही एक मुख्य कारण हो। इस उपरोक्त कथन में तो इतिहासकार भी सहमत हूँ ।
इतना ही नहीं वल्कि उनका कहना है कि अपने विश्वस्त साथियों के परामश के बाद बहुत निराशा-भाव से सिकन्दर ने कहा था--'मुमे यह आशा न थी कि मेरा जीवन-स्व्प्त इस प्रकार भारत के सिंहद्ार पर भग्न हो जायेगा। हम युद्ध में पराजित 'न होते तो फिर भारत पर विजय प्राप्त करना कोई कठिन काम नहीं था। सचमुच ही यदि हमारी सेना इतनी हतोत्साह् हो गई है प्तो उसे तुरन्त लीट जाने की आज्ञा देना ही हमारे लिये अयस्कर है ।”
येथे सिकन्दर के वचन, जिनसे साधारण से साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है कि थोड़ी नहीं वल्कि बड़ी भारी 'पराजय सिकन्दर को देखनी पढ़ी | इसकी पुष्टि में प्राचीन हासकार कार्टियस लिखते हँँ कि- हाथियों को देखते दी प्रीक सेना "भयभीत हो गई । समस्त सेना में उघल-पुथल मच गई । थोड़े समय 'पूष जो अपने आपको विजयी सममते थे वद्दी अब भाग कर अपने 'प्राण बचाने का सागे हूँढने लगे। सिकन्द्र फे श्रोजस्वी भापणों 'फो सुन कर जो वीर साहस करके झागे बढ़ते उन्हें दाथी पेरों से झुचलते और ऊपर उठा कर नीचे फेंक देते । इस प्र्धार कभी प्रीझ “सैनिक आगे बढ़ते प्रोर कभी पीछे दृट जाते | सन्ध्या समय तक इसी
हु अजय का णन् का
'भोंदि लड़ाई चलती रही ।? यहों तक तो झार्टियस घड़े धदाओं
हा
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साथ लिखता है, किन्तु आगे पक्षपात करता हुआ बिना किसीः हिचकिचाहट के लिखता है कि-“अन्त में म्रीक सैनिकों ने हाथियों के पैर काट डालें और विजय श्री एल्लेग्लरेण्डर के हाथ लगी।?”' यह बात प्रामाणिक नहीं 'प्रतीत होती। साथ ही एरियन के: लेख से मालूम होता है कि, एलेग्ज्े्डर ने सन्धि के लिए: पुरु के पास दूत भेजा था और बड़ी कठिनाई से पुरु ने एले-: ज़ेण्डर से संधि की । इससे भी स्पष्ट है. कि पुरु ही विजयी: हुआ न कि सिकन्दर ! यह हो सकता है कि युद्ध के दिनों में
कभी एक वार सिकन्दर भी जीत गया हो युद्ध में तो होता ही
है कि एक सोर्चे पर लड़ती हुई दो सेनाओं में से कभी कोई जीतता है. तो कभी कोई । किन्तु अन्त में जिसकी विजय होती है उसको ही विजयी होने का श्रेय मिलता है | महाराजा पुरु:एक वार" अवश्य हारे थे। उनके हारने का कारण हम पढिले ही लिख आये
हैं। यदि अभिसार नरेश समर-स्थल में,उन्हें धोखा न देता तो
/ यह हार भी इनको न देखनी पड़ती। महाराजा पुरु ने. गज-सेना का अध्यक्ष अभिसार नरेश 'को नियुक्त-किया था। आम्भी कीः मंत्रणा के अनुसार तुमुल संग्राम के बीच से अभिसार नरेश ने अपने हाथी को पीछे की- ओर मोड लिया सेनापति के पीछे: मुड़ते ही सारे के सारे महावंतों:ने अपने-अपं॑ने/हाथी -समर-स्थला से पीछे हटा लिए। हाथियों के पीछे-मुड़ने से पुरु की-सेना-भी: फुचली ग़ई, परिणाम-स्वरूप आम्भी की सहायता से एल्लेग्ज्ेय्डर' , इस बार. युद्ध में सफल हो गया। जब अकेले पुरु को त्रीक तथा
तत्नशित्रा के सैनिकों ने घेर लिया । उसी द्न सिकन्द्र ने पुरु सटे
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से पूछा था कि तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाय । पर हमें यह तो अवश्य सानना पड़ेगा कि पुरु की विजय में आम्भी की राज- कुमारी उचशी का वहुत छुछ हाथ था। उ्वेशी इस बात को जानती' थी कि मेरे पिता आम्भी ने केवल विदेशी आक्रमणकारी की हो सहायता ही नहीं की प्रत्युत अभिसार नरेश से भी गुप्त मन्त्रणा कर रखी है। उसी अन्तरद्भगः मन्त्रणा के अनुसार अभिसार नरेश ने समस्त गज-सेना को युद्ध-स्थल से दूर हट जाने के लिए प्रेरित किया ।
उतेशी ने इस सारो घटना को देखकर ही निश्चय किया था कि सुझे अब मद्र देश के सैनिकों की बागडोर अपने हाथ में लेनी चाहिए | पुरु फे विजयी होने पर ही उवेशी की मनोडभिलापा पृरण हो सकती थी। उसके पिता की तो यह इच्छा थी कि अभिसार- नरेश के साथ उबेशी की शादी हो जाय । इसी स्वर्गीय सुख का अजुभव करने के लिए शभिसार-नरेश ने संग्राम के मैदान में पुरु के साथ विश्वासघात किया ।
उ्ेशी इस बात फो सहन न कर सफकी। बह उसी समय मद्र देश के सिपाहियों में आकर उन्हें घोले से बचने फे लिए तथा महाराज के साथ किये गये विश्वासघात को श्ोजस्थी दब्दों सें प्रकट करने लगी। इसी का एक सात्र प्रभाव सद्र देश के सानका पर पड़ा और वे फिर से युद्ध के लिए तख्यार थी गये। वी हस्ति-सेना फिर आगे बढ़ी और उसने घुरी तरह से मश्रीक संनिकों को कुचलता प्रारम्भ किया। इस बार पिजयलइमी मद्र देश फे सैनिकों के दाध झाई शआीर महाराजा एन मुझ शो गये
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'न्दर को हार खानी पड़ी । सम्भवतः इसी समय पराजित सिक- जन्द्र ने संधि का अस्ताव पेश किया हो ओर पुरु ने उस प्रस्ताव . को सहप स्वीकार कर लिया हो । इतिहासकारों ने इस वात का भी उल्लेख किया है कि सिकन्दर १६ महीने तक भारतवपे में रहा किन्तु वह पुरु का अतिथि बन कर ही रहा। क्योंकि जेहलस की 'लड़ाई के बाद सिकन्दर नेगश्रीक सेना को वापिस सेज दिया था। छुछ शअन्तरद्ग मित्र तथा थोड़ी सी सेना को ही उसने अपने “साथ रखा था ।
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यूरोप के एक इतिहास-लेखक जसटिन ने ,एक लेख में “लिखा है कि, “शुद्ध छिड़ने पर पोरस ने एलेग्जेंडर की सेना पर . आक्रमण किया ओर शत्रु सेना से एलेग्जेण्डर को वन्दी के रूप में माँगा । एलेग्डेण्डर ने तुरन्त पोरस पर हसला किया, पर ' घोड़े के घायल हो जाने के कारण वह सिर के बल एथ्वि पर गिर पड़ा | उसके सहचारियों ने उसके प्रा्यों को वचाया ।” इससे स्पष्ट है कि जेहलम के युद्ध में कौन विजयी हुआ था । यहाँ पर हम विश्वास “के साथ यह कहने में लेश भर भी संकोच नहीं करेंगे कि महाराज पुरु ही विजयी हुए थे। इसके वाद एलेम्ज्ञेण्डर ने पुरु को : स्वतंत्र सम्राद साना और बड़े गवे से उसका मित्र बनना स्वीकार किया ।
एक वात और विचारणीय है कि इतिहासकारों ने: यह भी “लिखा है कि एलेग्लेण्डर व्यास नदी तक आया, सम्भवंत: 'जेहलम के युद्ध के वाद मद्दाराज पुरु ने एलेग्ज्ेण्डर और उसकी
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सेना को नदी के पूर्वीय अदेशों पर विजय श्राप्त करने के' कार्य में अपने ही साथ कर लिया हो। क्योंकि सिकन्दर के स्वदेश वापिस लौटते समय तक पुरु ने अपना राज्य व्यास नदी तक फैला लिया था। यदि यह माना जाय कि सिकन्दर ही व्यास नदी तक विजय प्राप्त करता हुआ आया तो वह फिर आगे क्यों नहीं बढ़ा । इसलिए निर्विवाद मानना पड़ेगा कि महा- राजा पुरु एक बढ़े प्रतापी राजा थे जिन्होंने अकेले ही विश्व- विजेता महान पराक्रमी सिकन्द्र के दाँत खट्टे कर दिये। यदि आम्भी ओर अभिसार नरेश महाराज पुरु के साथ विश्वासघात न करते तो सिकन्दर का लड़ना दूर रहा भारत में प्रवेश करना ' भी असम्भव था| आम्भी के कट्ठ व्यवहार से तो महाराज पुरु पहिले से ही परिचित थे किन्तु अभिसार नरेश से उनको यह आशा न थी कि वह ठीक समय पर ऐसा विश्वासघात करेगा। नहीं तो वे उसको गज-सेना का श्रध्यक्ष क्यों बनाते। पाणिनि के व्याकरण के कुछ उदाहरणों से भी हमें पता पता चलता है कि जिस समय मद्र देश एक विशाल साम्राज्य माना जाता था उस समय कोई यवन जाति भारत पर शआक्रमण करने आई ओझोर उसकी बड़ी भारी दर्गति हुई। जैसे-- मद्राणाम समृद्धि सुमद्रम्ू, यवनानां व्यद्धि: दुर्यववनम्”। शन दोनों उदाशइरणां में सुमद्रम” पीर सयंचनम विचारणीय ६ खज्नप से उमनत्रम दा अथ है मद्र देश का धन दालत स॑ सम्पक ता; टुयबनंयथ था झथे है यदनों का धन संपत्ति से रट्वत हाना । मद्र देश प्राचीन काल से पश्जाव के मध्य देश झा नाम था:
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'ओर यहां के रहने वाले भी सद्रं ही कहलाये हँ। एलेम्तेग्डर 'के समय पुरु (पोरस ) यहां के सम्राद थे। इतिहास को ध्यान- 'पूवंक देखने से तथा उपयुक्त पाणिनि के उदाहरणों से प्रतीत होता दे कि भद्र देश वासियों से यदि यबनों की ठुगेति हुई तो केवल “पुरु और एलेग्ज्ेण्डर के समय में ही हुई और समय में नहीं। मेगल्थनीज़ एक यूनानी राजदूत था । जिसको सेल्युकस ( सिकन्दर के भूतपू सेनापति ) ने चन्द्रमुप्त मौय के दरबार भेजा था। वह कोई पांच बपे तक. ३०२ से रश्ध८ ई० पूर्व 'पाटलीपुव में रहा । उसने चन्द्रगुप्त के राजत्व काल का वृत्तान्त लिखते हुए एक स्थान पर महाराजा पुरु को चन्द्रगुप्त मौ्य से भी : बढ़ कर बताया है । ह इसलिए आधुनिक इतिहासकारों की ही यह भ्रान्त धारणा 'है कि फारस के समान भारत में भी एलेग््ेण्डर की विजय हुई । 'परन्तु श्रीक इतिहासकारों और विशेषकर एरियन, काटियस 'प्लूटाक तथा जसटिन के लेखों से पता. चलता है: कि एलेग्जेण्डर 'के भारत पर विजयी होते “की क्ूठी कथा 'घढ़ी गई है ।- इतना ही नहीं पल्कि जहाँ जहाँ भी एलेग्ज्ेए्डर के पराजय.की संभावना हुई वहाँ इत्तिहासकारों ने अपनी मनमानी कपोल कल्पना रच दी. है । भारतवर्ष पर आक्रमण करने से पहिले एलेग्ज्रेन्डर को “हिन्दुकुश और सिन्ध के अध्यवर्त्ती अश्वक नामक क्षत्रिय जाति 'से भी लड़ना पड़ा और उसने भी एल्ेस्जेण्डर के बुरी तरह छक्के -छुड़ाये। लगभग नौ मास तक अश्वकों, से उसे लड़ना पड़ां ओर “उनसे किसी अकार पीछा छुड़कर वह आगे घढ़ा। भारत से -लौटती बार भी सिकन्द्र को कई जातियों से लड़ना पढ़ा। जिनमें वसे मलोई या माली जाति ने उसे बहुत कष्ट दिये। इन बातों
[ ३४ ॥)
“को लिखने का अभिआ्लाय केवल इतना ही है कि पाठकों को यह नहीं समम्त लेना चाहिए कि सिकन्दर को किसी से हार खानी ही नहीं पड़ी) सिकन्दर सचमुच ही एक महान विजेता था परन्तु “महाराज पुरु उसको भी परास्त करने में एक अद्वितीय घीर थे । अब तक हमने अपने चरित्र-नायक के प्रताप की विवेचना की। अब ज़रा उनके आदश पर भी विहृद्रम दृष्टि डालिए। 'पुरु जैसा पराक्रमी था वैसे ही अद्वितीय आदशवादी भी। तक्ष- 'शिला के विद्यापीठ से विद्या समाप्ति के वाद जब राजफुमार “पुरु शिकार खेलने जाते ६ और सायंकाल वापिस आते समय जब वे किसी खी की करुणा-जनक पुकार सुनते ६ तो उसकी : "रक्षा के निमित्त कर्ण को किस प्रकार भत्सना देते हे । “कण ? राजकुमार होते हुए एक अनाथ अबला पर अ्रत्याचार “करना तुम्हें शोभा नहीं देता । मालूम होता हैं कि तुम ज्षात्र-धर्म "को बिलकुल भूल गये हो ।” ' राजकुमार पुरु के इन शब्दों से क्षात्र धर्म का आदेश स्पष्ट “रूप से भ्कट होता है । आगे चलकर जब पुरु फर्ण का काम तमाम कर देता है “ओर सेनानायक पुरु को बन्दी बनाने फे लिये आता है तो वह “सहप अपने हाथों में हथकड़ियाँ पहनाने के लिये सेनानायक फ्ो कहता है और अपने साथिया से कहता हैँ कि-+न्याय फे “सम्मुख राजा और रहु दोनों समान हूँ ?” यह बात पुरु के न्याय- प्रियता की थोतक है । उर्वशी हृदय से पुरु को चाहती थी फोर “पुर भी उबंशी फो, फिन्तु आम्सी इस सम्बन्ध छो कद्यापि पसन्द नहीं करता था। पुरु ने क्षित समय शामली फो अपने अधीन
कधननलणन,
फिया यदि वह किक पेछ घदला परहा स्य्मा “फिया यदि बंद चादतातों पिछला बदला चुद्य छर इबसी
[ ३६ |]
से शादी कर सकता था; किन्तु पुरु ने अपने आदश्श को देदीप्य- मान करना था। इस लिए आम्भी का राज्य भी उसे वापिसः लौटा दिया ओर उ्वंशी को भी कहला भेजा कि तुम्हारे पिता की सम्मति.से ही हमारा वैवाहिक सम्बन्ध होना अच्छा है । पुरुः इस बात पर हृढ़ रहा ओर जब तक आम्भी ने स्वयं स्वीकृति नहीं दी तंव तक उससे शादी नहीं की। यदि आम्भी इंस बात'
फी स्वीकृति अन्त तक न भी देता तो सम्भव था कि वह उससे: विवाह ही न करता ।
जिस सिकन्दर ने आक्रमण करके पुरु को युद्ध के लिए:
बाधित किया ओर जो सिकन्दर भारतवपे को सदा के लिए पराधीन करना चाहता था वह जब जेहलम की लड़ाई के प्रथम दिन हार खाकर अपने प्राण बचाकर अपनी सेना सहित भाग रहा : था और ओर मद्र देश के .सिपाही नदी के इस पार से तीर वृष्टि कर रहे थे तो उस समय सहसा आकर पुरु अपने सैनिकों को: रोकते हैँ और कहते हँ--“भागते हुए शब्रु. पर आक्रमण करना: नोति-विरुद्ध है।” ये शब्द पुरु की नीति-प्रियता.के योतक हैं। इस प्रकार महाराजा पुरु के जीवन का एक एक अंश आदशे-
मय है। प्रतापी होना ओर. साथ ही अद्वितीय आदशंमय शासक होना, यह ; सर्वेसाधारण में सव्ंथा अंसम्भव है। चाहे आज
के लेखक उच्च ्रेणी के वीर प्रतापी स्वाभिमानी ओर देश के रक्षक महाराजा पुरु को अपनी लेखनी द्वारा वन का विषय न बनायें तो यह उनकी अपनी इच्छा-पर निरभर है.। परन्तु अन्वेषकों को चाहिए कि वे पुरु (पोरस ) के . जीवन के विषय में अधिका-
घिक अन्वेषण करें तांकि ऐसा महान प्रतापी राजा जनता कीः दृष्टि से ऑमल न रहे।.... पद
सिक्ख संप्रदाय के प्रवर्तक-- आदि गुरु श्री नानक देव
श्री गुरुनानक जी की बंश-परम्परा सूबे वंशी भगवान राम- चन्द्र जी के कुज्न से मिलती है । इसका उल्लेख सिक्स संप्रदाय के अन्तिम गुरु श्री गोविन्दर्सिह् जी ने स्वरचित ( विचित्र नाटक ) में इस प्रकार किया हे--श्री रामचनद्ध जो के लव ओर कुश नाम के दो पुत्र थे । वत्तमान लाहौर शहर जिसका पुराना नाम लवष्ठर था; लब ने वसाया और झपने नाम पर हो इसका साम रक्खा था। छुश ने कुशपुर की नींव रखी' जो कि बिगइते-विगड़ते ' आजकल कसूर' नामक शहर से प्रसिद्ध है। ये दोनों भाई बहुत
'देर तक उपरोक्त शद्॒रों पर राज्य करते रहे। इनकी कई पीढ़ियां
के उपरान्त लव॒ की समन््तति से कालराय ओर फुश की सन्तति से कालकेत नाम के दो प्रसिद्ध राजा हुए । वे दोनों दी पररपर चहुत देर तक लड़ते-कंगड़ते रहे। अन्त में कालक्ेंत दूसरे पर विजयी हुआ ओर कालराय भाग कर मथुरा और अमरझछोर थे मध्यवर्ती प्रान्त सनाड़े में जा बसा। बहां उसने क्रिसी राजकन्या चेवाह कर लिया। उसके ग स उपन्न हुए पुत्र का नाम राय था। उद्ीी सोदीराय की सन्तति आजकल सोही रूद्नी & हैं। सोद़ीराय की पॉचची पी वीर राजा हो गज़रा है! जिस चहों राज्य करने वाले फुश बंशीय राजाओं मे राय थे कठितता ग् अपनी जान बचाझर बड़ी 2 25 मं
डक लक + ० 5 325 डक अन्यथा बनिवसतल्कन टज /£ह पपत लग । उत्तम कट एक सनन्याद हफर झादा।
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गये ओर वहाँ चेदाध्ययन में संलग्न हो गये। उन्हीं की सनन््तति में से वेदी खत्री हुए ।
इधर सोढ़ीराय की सन््तति में से विजयराय को भी वेद पढ़ने की इच्छा हुई और उसने वेदीराय नामक एक परिडत से वेदों को पढ़ना आरम्भ किया। अन्त में वह राजा बैराग्त के बशीभृत हो परिडत वेदीराब को ही सारा राज्य-्भार साँप कर स्वयं सन््यासी हो गया। वेदी बंश में एक श्रम्भोज राजा हुआ है, भाग्यचक्र से उसका राज्य केवलमात्र बीस प्रामों पर ही रह गया। महमूद यज्ञनवी के श्आक्रमणों ने उसे भी नष्ट-भ्रट कर दिया। परन्तु फिर भी यहो बेदी पिण्डीभट्टियां जिला लाहौर में किसी न किसी तरह आबाद रहे! इन्हीं के बंश में एक शिवरामदास वेदी हुआ है। जिसके दो पृत्र थे काल और लालू | जिनका जन्म काल सं? १४०० बिक्रमीय के लगभग है। इनमें क्रालूचन्द्र जी तलवण्डी के शासक रायबलार के ग्रवन्धक श्रे। यही पृज्य गुरुनानक जी के पिता थे।
गुरु नानक जी का जन्म परिचय---
ओऔगुरुनानक जी का जन्म १४२६ विक्रमी कार्तिक शुदी पूर्णो- मासी के दिन रायभोय की तलवंडी जिसको अब ननकाना साहब कहते है. हुआ था। इनके पिता का नाम कालू वेदी था जो कि खतन्नी वंशन था जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है । गुरुजी को माता का नाम दप्ता था। अपने नाना के घर उत्पन्न द्वोने के कारण गुरुजी का नाम नानक रखा गया। कहते हैं. कि दाई दौलतां ने उनके चाँद से मुखढ़े को देख विस्मित होकर . कहा . कि मैंने अपनी सारी आयु में जितने भी बच्चे जनाये हैं इस
[ ३]
जैसा अदूभुत बच्चा आजतक कोई भी नहीं देखा। . पह,अवश्य ही बड़ा होकर संसार में अपना तथा अपने माता पिता का नाम उब्ज्यल करेगा | पृत्र-जन्म की शुभ सूचना पाकर कालू बेदी ने दीन-ढुखियों में बहुत सा धन . बॉँटा | ज्योतिषी को बुला कर सुरुनानक जी की जन्म-कुण्डली ,दिखलाई। तब परिडतजी ते अह-चाल देखकर कहा कि आप का पुत्र एक अद्वितीय व्यक्ति होगा। जब तक यह संसार है तब वक,इसका नास जीवित रहेगा रु नानक जी व्चपन से ही अपने समवयस्क बालकों के साथ खेलते २ कट एकान््त में जाकर ऐसी समाधि लगाते जैसे कोई योगी अपने चिर-अश्यस्त योगाभ्यास में व्यस्त हो। लड़कों से खेलते २ भी हर ससय सत् करतार के भजन. में मस्त रहते थे। उन्होंने बाल्य काल से ही ज्योतिषी जी की भविष्य-वाणी का परिचय देना आरम्भ कर दिया था। एक समय की बात है कि गुरु ली की मासी माई लक्खी अपनी बड़ी बहन से मिलमे- आई तो उसते नानक जी के इस तपस्वी जीवन को देखकर माई उ से कहा कि बहन ! तेरा पुत्र तो पागल सा लगता है। गुरु. साहिव भी वहीं पास ही बेल रहे थे आपने कहा-मासी ! चिन्ता न ऊर तेरा पुत्र भी ऐसा (मु जैसा) ही होगा। सचमुच उसका अुच्र 5. भी वैसा ही निकला । वावा रामथम्बन भी एक प्रसिद्ध - पगी साधु हो चुके हैं। उनका स्थान कसूर के समीप रामथम्बन + नाम से भज्तिद्ध है । प्रति बे बैसाखी को यहाँ बड़ा भारी मेला लगता है।.. : ह
पे शुरुतानक आठ बचे के गये तब उसके
हे ४ सके पिता उस्हें सी संस्टत पढ़ाने के लिये एक चोए के
परिडत वृजनाथ जी के
[9५ )
पास ले गये हूं । पं० जी ते गुर नानक जी का वुद्धि-वेचित्य देखकर कालूचन्द्र से कह्ा-क्रि इसे तो व्यर्थ ही आप इधर उधर पढ़ने के लिये भेजते हैं। यह तो हमारे पढ़ाये बिना ही सब कुछ पढ़ा हुआ है | बड़े २ धुरन्धर विद्वानों के भो कान खींचता है । आपको इसके सम्बन्ध सें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी 'चाहिये। यह स्व-गुण सम्पन्न है और सारी विद्यायें दसरों की अपेक्षा कहीं अधिक जानता है। ज्यों-ज्यों गुरु नांनक की आयु बढ़ती गई त्यो-त्यों वे सांसारिक झूंगड़ों से विरक्त होकर घैराग्य की ओर अधिक प्रवृत्ति हुए और लोगों को अपने २ धर्म टढ़ रहने की शिक्षा देने लगे । इस प्रकार तरह-तरह के उप- देशों से उनके चित्त को शान्ति देने लगे। गुरुजी का उपदेश सुनने तथा उनसे गुरु-मन्त्र ग्रहण करने के लिये पञ्ञाव से ही नहीं बल्कि सारे भारत वर्ष तथा अन्य देशों से भी कई लोग संगतों के रूप में आया करते थे। गुरुजी स्वयं भी जगह-जगह फिर कर लोगों को सम्मागे पर चलने का उपदेश दिया करते थे लोगों को एक ही अकाल पुरुष की पूजा करने को कहते । उन्होंने अपने प्रान्त व देश ही में नहीं, वल्कि भारत से बाहिर काबुल, कन्धार, फारस, अरब, वगदाद, मक्का, मदीना, रोम, नेपाल, ओर चीन आदि विदेशों में जाकर भी मानव धर्म की शिक्षा दी और सिक्ख सम्प्रदाय का प्रचार किया । इसी कारण आजकल भारत से बाहिर भी उनके द्वारा स्थापित किये गये कई एक पवित्र स्थान मिलते हैं। ये स्थान सिक्ख सम्प्रदाय में बड़ी श्रद्धा को इंप्रि से देखे जाते हैं तथा पूजे जाते हैं ।
गुरुनानक जी का विवाह पकखेोंके (ग्राम ) जिला गुरु
[ ४ ]
दासपुर में मूलचन्द खन्री की कन्या माता सुलक्खनी से र5प्रविष् जेष्ठ मास सस्बत १४४४ विक्रमी को हुआ था । ४ श्रावण सम्बत १४४१ वि० को गुरुन्नो के यहाँ एक पृत्र-रत्न उत्पन्न हुआ | उसका नाम श्रीचन्द्र क्खा गया, इसी श्रीचन्द्र ने उदासी पन््य को जन्स दिया। फिर १५४२ थि० ४ फाल्गुन को दूसरे पत्र लद्ृमीचन्द्र क जन्म हुआ । इसको सनन््तान बेदी साहिवज्ञादे हैं
सिकख धर्म के आदियुरु नानक जी की शिक्षा था धर्मिक सिद्धान्त-उनके अपने मतानुसार भिन्न-भिन्न जाति पश्ीर सम्प्रदायों में विभक्क होकर रहना उचित नहीं। इन्द्रिय-दमन और चितत- संयम को हो वे सवापेज्षा श्रेयस्कर बतलाने थे। झआत्म-शुद्धि उनका मूलमंत्र था। विशुद्ध मन से फेचल एकमात्र श्रष्ितोय ईश्वर की उपासना करना ही उनके मत में स्व-प्रधथम धर्मायरणश था। नानक जीने कई एक भूत भदऊे स्न्दिप्ां पोर मुस- लमानों को सत्य भाग पर लाने का बन्न किया। उद्दनि बेद तथा फुरान के केवल पाठ्मात्र का भी खरडन किया है। वे केबल हघरा- पासना को ही परम सुख की आपि का उपाय शोर जीवनमुक परम का साथन मानते थे | प्राझ्मण- क्षत्रिय. चेश्य, घद्र और शसलमान सब एक ही परमेश्वर के पत्र, उनमें फीई ऊँच नीच का भद-भा नहों, प्रतगव परन्पर परश्ा तथा रक्ू दसर पर घत्यायार फरना वे घोर पाप सममते थे इन््हेनि अपने पत्रिन्न जीवन तथा उपदेश घ शब्दां द्वारा इस घात पर खूब चल दिया है हि उंसा पे!
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असार समा छा बांदा, ऊंचा नया बंदान्दया को तरह नर्वा
च्याग +उ जम औ ी कक २० $े नजना। अटशणाब खओजड अजट। 2000 ५०५ डे कट दा 252 लक स्यागना चांध्य | सत्यचार उपासना का एहल्टुटा हे क्राचास
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उत्पन्न होने पर शास्त्रोक्त विधि के अनुसार सूतक माना जाता है । इसी प्रकार गुरुनानक जो के यहाँ जब श्रीचन्द्र का जन्म हुआ तो घर वालों ने सूतक निवृत्यथ एक योग्य परिडत को बुलाया परिडतजी आवश्यक सामग्री एकत्र कर जब हवन आदि धार्मिक कृत्य आरम्भ करने लगे तो गुरुनानक ने पसरिडत जी से प्रश्न किया कि आप यह क्या लीला रच रहे हैँ । परिडतजी ने उत्तर में निवेदन किया कि पुत्रों की उत्पत्ति के कारण जो आप के सृतक हो रहा है उसकी निवृत्ति के लिए मैं शास्त्रोक्त घार्मिक कृत्य कर रहा हूँ। गुरु जो ने विस्मित होकर कहा कि केवल एक वालक के उत्पन्न होने के कारण हमारे धर को सूतक वाला या अशुद्ध समम कर आप शुद्ध करना बतला रहे हैं, परन्तु यह तो कभी भी शुद्ध नहीं दो सकेगा । क्योंकि ईश्वर-रचित प्रत्येक चस्तु में प्राण होने के कारण प्रत्येक प्राणी उन वस्तुओं को अपने प्रयोग में लाने से हर समय सूतक-प्रस्त रहता है। इसलिए आपके कथना- नुसार तो सदा ही सूतक बना रहता है । फिर उसकी शुद्धि कैसी ?
गुरुजी के मुखारविन्द से ऐसे शब्द सुन कर परिडित जी कहने लगे, तो क्या आपके विचार में सारे ही श्रृत्ति स्मृति भूठे हैं. ? गुरु जी ने कहा भूठे नहीं, आप मेरी बात को अच्छी . तरह से समझे नहीं | वास्तव में यह सूतक नहीं, जिसे आप खूतक सममे बैठे हैं | सच्चा सूतक तो कुछ और ही है । का
जैसे--मन का सूतक लोभ है, .जिह्मा सूत्तक कूड। * अ्रक्खीं सूतक देखना परतिरियां परधन रूप ॥ कन्नो सूतक कन परा लाइए बतारी खाये. नानक हिंसा आदसी बद्धे यमपुर जाये ॥
[ ७ ]
अर्थात् मन का सूतक लोभ, जिह्ठा का सूतक असत्य-भाषण- नेत्रों का सूतक दूसरे की स्त्री तथा पर धन को बरी दृष्टि से देखना, कानों का सूतक अपने कानों से दूसरे की निन््द्रा सुनना । इसलिए हमेशा ही सूतक-युक्त रखने ब्राली ऊपर लिखी बातों से किनारा करना गअत्येक मनुष्य के लिए परमावश्यक है। परिडत जी गुरू जी के इन शब्दों को सुन कर निदुत्तर से हैं! गये ओर मन ही सन में उनके विचारों को सराहना ऋरने लगे। गुरू जी फे इस प्रक्रार फे उच्च चिचारों से प्रभावित हो कर बहुत सारे हिन्दू तथा मुसलमान उनके शिष्य ही गयधे। आप हिन्दू तथा मुसलमान दोनों को दी एक समान सममते थे । जब कोई हिन्द्र या मुसलमान उनके पास किसी प्रकार का उपदेश लेने आते तो आप उन्हें सच्चा हिन्दू या सथ्या मुसलमान बनने की शिक्षा देते। आप निःसंकोच भाव से कहते कि ईश्वर ने जन्म सेन किसी को हिन्दू और न क्रिसी को मुसलमान बनाया एँ । घल्कि जो उप्तकी श्राज्ञा फा पालन करेगा बद्ी उसके सामने सच्चा हिन्दू या मुसलमान सिद्ध हो सफेगा। हिन्दू हो था गुसल- मान झथवा कोई अन्य मतावलम्बी हो, प्रत्येक फो 'अपने किये कर्म दी फाम था सकेंगे । यदि कोई मनुष्य स्वार्थ या धार्मिझ अन्यविश्वास फे कारण किसी जीव से श्रत्याचार फरेया तो 5 अवश्य उसका फन्म भोगना पड़ेगा । ख्न््त समय सियाये शुभ कर्मो के फोई भी दिखायवे ( नाममात्र ) का धरम साथ न देग्य । इसलिये प्रत्येक व्यक्ति का सबे-प्रधथम यही पलध्य होना घाहिर कि वह अनिए्कारी भश्युम कर्मों का परित्याग कर शुभ एसमों मे तत्पर हो झपने परलोक के मागे फो निष्षणटक यमाये ।
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गुरु नानक जी के उपरोक्त स्वतन्त्र विचारों के कारण हिन्द ओर मुसलमानों के तत्काल्लीन धार्मिक नेता कुट्ते और उनसे इंप्यो करते थे । इसी कारण एक वार तो काज़ियों ने नवाब दीलतसां लोदी को गुरु जी के विरुद्ध खूब भड़काया और प्रार्थना की, कि यदि शुरु नानक अपने को परमेश्वर का परम भक्त मानते हुए हिन्दू मुसलमानों को समहष्टि से देखने की घोपणा करते ' हैं, तो इनसे कहो कि हमारे साथ मसनिद में आकर नमाक्ष पु । जब गुरुजा स नवाब न पूछा ता आपने उसके उत्तर स कहा कि हमें इंश्वर की पूजा सें सम्मिलित होने में क्रिसी जगह भी कोई घृणा नहीं, चाहे जिस स्थान पर ईश्वर का नाम लिया जावे हम हर एक स्थान पर जाने को तथ्यार हैँ) अपने कथना- नुपतार गुरुनानक नवाव के साथ मसजिद में गये | जब « सुसलमान लोग नमाज्ञ पढ़ चुके और गुरुजी को वैसे ही बैठा पाया तो नवाव ने उनसे मधुर शब्दों में कहा कि आप हमारे साथ नमाज्ञ पढ़ने में सम्मिलित क्यों नहीं हुए।
शुरूजी ने उत्तर में कहा कि नवाब साहब आप - तो नसाज्ष पढ़ते समय काबुल में घोड़े खरीद रहे थे ओर काज्ञी सा अपने घर से अपनी घोड़ी के बच्चे की ओर ध्यान लगाये बंठे थे कि कहीं वे कूएं में व गिर पड़े । भत्रा अब आप ही बताएं कि हम किसके साथ नमाज्ञ पढ़ते, जबकि आप लोगों का ध्यान : तो सांसारिक बच्ठुओं के अन्दर फंसा हुआ है | जब काज्ञी 'साइव से पूछा गया तो उसे भी इस सत्यता को स्वीकार करना पड़ा । वस वहीं-पर वे दोनों शुरु जी के शिष्य बन गये। उन्हें इस बात का पूर्ण विश्वास हो गया कि गुरूजी एक पहुँचे हुए महात्मा हैं। हे ह
[६ |] गुरु जी का स्वदेश भ्रमण
जब गुरू नानकदेव जी ने देखा कि हर समय शिष्य-मंडली के पास रहने के कारण ईखर-चिन्तन का समय मिलना कठिन है तो आप वंश परम्पंरागत मरदाना नामक अपने मरासी को अपने साथ लेकर सुलतानपुर से चल दिये। वे जिस शहर या गांव में जाते लोगों को सत्यमाग पर चलने का उपदेश देते ओर भाई मरदाना गुरु नानक जी के रचे हुए शब्द लोगों को गाकर सुनाता, जिनसे श्रोतागण बहुत प्रभावित होते । मांगे में गुरु साहब कई एक फकीरों को मिलते जुलते लाहर पहुँचे। उन दिनां गुरू जी जिस स्थाव पर ठहरे हुए थे उस जगह अभी तक उनकी स्मृति में एक स्थान बना हुआ है । लाहोर से चलकर आप एमनाबाद पथघारे श्र अपने प्रिय भक्त भाई लालू नामक चढ़ई के पास फुछ दिन रह कर अपने प्रेमियों को उस श्रकाल पुरुष का उपदेश करते रहे। परन्तु कुछ एक उच ज्ञाति के लोगों को शुरु सहाराज का लालू बढई के पास निवास करना अमु- चित्त प्रतोत्त हुआ। इसलिए उन्होंने गुरु जी से प्रार्थना की छि आप हमारे पास आकर ठहरें । परन्तु इन्होंने उन लोगों की इस प्रार्थना को अस्वीकार करते हुए उत्तर में कहा, कि आप लालू बढदई को शृद्र जाति फा समझा कर शा प्पने पास ठहरने के लिए विवश्ष क्या कर सट्ट हैं। श्राप सर जानिए फ़ि में उसके प्रेम-पाश में बंबाहशाही एमनाबाद स्ामे
3(2 थ्ध ञ्क दं >+ बे यू के
फो विवश हुआ है । एमनावा पलक रे सुर मानडती मटाराज 2५ नशा >> ः है
[ १० ै
बाद अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए पृथे की ओर चल पड़े। रवं प्रथम आप चूनियाँ शहर में पहुंचे ओर वहां शेख दाऊद से मिल कर वे बहुत असन्न हुए । कुछ दिन उनके साथ धमंचर्चा करते हुर - फिए सतत्ुज्ञ पार कर मालवा जा पहुँचे । कुछ काल वेदों की जनता को अपने उपदेरासत से तृप्त कर गंगा के तट कनखन्न में जा पहुँचे, बड्ां इप्तो चप कुम्म का सेला था। उन्हों ने अपने मत के प्रचार का यह सर्वोत्तम समय जान कर लागों में खूब धम-प्रचार किया । आपकी अमृतमयी वाणी को सुन कर बड़े-बड़े घुरन्धर विद्वान चकित रह गये | वहां आये हुए लोगों पर उतके उपदेश का इतना प्रभाव पड़ा कि हज्षारों ही व्यक्ति आपके शिष्य वन गये । आपके भक्तों ने इस पुण्य स्मृति के लक्ष्य में वह्यां एक्र युरुद्वारा बनवा दिय्या । जो आजकल भी विद्यमान है। वहां से आप सीधें ही भारत की राजघथानी देशलो
पहुँचे ।
2
शुरु नानकदेव जी ने देहली पहुँचने पर अपना डेरा मजनूं के टीले के समीप लगाया, चहां भी आपकी स्मृति में एक शुरु- द्वारा बना हुआ है । उन दिलों देइली के राजसिंहासन पर सिकन्दर लोदी विराज्ममान था बह अपने अत्याचारों के कारण बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति साना जाता था । विशेषतः बह साधुओं नहात्माओं के साथ तो बहुत ही बुरा व्यवहार करता था. क्योंकि उसके सन में यह बात पूरी तरह से अछ्लित हो चुकी थी कि साधु मदठात्मा और फक्रीर लोग बहुत ही सिद्धियां अपने पास रखते हैं, और सेवा करने पर भी किसी को बतलाते नहीं। वाइशाह को इन सिद्धियों को ज्ञानने का बड़ा शौंक था, इसी कारण उसने
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सेकड़ी ही साधु महात्माश्रों की बड़े २ कष्ट पहुँचाए। भक्त कबीर को ग्ज में बदाया, नामदेव को द्वाथी के पाँचों तले कुचलवा डाला. श्रीर रविदास को सकाल की छत पर से गिरवा दिया था। इसके अतिरिक्त हज़ारों ही हिन्दू साधु और मुसलमान फकीरों को इस वादशाह से वनन््दी बना रखा था। जब बादशाह को इस्त बात का पता चज्ञा कि कोई नया एक हिन्दू फीर झाज<ल देहली मे थआाया हुआ है तो उसने अपने नोकरों को डसे पकड़ लाने के आज्ञा दी | आखिर गुरु नानक जी भाई मरदाना और भाई पाला सहित पकड़ कर बादशाह लोदी के सामने पेश क्विये गये | ६ भी दूसरे बन्दियों की भांति बन््दरी बना लिया गया और चक्िकियां गल्ला पीसने के लिये उनके सामने रख दी गई । भाई मरदाना ने घबरा कर गुरुजी से कहा कि आपके साथ आने का हमें श्रच्छा फल्न मिला, शव तो विन आई मौत मरना पड़ेगा। शुरू नानी: जी ने उत्तर में उससे कहा कि तुम सब फकीरों से छू दो दि ये चक्षिप्ों को बिल्कुल हाथ न लगाव । सब फ़ड्कीरोंने एसा ही फिया। दूसरे दिन प्रात: गुरु नानक जी ने मरदाना को रवाब बजाने मे आत्ादी और स्वयं शब्दोंका गाना आरम्भ कर दिया। शब्दों छा इश्चाएण करने का बिलम्ब था कि सारी ही चित स्वयं चलमके लग पड़ीं। बादज्ञाह का महल समीप होने फे फारश इस. सभू शब्दों फो इसने भी सता । इसके दिलवयर उसका घाल भारी प्रभाद पढ़ा | टीफ इसी समय जेल छे दारोगा ने बादशाह व्पस्थित होकर प्रार्थना की कि एक फोर झब्याता चॉडियों चल पहती है। यह खबर पाते ही बादशाह
3 .
में गया और यहां न्द्द् पिया से
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त्रिस्सित हुआ और अपने अनुचित व्यवहार से लब्ञित होकर ज्ञमा याचना करने लगा। गुरुजी ने कहा कि तुम निर्दोपो फकीरों को बन्द्री बनाकर अपने परलोक के सागे फो कण्टकाकीण बना रहे हो | इसलिये तुम यदि अपना भल्ना चाहते हो तो तुरन्त ही इन्हें मुक्त कर दो । नहीं तो तुम्हारा राज्य नप्ट-भ्रष्ट हो ज्ावेगा। बादशाह ने उसी समंय सब फकीरों को मुक्त कर दिया। थे सार फक्नीर गुरु जी के बहुत हो कृतज्ञ हुए | इसी कारण दर दर तक गुरुजी की प्रसिद्धि फेल गई। वादशाह ने क्षमा याचना करते हुए ब्रहुत सा धन गुरुजी की सेवा में भेंट करना चाहा, परन्तु उन्होंने एक कौड़ी तक लेना भी स्वीकार न किया | गुरु नानक जी देहली से चल कर अलीगढ़ होते हुए मथुरा वृन्द्राचन जा पहुँचे । वहाँ कई दिन रहकर वे कई एक सन्त महात्माओं से मिले और लोगों में ध्म-चर्चा करते रहे | यहां पर गुरु जी के उपदेश का बड़ा प्रभाव पड़ा | इप्त कारण हज़ारों ही लोग गुरुजी के मतानुयायी
न गये। फिर वे काशी जी गये और वहाँ पहुँचकर नामदेव रविदास ओर भक्त कवीर आदि कई एक सन्त महात्माओं के दशन कर पटना की ओर चल दिये। वहां के लोगों में सदूधर् का उपदेश करते हुए गुरु जी कई दिन रहे । यहां इनकी दुप्ृति में अभी
के एक गुरुद्वारा भी बना हुआ हैं । पटना से राजगिरि व विदा
न्त के कई एक नंगराँ से चक्कर काठते हुए प्रसिद्ध तोथ गया में पहँचे। कई दिन वहां रहकंर लोगों में धर्म-प्रचार करते रहे । फिर वहां से चलकर विन्ध्याचल की तराई में होकर माग में अनेको स्थानों पर धर्म-प्रचार करके गुरुजी जबलपुर ज़ा पहुँचे फिर भूपाल, मांसी, ग्वालियर आदि कई शहरों में होते हुए
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पञ्ञाव प्रान्त करनाल में आ गये ) वहां पर फक्ीर शमशुद्देन तथ्य जलालुद्देत आदि कई एक प्रसिद्ध मुसलमान फडीरों के साथ अपने धमे तथा मत की चर्चा कर सतल्ुज्ञ नदी को पार करते हुए सुलतानपुर रियासत कपूरथला में बापिस लोट आये। अपनों बहिन तथा उस के दीवान जयराम को देश-भ्रमण क्े बृतान्त सुनाने लगे। इस प्रकार चारों ओर गुरुजी ने सद्धमे का प्रचार क्िया। घर में आकर भी गुरू साहिब ने धर्म उपदेश देना नहीं छोड़ा । कबीर की भांति अपने पुत्रों की दशा देखकर गुरुजी ब्रहुत चिन्तित रहते थे। इनकी तरह प्रतिभाशाली या ज्ञानवान उनके पुत्र न थे। मनुष्य को संसार में सत्य मनन का सेवन करते हुए अपना जीवन व्यतीत करना चाहिये; इस शिक्षा व सिद्धान्त की परीक्षा में उनके प्रश्न पूरे ने उत्तरे । इसी कारण ग़ुद मानकज़ी मे अपने दोनों द्वी पुत्रों को अपना उत्तराधिकारी न बनाकर अपने हद भक्त शरीर पर्ण विश्वासी / लाना )
बाद में गुरु अंगद के नाम से पअसिद्ध हुआ। उसे अपनों सही का उत्तरापिकारी घोषित कर ६६ बपे ० मास १० दिन । झ्राखिन बी देशमी संबत् १४६६ प्रातः का आप हस असार संसार
को परित्याग कर स्थ॒ग लोक को सिधारे। बेदी परिवार फ् सुरज्ञ तथा श्रीभगवान कि अनस्य इपासक शुदवर लागण देय मी सप्षिम समय परलोक यात्रा को प्रस्थान छरने लगे. उसके सुधा ने क्रिप्दित्ू शोक प्रकट छिया। शुरू सानझ जो ने अपने लगना शा समझाया झि मिसझ्ा इस संमार में जन्म हुआ दसई) मे सवश्यभावी है । 'प्रतण्व ठमें सत्य स्तर प्राप्त हासे मे प्रक्रति रो है। इहता प्रन्ल समझती चादिए । >ब इच्छा पृणा हो. गगन पं याटिए मृत्यु पर शोक प्रश्न झरे
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शुरू जी ने तदनन्तर उपदेश देते हुए अपने पृत्रों से कहा-- श्री परमात्मा के स्मरण में बाधा न थाने दो, सदैव ध्यान श्रीचर शो में लगाए रखो। दवा और ज्ञम्रा मनुष्य के सर्वेत्तिम शुण हैं। सदैव सदय ओर ज्ञषमाशील बने रहो । श्रपराधी को ज्ञमा कर देना, बदला लेना का विचार न रखना तथा दलित पीड़ित और रोगी के लिब्रे सदेव दया का भण्डार खुत्ा रखता। धर्म के पालन में तत्परता दिखाना। थर्म के लिए प्राण न्यौछाबर करने को सदा अपनी कमर कसे हुए रखना | यदि मेर कथन के अनुसार जीवन ब्रिताओंगे तो लक्ष्मी तुम्हारे मांगे में पन्रऊ विछाए रखेगी। चिन्ता जीवन को हानि पहुँचातों है । ईश्वर-चिस्तन आत्मा की उन्नति करता है ।
अपने अंतिम ज्ञणों में श्रीपूज्य गुददेव नानक देव ने सिक््ख भाइयों के प्रति अपना श्रन्तिम संदेश दिया । आपका कहना था कि इश्चर भक्ति और देशभक्ति में कभी कसर न छोड़ना । विदेशी शासक अत्यन्त प्रचुद्ध तथा कूटनीति के पालन करने वाले हैं | इन विदेशियों के हाथों से माठ्भूमि को स्वतंत्र कराना तथा अपने चीर पूर्वजों के पदचिह्नों पर चलते हुए अमर कीर्ति प्राप्त करना ।
सिक्स्नों को चाहिए हरि का निरन्तर पूजन करें। मन, वचन ओर कम से शुद्ध रहे | आत्मा और परमात्मा की एकता को सममने की कोशिश करें । सत्य संसार का सब से ऊँचा ज्ञान है | जिसने सत्य की साथना की है उसे क्रिसी वस्तु का भय नहीं । सेवा संसार की सर्वश्रेष्ठ भावना है.जिस व्यक्ति ने प्राणियोंक्री सेवा में जी लगाया, उसके कल्याण में कोई भी संदेद नहीं। परमात्मा के नाम स्मरण पर गुरुजी ने बहुत जोर दिया है | आपने कहा है कि एकाम्र चित्त से ध्यान करना आत्मा को जागृत करने में सहायक
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होता है। नाम-जाप के समय या ईश्वर-पूजन के समय चिन्ते“क्वा डांबराडोज् रहना श्रेयकर नहीं। प्न को एकाग्र करके परमेश्वर के : ध्यान में लव॒लीन होकर प्रभु के नाम को याद करना चाहिए ।
भजन में सावधान रहो ओर शुभ कम करो | भजन के उपरान्त गुरु नानक देव कर्म को महत्ता देते थे | कम जीवन में प्रधान है । कम करने में मनुष्य स्वतंत्र है। इसलिये गरु जी ने उपदेश क्रिया कि मनुष्य शुभ कमे करे। भल्तले कम प्रात्मा को जगा देते हैं। शुरू नानक अपने मन्तव्यों के पक्के थे। उनके चलाए हुए पंथ में बहादुरी, ईमानदारी ओर परोपकार ही प्रमुख हैं। गुरु नानक श्रपने सिद्धान्तों के प्रचार के लिये श्रमण करते थे अपने मन्तत्यों फे वास््ते प्राण तक देने को भो तैयार रहने थे। आपके तेज भीर बल की ज्ञितनी महिम्ता गाई जाए उतनी ही थोड़ी है ।
“जात पात नहीं पूछे कोई । हर को भजे सो हर का हार ३॥ एल्ली थी ओजपुण गुरुदेव की वाणी | कहते हैं आपके ठपदेशासून को पीकर बादशाह सिकन्दर लोदो का गुर सैयद अहमदशाह एकबारगी आपका प्रशंसा करने वाला झौर चेला बन यया था । नानक देव के विचारों को सुनकर फक्कीर गुरुजी फे चर में गिर गया। इसी प्रकार एक पंडा भी आपके बिचारो' को सनझकर आपर्ता शिष्य हो गया था। चह छूुप्मा- छूत में उल्लम्या टुझ्ा था। आपकी बाणी सनकर उसे तुरन्त ज्ञान हुआ और दस मन से छुआछूत का भेद मभिटा।
एक सज्वन ठग की कथा प्रसिद्ध हि । य पर हुई मस्मिद और मंदिर में यात्रियों को दाराता तथा 5 सुक्षपा करता। अन्त में यात्रियों को मारकर उनझा धन
सा। इस सब्जन कफ भय से सभा भले मारसा फय गप:7
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नानकदेव को इस ठग का पता चला तो वे कुछ समय के लिये उसी की सराय में विश्राम करने के लिये गए | वहां ठग ने गुरूजी की बड़ी सेवा की और शअ्रन्त में जब वे जाने लगे तो उनका माल चुरा लेना चाहा | इस .धारणा को जानकर गरुबर नानक ने एक छन्द् कहा,ज़िस छन्द् को सनकर उस ठग की श्ात्मा की समस्त कालिमा घुल गई और वह तुरन्त ही ठगी छोड़ कर एक भला आदमी बन गया | * इस प्रकार अपनी ओजस्थिनी वाणी द्वारा श्रीनानकदेव ने अनेक
दुरात्माओं का कल्याण कर दिया। साधु-संतो' की वाणी में प्रजा वबगे के विचारो' को बदल देने की भी शक्ति होती है ! गुरूदेव अपने शब्दों द्वारा सदैव मानवता की भलाई में तल्लीन रहे । उन्होने कभी आलध्य और अकमशण्यता को पास तक नहीं फटकने दिया ) आपका कथन है कि जाति में बाधा डालने वाले इन दोनो' दुश्मनों का सर्वेनाश करना प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति का प्रथम धर्म है|
सन्तवर शुरू नानक देव ने देवी देवताओं को उपासना का उपदेश नहीं दिया है । आपके मवालुस्तार केवल एक ही ररम ब्रह्म प्रभु है जिसकी अटूठ भक्ति करना हो मनुष्य का धम है। मूर्ति पूजा आदि में गुरु साहव की प्रतीति नहीं थी।. आपने साकार ब्रह्म का अस्तित्व मानने से इनक्वार किया है। आप तो निराकार एक ब्रह्म के अनन्य उपासक थे और उसी एकमात्र विभूति की पृज्ञापाठ का एकमात्र उपदेश आपने किया है ।
मनु दाली किरसाणी करणी सरमसुधाणी तनु खेतु | नाम वीज संतोप सुद्दागा रखुगरीबी चोसु |. भाऊ करम करि जमसी से घर भागठ देखु॥ ॥ बाबा माया .सोय न होई | इन साया जग
मोंहिआ चिरला वूमे कोई ||
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श्रीवर गुरु नानक .देव ने कहा है--तुसे यदि खेती ऋरने का ही शीऋ है तो इस प्रकार की खेती कर। अपने तन-रूपी खेत में सन को हल जोतने वाला बना । सारांश यह दि त्शभ कर्मों में चित्त लगा, तथा नीच कोटि के कर्मो पते क्रिनारा कर । भगवत भजन में किसी प्रकार की कमी नआतने दे। इस जगत में शुभ कम ही सुक्ति दिज्ञा सऊते हूँ | मुक्ति प्राप्त करने के अ्भिप्राय से आत्म-शुद्धि करनी चाहिये | श्रीनानक देव ने बताया झि जिन दूषित कार्यो के करने से आत्मा का हनन होता है उन कर्मों के। फरना तो दूर रदा, उनके पास तक सत फरको। शअ्रने खेत में श्रीभगवान का नाम-खूपी बीज डालना चादिए तथा फिर दीनता भाष शो लेकर खेठी की देख-भाल करते रहना चादिए। संतोप झीर धीरज मनुष्य के देवी लक्षण हैं | सदा हृदय में इनफ। विराज्ञमान रखना चाहिए | तदनन्तर श्री गुरूदेव का फथने £: कि इश्वर की कृपा और अपने भाव-रूपी प्रेस से शान फे दम्म्बल् त्ेत्र का दिग्दशन होगा | निम्त बर में ऐसी खेती होती है. भिसम निःसन्देद बह घर भाग्वशाली है । बह ठ्यक्ति घरद है जो शान प्रात फरने में दत्तचित्त रहता है ।
श्री गुरुदेव का सत हैं कि माया ठगिनी &े। घट इक के
अपने जाल में उलकावा चादती है परस्त बाद रखना घादिए पिः माया प्राशियों को मोड़ की फोस में गांठ लेती है) साया सी भोतिक संवार का जंजञाल है, बड़ किसी के साथ मंदी जाती । था तो हमारे शुभकने है जो हमारे साथ जे है। पन, दीचव दस मिद्ठी के पुत््षे हैं श्र इसो भिट्ठों में नलिल जात हैं। शादी पे इनमें जी नहीं लगाता है । चद्धि माया के छन्न ऐो हर हनी 4 है
हक 27208,
खए हमें साया इकट्रो नहा ऋरतनाह देरस झन गम शझग्धा
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मिहर मसीति पघ्तिदक्ु मुसत्ञा हक हलासु कुराणु । सरम सुनति सीलु रोचारु होहु मुसलमा ।
करणी काव्वा सब्र पीर कलमा करम_ निवाज । तसवी साति सुभावप्ती नानक राखे लाज ॥श॥!
हकू पराया नानका. उसु सुअर उस गाइ। गुरू पीरू हमाता भरेजा मरूदारू न खाइ। गली सिप्तती न जाइये छटो सचु कमाई! नानक गोल कुड़ोई कूड़ो पन्नै पाई ॥शा। पंजि निवाता वखत पंत्रि पंज्ञा प॑ंजे नाऊ। पहिला सच्चु हलाल दुइ तोज्ा खेर खुदाई। चौथी नीप्रति रासिमन पंजवी सिफत सुनाई। करणी कलमा आख़ि की ता मुसलमान सदाई। नानक जोते कूड़्िश्ार कूड़े कूड़ो पाई। (वार साझ) श्री गछनातक देव ने उक्त पद में अधिकार ओर अनधिकार
की उग्र,ख्या करते हुए दशाया है कि मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति के लिए नोचे लिखे हुए साधन करने चाहिएँ।वुद्धि शो पवित्र बनाए * विना चाहे क्रितमे ही धर्म कम क्यों न करो कुछ भी लाभ नहीं होता दूसरे मनुष्य को प्रभु प्राप्त करने के लिए दिंसा का पल्ला बिल्कुल छोड़ देना होगा ) अर्दिसक चृ त्ति के धारण क्विए बिना सन का मेल नहीं छूटता । जब तक मन का मैल्न नहीं घुलता,आत्मा का प्रकाश नज़र नहीं आता । कज्ञमा पढ़ना और नमाज्ञ करना दोनों ही तब हमारे काम आसकते हैं जब हम चित्त, को शुद्ध करके अर्डिसा को सच्चे रूप से धारण करंगे।मन को पवित्रता मन को एकाग्न करने में सहायक होगी और एकागम्र सन से परमात्मा का अच्छा स्मरण होता है । बिना एकाग्रता के प्रभु-सक्ति करना नितान्त
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श्रसार है । परलोक को उच्ब्बल बनाने के लिए आत्मा का कल्याण करना आवश्यक है ।
कुवुधि डुमणी छुदइज्धा कसाइण पर निंदा घट चूदड़ी यूटि क्रीप्चि चंडाली कारी कदी ऊिआ थोरी आंचारे बैटी था नालि। सच संज्ञममु करणी कारां नवाण नाइ जयेद्दी । नानक अगे उत्तम
सोई जि पायां पंद न देही ।
... एक पंडा को छूआछूत के संबंब में ज्ञान देते हुए श्री गुरूदेख नानक साहव ने बताया कि मनुष्य का सबसे बड़ा शब्रु उसकी फुसुद्धि हैं। मनुष्य की चुद्धि द्वी उसे सत या असते माग पर लगाती है जिसकी बुद्धि शुद्ध है बढ़ निःसंदेह सही भाग हृदने में सफल द्वोता है, भिसकी वृद्धि ही दपित है वह अपना मांग नहीं हंठ सकता: वरन चंद जान बूक्त कर भी कुमार पर चज्ञता है । पर निन््द्रा भरी दुप्तरे हे प्रति छिप्ती प्रकार का छाटा या नीचा भाव रखना मे की श्रात्मा की उन्नति में बाबक है। मनुष्य अपने लक्षणों पर भ्यान दे. अपने ही भले बुरे को देखे। उसे क्या आवरढता है कि पराए झाचरणों को श्रालोचना करें। अपने को अच्छा सममना
पन््य को नीचा और बुरा समझना प्राप हैं। जो व्यक्ति दूसरे रे
हद री लक काल सदरगुणत की दखता ह बंद महात्या है लाइन जा धरा को के सादे दस या के दो पर ही हृष्टि हालवाह उस दा कर यागा सोना छोड़, हर की न हा में कहीं नहीं दो सच्ता | कब ही अग्नि में ममुप्य हो स्मृति फूरस कु गे है एक है कम. सन फू, डक क कल, डर हा पर श्र हत आ् कु हर ट्त ट्क्टफ >क प मनाए & प्ौर पद सम्तशद का प्राप है जाता 8 | हि एघत 77, छाद- है के | ब्क जो आज आर जो ६ न सान हयक्लि के लिए कछोव हर मा हाभिहारक है । कोघ हमारा का चर द् चक वाससिद्ध वृत को ऋगरऊ हि! लाय बलना आर सतप्र झपप पर । जिओ आई हु च्छ आय फझरना ही सपस सन्या सास है । साय फेस रे घास्मा था धर तार ् कं अं. का ् नह हेली है | समस्ल ला पिन सार में हए 7 बरदे गेट एकिशाय €5
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यहां अस्प्श्य कोई भी मनुष्य नहीं है । सभी बगे के स्त्रो पुरुष परमा- समा के उत्पन्न करिए हुए हैं। सभी पर उसप्रभु की एक जैती कृपा है सत्रमें ब्रह्म का अस्तित्र देखता हमारे अध्यात्म की सबसे अक््छी मंजिल है । जब प्रत्येक प्राणी में एक दी सच्चिद्रानन्द ब्रह्म निकास करता है फिर कैसी छूञ्ाछूत । प्रमु के पास ऊँच नीच का विचार नदीं। जो प्रञ्जु को प्रेम
से स्मरण करता है. प्रभु उसके ददय में सस्तेह चिरकाल तक निवास करते एैँ ।
लाइ चितु करि चाकरी मानिनामु करि कंसु।
बंनु बद्श्ा करि घावणी ताको आसे घन ॥
नानक वबेखे नदरि करि चड़े चबंगण वंतु॥
परमपृज्य गुरू नानक देव की पत्रित्र वाणी का जिंतना अध्ययन
क्रिया जाय उत्तना ही आत्मा परमात्मा के निकट पहुँचता. है। आपका कथन दे कि प्रत्येक समय ब्रह्म के ध्यान में निमन्न रहो । प्रत्येक बस्तु में उत्ती अकाल ज्योति का आभास विद्यमान है. । इसका अर्थ यह नहीं कि संसारी मनुष्य अपना रोजगार धंबा छोड़कर हरिदाम स्मरण करने वाले संन््यासी बन जातें। गुझूमी का- यह भात्र था क्कि सौदागार अपना कम भी करे ओर हरि का ध्यान भी रखें | इसी प्रकार आपने जशझां यज्ञोपवीत का ग्रश्न उठाया है वहाँ भी बताया है श्वेत तागा धारण करने से परमात्मा के दर्शान नहीं हो जाएंगे न ही उससे ब्रह्म प्राप्त दो सकता-है । अ््म प्राप्ति के लिए तो मनुष्य को यक्लोपवीव के साथ दया; संतोप, संयम आदि शुभ लक्षणों को ग्रहण करना पढ़ेंगा | जिस ब्राह्मण ने केवल यज्ञोपवीत घारण किया - हुआ है और जिसके मन में दया धर्म नहीं है. वह तोन काल 'भी आत्मा को शुद्ध करके ब्रह्म को प्राप्त नहीं कर सकता |
बीर-शिरोमाणि गुरु गोविन्द सिंह जी
गुर गोविस्दर्सिह सिक्तों के दसवें और अम्विम शुरूधे। सिकख् संप्रदाय के दस शुरुओं में इनका अद्वितीय स्थाम है । यो तो गुरु सोविस्दर्सिह जो से बहुत पूर्व आदि शुरु मानक देव ते हिन्दुओं तथा मुसलमानां तथा अन्य सम्प्रदाय म्चियों को यह शिक्षा दी थी कि इश्वर निराफार तथा एक हे। उनके इस सत को मानते वाले सिख्ख कहलाये, जिनका कि शुग सेंग- बहादुर (नवम गुरु) तक घार्मिक संप्रदाय के अतिरिक्त राजनीति के रंग मख़् पर कोई स्थान न था । ॥
थे
आप ० -- को गुरु तेग़बहादुर के समय मुग्रक् सम्राद झरिंगज्ेव दिल न्फ श्र ३,
के विंहासन पर श्ासीन था। मुराल साम्राम्य के इतिशस को फलंफित करने बाला एक माऋ यदी ऋच्चिम सप्राद'
इसने प्रजा पर अश्रधिक से अधिफ घत्यात्यर हिन्दुओं को घलात मुसललगान घतावया। फई दिन्दु कौर सिफरय शुरू तेगबद्ादुर की शरण में छादे लिन्दे गुर जी मे पनाद दी! इन्हीं दिनों शुद्द तेराचहादुरआ उयपुर फे राजा जयसिट फ्रे साथ ग्ासाम को जाते समय परम एज्या साता समा फपनी रामंबदों की साला सुतरी को भरने ससुर फपालदास पे पास
धरा ते १ 77 े या घर न [2१8 पड 3 ४० +ः सजा पटना से छाए गाया प:६। दे पइकोा आखामस बहा ध्क पइरसप। सप ध्िति में साधम १७०३ पिययारी न टाटा हघदी दानियार अंतुषाध्याति पल +४३३ चघिझारी सब ट रजत रम्सां सानिया: 9७ पाती डे अत कू >चक का कक“ 5०७०-५७ “ सक्-का-बस, कम 2 सिकजपर डर रे “जो >कयाएन्म्गूहन... >कनाई आर रही, शक (2 भ्राधी रात मा सह्ंया हरा आइल: बा सा हब्दा आया |
[ ४ ]
शुरु गोविन्द्सिद जी ने स्वरचित विचित्र नाटक प्रन्थ में यों लिखा है कि “पूव जन्म में में दुष्द्मन नाम का राजा था ओर अपनी प्रजा को पुत्रवत् समझता हुआ धम्म-एर्वेक राज्य करता - : उद्धावस्था के कारण अपने पुत्र विजयराय को राज्य- भार सेद -“ | देमकछूद नामक पर्वेत पर सण्डन ऋषि से उपदेश लेने के लिए गया ओर वहाँ पद्मासन लगाकर सहाकाल पुरुष के ध्यान में संलग्न हो गया। तपस्या करते अभी छुछ ही समय हुआ था क्लि भगवान् महाकाल पुरुष ने मुझे! अपने शुभ दर्शन से ऋृताथे किया ओर “निजञपुत्र” की पदवी से सुशोभित करते हुए कहा कि मेरे सव अवतार स्वयसेव ईश्वर कहलाये हैं पर तुमने अपने आपको <श्वर का अवतार न कहलवा कर” “ईश्वर का सेवक” प्रसिद्ध करना । इसके उपरान्त शुरु तेग़वहादुर जी के यहाँ मेरा जन्म हुआ । |
गुरु गोविन्द्सिह जी के जन्म के १०--११ मास उपरान्त जब शुरु तेग़बह्यदुर आसाम से पटना वापिस आये तो बहुत से तिक््ख पंजाब, सिन्ध, सुलतान, काबुल तथा कन्धार आदि दर दर के प्रान्ता से गरु गोविन्द्सिह जी के जन्म के उपलच्य में बहुमूल्य तथा तरह-तरह की उपहार लेकर गुरु तेग़बहादुर की सेवा में उपस्थित हुए) चारों ओर आनन्द के शामियाने बजने लगे। जगह-जगह से गुरु जी को बधाई देने के लिये टिड्डी दल की तरहइ उनके शिष्य-गण पुत्रो सब में भाग लेने के लिये उमड़ पड़े। सब ने अपनी अपनी सामथ्य के अनुसार शुरु जी के चरण-कमलों में तन, मन, धन अपेण किया। गुरु जी ने भी पुत्र-जन्म के खुशी में दीन-दुखियों को भाँति-भोँति के
[ 54 ह ] '
७ डे जप प # 7 खरई, ह ६७ ०$%ई कर ] पक्रवानों से प्रसन्न किया और आादाणों. निधरनों तथा कन्याओं ....
को भी जी खोलकर दान दिया। वियवातओं और उठीम बसों की अधिक से श्रधिक सहायता को। शुझ गोबिन्दरसिह के मासा छपालचन्द्र जी ने उपहार लेकर आये हुए शिष्यगणों का यथा- योग्य सम्मान कर बड़े आदर से उन्हें विदा किया। साथ ही यह प्राथना भी की कवि कभी-कसी अवश्य दर्शन दिया कर। ईश्वर की पार लीला हे-शुभ गोबिस्दर्सिद शुक्र पक्ष थी टप्ितीया छे चोंद की भाँति दिन दुगुनी शरीर रात चोगुनी उन्नति फरते हुए अपनी चाल-लीलाओं से माता पिता तथा बन्धु-चान्धश्ों के मन को मोहित करने लगे । परन्तु इनकी याल-लीलाएँ भी घन्य वालो की अपेक्षा छुछ विचित्र ही थीं। वे कभी लड़कों को इकट्ठा छूर हैं दो दलों में विभक कर देते। एक दल के सरदार स्वयं घूस जाते शोर दूसरे दल का सरदार किसी शन्य बालक को बनाने | किसी विशेष वस्तु को लक्ष्य रखकर दोनों दलों मे संप्राम प्रारम्भ हो जावा। प्रत्यक दल एक दूसरे पर विजयी टोने झा पृ परिश्रम करता। फि। इन दोनां दलों में जी दल विजय इस दल के बालकां को 'मपने पस बिठाते शरीर इनडझा यथादिन
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आर दर ० किया पा कक हैं। खिसफा धीर सदस छागे मिडलेसा हप हो हम शापना राधा
फेर इस शत के अडुसार जिसका तोर सब से आगे
निकलता था उसे वह राजा की ज्याधि देते। सब बालकों को उसकी आज्ञा सानने का उपदेश करते। यहाँ तक कि वीरता-पूर्ण कोई भी कार्य करने में उन्हें वड़ा आरन्दं अतीत होता था। आप वाल्गचस्था से ही बड़े निर्भीक थे। कहते हैं छि--एक वार गुरु गोविच्दसिंह अपने समवयस्क बालकों के साथ खेल रहे थे कि अकस्मात् उबर से पटना के कोतवाल का आगमन हुआ। चोब- दार ने खेल में लगे बालकों से कहा कि कोतवाल साहब इधर पधार रहे हैँ इसलिए उन्हें सब कुक कर प्रणाम करें। चोवद्यर के कथन की हँसी उड़ाते हुए आपने साथी चालकों को कहा कि तुम कभी भूल कर भी उसको प्रणाम न करो प्रत्युत उसको चिद्ाओ । गुरु गोविन्दर्सिह की इस प्रकार की चेष्ठाओं को देख कर कोतवाल भोंचक्का-सा रह गया । वालक गोविन्दरतिह इस प्रकार साहस ओर बीरो-चत अलोकिक वाल-लीलाओं से देखने वालों को ऐसे वित्मित कर देता था कि मानो वीरता ओर युद्ध प्रियता ही इनकी जननी है ओर वे उसके एकमात्र औरस पुत्र ६ जो उत्पन्न होते ही अपने वास्तविक रूप का परिचय देने लग पड़े हैं। उस समय कुछ वायु-मण्डल ही ऐसा विचित्र हो चुका था कि गुरु तेगरवहादुर जी के झुपुत्र में वाल्यावस्था से ही वीरो- चित गुणों का होना एक स्वाभाविक वात थी। इसमें कोई आशख़ये की वात नहीं । प्रकृति लिस किसी को सी जिस कारये के उपयुक्त बनाती है उसे उस काये में अवीणता आप्त करने के लिए किसी विशेष शिक्षा की आवश्यकता नहीं पड़ती । वह संकेत सात्र . से ही अपने वास्तिक रूप को पहचानने लग पड़ता हैँ। संसार में प्राय: ऐसा देखा जाता है कि सिंह-शांवक विन्मा किसी अक्नार-
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की शिक्षा प्राप्त किये ही--मदोन्सत हाथी के मस्तक को 'अपने घाहुचल से चक्रनाचूर फर देता दै। साँप का सद्यः प्रसृत बचा किसी भी जीत के आयणों को ज्णमयात्र में ही हर लेता है । विज्ली फे घलंगड़े को चूहाँ का पकड़ना फीन सिखाता है। केवल अपनी माता द्वारा पकड़े जा रहे चूहों को देस् फर ही वष्ट स्वयं भी उन्कें पवढ़ना सीखा जाता है। इसी प्रकार धाज्ञ के बच्चा का चिटियां पर भपटना भी स्वाभाविक ही है। मनुष्य अपल पूवे जन्म के संस्कारों के अनुसार बाल्यावस्था में ही खपने माता पिता के बेश गुण अवशण को सदन में ही प्राप्त कर लेता £। क््योंदि “धथ्रात्मा पे जायते पुत्र” इस श्रति के अनुसार पिता पी आत्मा का पुत्र रूपम॑ परिणत शोना एक स्वासायिक बात है । फिर सच- प्रिय तथा सब-गुगा-पम्पन्न सुर तेराबदादर जी के पृत्र का प्रस्येक् पात में ग्रनुपम तथा अद्वितीय होना एक प्रझति-सिद्ध बाव थी। गुद तेस- बहादुर जी छुछ वष ता पटता रष्ट परन्तु पिर बग पंज्ञाथ मं चले प्राय । गुर गाविदातित फे बाहय-काल के पंच यप पटना । दीन बाद में गुद तम्रबहादुर ही से इस हरशियार' जिले के पन्तगतव आराइप्ुर में इसा लिया था। यट स्थान मे
शक 5 ी जीन पिलासप्रर फाछूर थे गामाश पंच सो
कई ५
लिया था | श्समझ्ा पा नाग सोग्याधालि इ3जू £ कंकों आ५
) ग्राय में पिता में सोषिहतिट को यार सप्पपयसट प्रन््दी:
पी आय से दा थे शापन्टधंतिट का साए सा फपरउस्ट्र पर] २
शक कि ञ भा 2 सु 05८ |? सी 5८ & 5 आक,
पास शब्मुली पहले के दिए सेल दिया। इसी प्रतिमा पी
प्रा $ शी इऋ०क 2 पक +क द्त्प | श्र मद ७ ३४७० 4... न पा (52:2
सीधा भो रसाहिय म॑ एन भ भा 3 रपये ४ स्ल्य । गूर एरा2
फ् हु श्र का क + जो
खाद पमा धमग्य सिपय रसंप्रटाय का घाइिश साप “सात थाड
५ >> क न न
दी काल में पट लि । फिर ापक हारमी पान मे लिये पी 75 तह ०56 उलपक
फाशा पारशाशम्रर पद खपत खाया सजा | फारतसा मे मे पनर।
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बुद्धि अच्छी चली ओर थोड़े ही समय में बड़े योग्य हो गये। इनकी बुद्धि की विलक्षणता ओर स्मरणशक्ति को देखकर शिक्षक लोग बड़े चकित रहते थे। हिन्दी संस्कृत की शिक्षा भी इस बुद्धि मान बालक को एक अनुभवी योग्य परिडत हारा दिलाई . गई । इस प्रकार सभी भाषाओं का ज्ञान इस होनहार बालक को किशो- रावस्था में दी हो गया। जब कुछ दिनों बाद हिन्दी संस्कृत में भी ये पारंगत हो गये तो इन्हें सैनिक-शिक्षा देने के लिए एक प्रसिद्ध राजपूत वीर रख दिया गया था। सैनिक बनाना इनके लिए प्राकृतिक शुण था। थोड़े ही समय में ये इस विद्या में भी इतने निपुण हो गये कि बड़े २ योद्धा तथा सेनापति भी इनके रण- चातुये को देखकर दाँतों तले अँगुली दवा लेते थे। जब इनकी शअवस्थां नी साल की थी तो उन्हीं दिनों लाहीर की संगत के साथ एक हरियश नामक खन्नी गुरु तेशवबद्ादुर के दर्शन करने आया था। उसने गुरु साहब से प्रार्थना की कि में आपके-पुत्र गुरु गोबविन्दर्सिहु के साथ अपनी पुत्री का विवाह करना चाहता हू गुरु जी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली ओर गुरु गोविन्द्सिह का शुभ विवाह १५ ज्ये्ठ संवत् १४३१ विक्रमी को घड़ी घूस धाम से हो गया । इन्हीं दिनों बादशाह औरंगज्ञेव अपने, पिता को कैद कर और सगे भाइयों की जीवन-लीला समाप्त कर मुगल बादशाही का उत्तराधिकारी बना था । उसने हिन्दू धर्म के विरुद्ध खुल्लम-खुल्ला प्रचार करना आरम्भ कर दिया। विशेषतः-काश्मीर में तो उसने तलवार के ज्ोर से गाँवों के. गाँव मुसलमान बना डाले । इस घोर अत्याचार से पीड़ित हो एक' दिन काश्सीर के
ब्राह्मणों ने गुरु तेगबहादुर के निकट आकर प्रार्थना की- कि मुसलमास हमें बहुत दुःख देते' हैं । हमारी वहू-बे।टेयों की माव-
[ ६ ) मयादा मिट्टी में मिल गई है, कृपा करके हमारी रत्ता कोजिए। काश्मीरी पंडितां की घात सुनकर गुरु जी विचार-सागर में गोते खाने लगे, किन्तु उन्होंने छुछ देर सोच फर फहा-जब तक कोई पुण्यात्मा अपना सीस नहीं देगा, मुसलमानों फे शत्या- चार बन्द नहीं हो सकते । उस समय घालक गोविन्दर्सिद्र जो उनके निकट खड़ेथे थे कट से घोले क्रि इस यग में श्राप से बढ़ कर कौन प्रण्यात्मा है। श्राप ही हनकी रचा छीजशिए। तव गुरु तेग़वद्दाद्ुर पुत्र फे मोह से मोहित होकर कहने लगे - बेटा, तुम अभी बे दो, मेरे बाद तुम्दारा पालन-पोषण फोन फरेगा।
अन््की. >०-नक ग़ा
इस पर बह बार बालक मद्ध काचता के झप्र से उत्तर दस क्गा+-+
“जब हुते उदर मोंहि मात फे करे रखबारी जोय । शव तो नो साल के क्यों ने सहाई हो ॥!
घालक की इस निर्भक बागी को सुनकर गुर जी घटत प्रसन्न ए शौर उस्होंने शरणार्यी बराद्म्ग से फा कि तुम ओोरद्वन्ेय से कला भेजो क्रि यदि गशुद तेशावटादुर इस्लाम धम की दोक्षा ले लें तो हम भी इस्लाम पसे को स्वीकार फर लेंगे। शुद जी पी खातानुनार बड़े २ हिन्दुओं ने एक पत्र कारदसर कं मत दिया । पत्र पट कर घादशाह बड़ा प्रसन्न हुआ थीर झाने लगा--
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उनको मुस्तलमान होने को कहा । गुरु जी को प्रत्येक रीति से ग्रसंन्न करने की बादशाह ने बड़ो कोशिश की जिससे कि ये मुसलमान बन जॉँय | पर जब ये किसी प्रकार भी न माने तब उसने पहिले उनके साथियों को बुरी तरह से मरवा डाला। श्रव गुरु जी की बारी थ्राई। बादशाह ने ढिंढोश पिटवा दिया कि सब लोग चाँदनी' चौक में इकट्रें हो जाय | ओरब्रज्िव बनन्दी के वेश में गुरु जी को लेकर वहों पहुंचा ओर झाम जनता के सामने उनका सिर घड़े से अज्ञग कर दिया । यद्यपि उपस्थित जनता में मुसलमान अधिक थे, किन्तु दशकों में जो हिंन्दु थे वे इस प्रकार निरफ्शाध मद्दात्मा का वध देखकर रो पड़े। उस समय आकाश में बोर गजेना हुई ओर बड़ी ज्ञीर से आँवी चलने लगी! सारी दिल्ली में अन्धकार छा गया। भज्जी जाति के भाई जीवन ने फिसी तंरह गुरु जी का सिर उठा लिया और आनंन््दपुर में लांकर शुरु गोंविद्र्सिह को दे दिया। जहाँ पर गुरू जी का सिरं काटा गया था यहाँ पर उनकी घुख्य स्थति में एक बड़ा सुन्दर गुरुद्वारा बना छुआ है जिसकां नाम सीसगज्ञ हैँ | पिता के -आसग्वलिदान के * -परान्द्र गुरुगोविन्द्सिह जी गुरुगदी पर बेठे | |
' इंनकी मुसलमानों से अब कट्टर शत्रुता होगई । कोई भी अकेले कार्य नहीं कर सकता, इसलिएं गुरुगोविन्दससिद ने सिकंखों को एकत्र करता आरम्भ किया। ओरबजेवी अंत्याचारों से तंग हुए हिन्दु सिक््ख अनायास इनके शिष्य बनने लगे | अन्य गुरुओं की . अपेक्षा गुरुगोविन्दर्सिह जी की शिष्य-मण्डली वहुत अधिक विस्तृत हो गई। अपने पृवेजों की भाँति इनका कार्य केवल उपदेश देना- दी नहीं रहा अपितु एक ओर सिक्ख-धर्म का उपदेश करते तो दूसरी
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ओर साथ-साथ सैनिक शिक्षा भी देते। दृरदर्शो गुरु गोविन्द्रसिंद जी इस बात को खन्न समसझते थे कि ओरंगज्ञेव जैसे मुग़ल सम्राद से बदला लेना कोई आखान काम नहीं । इसलिए उम्ेनि 'सपने शिष्यों को वलबराए, बच्दक, घुड़सचारी, आदि सारी बुद्ध-विश्ाएँ सिखा दीं। शिष्यों को एकत्र करके श्राक्ता देते कि जो युद्ध- सम्बन्धी कोई सेवा करेगा में उससे सरदिव प्रसन्न रहेगा। शुरु ज्ञी हिन्दु-जाति की दुर्बलता और विनाश के मूल कारण फो अच्छी तरा! जानते थे। दिन्दु-समाज ऊँच-नीच जातिके भद-भाव के फारस पर- स्पर विरोध करत हुआ श्रथ:पतन की श्रोर जा रहा है। संगठन फी अपेक्षा वैसनस्य फी सात्रा बढ़ती जारही है! इसलिर उसमि प्रधान रूप से ज्ञाति के भेद-भाव को मिटाने का प्रयल्ष किया । एक दिन उन्दनि आनन्द्रपुर में एक बड़े सहभोत्ष का ग्राभोजन क्रिया। चारों वर्णों के लोगों को निमन्त्रण दिया। शस समय फूट आहार मे आतिप किया परस्तु सुर गोविन्दर्सि! में उन सब का निरा झरशा
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उनका साथ क्यों नहीं देते। सब को एक दृष्टि से देखना और धर्म- उपदेश के साथ साथ स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाना इस शअनोखे व्यवहार से गुरु जी के सकड़ों ही सैनिक शिष्य बन गये | ऊँच जाति की अपेज्ञा पद-दलित शूद्र हिन्दु-जाति की रक्षा करने में अधिक सहायक सिद्ध हुए। गुरु जी अपने सैनिकों के सामने भीम, अजुन, श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि की कथाएँ सुनाकर ओजस्वनी वकक्तदता में उपदेश दे।। दी चि,शिवि, हरिश्वन्द्र और भीष्मपितामह आदि के हृष्टान्त देकर उनके मन को ऐसे मोह लेते थे कि वे गुरुजी पर तन, मत, धन तथा सबवेस्व न्योछावर करने की हर समय तय्यार रहते । मानव की प्रकृति कुछ ऐसी है कि वह दूसरे के उत्कपे को देखकर स्वभावत: जलने लगता है । हिन्दु-समाज में तो यह चात अधिक- तर पाई जांती है। गुरु गोविन्द्सिह अपने ऐश आराम के लिए समाज का संगठन नहीं कर रहे थे वल्कि उनका असली उद्देश्य था कि दिंदु-सिक्खों को सरदार वना कर विरोधियों से संघ करूँ इसीलिए वे अब बादशाही ठाट-बाट से रहने लगे। गुरु जी की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर आननन््दपुर के पड़ोसी पहाड़ी राजाओं में देय की अपम्रि भड़क उठी | वे लोग चाहते थे कि कोई बहाना मिले जिससे गुरु जी से छेड़-छाड़ की जाय। एक दिन बिल्लासपु! कहलूर के राजा ने गुरु गोविन्द्सिह से कहला भेजा कि आप के पास जो आशलास का हाथी है वह हमें दे दो ।- उत्तर में गुरु जी ने उसे देने से इन्कार कर दिया। अभिमानों राज़ा ने दस हज़ार सेना सदित गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। गुरु जी की सेना इदनी अधिक तो न थी वे केवल दो हज़ार सेनिकों को साथ ले मंगानी नामक स्थान पर संप्राम करने के लिये चल दिये। यह प्रथम युद्ध था, इसलिए बड़ी घमासान लड़ाई हुई । गुरु जी ने
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अपनी ओजस्विनी वाणी द्वारा सिक्खों में ऐसी वीरता भर दी थी कि जिन लोगों ने कभी तलवार और वन्दूक तक न उठाई थी वे भी ऐसी वीरता से लड़े कि दुश्मनों को रणज्षेत्र छोड़ कर भगना पड़! ।इस लड़ाई में सिक्खों के हाथ वहुत सी युद्ध-सामग्री आई । श्र को बड़ी वीरता से हरा करके वे सब पाण्डवों के किले में | चले गये | शुरु गोबिन्दर्सिह की प्रथम लड़ाई में प्रथम विजय हुई। इस विजय से गरु जी की धाक जम गई। जो हिन्दु-जाति बहुत देर से दबी बैठी थी उसने अब गुरु जी के नेठृत्व में अपना सिर उठाया । बहुत देर से सोये हुए लोगों की नींद दटी और वे अपने अधिकार की प्राप्ति के लिए उतावले हो उठे | सारे भारतवपे में एक नह जागृति उत्पन्न हो गई । बच्चा-वच्चा अपनी खोई हुई स्वा- घीनता प्राप्त करने के लिए कटिवद्ध हो गया। ग्ररु जी के प्रताप के सामने वादशाही शक्ति फीकी पड़ने लगी। बैशाखी के उत्सव पर कन्धार तथा चलख बलखारा के शिप्यों ने दुचीचन्द के हाथ एक ऊती शामियाना भेजा जिसकी समता शाही दरवार में कोई भी नहीं कर सकते था। सम्वबत्् १७३३ विक्रमी को रत्नराय जो गुरु तेगबदादुर जो के शिष्य का पुत्र था! दिवाली के दिन शुरू जी ' के दशकों के लिए आनन्दपुर आया । उसने बहुमूल्य कई प्रकार के उपड्ारों के अतिरिक्त एक पश्चकला जिसमें बरछी, बन्दृक, गुरज, खोंखरी ओर कुंलडाड़ा था” एक सनन््दल की चोकी, पाँच चहुमृल्य घोड़े और एक बहुत ही सुन्दर हाथी जिसके मस्तक पर सफेद फूल का चिह् तथा मस्तक से लेकर पूंछ तक एक सफेद्र लकीर थी, ग्ररु जी की भेंट किया | गुरु जी इन उपद्यार्रो को लेकर बहुत ही प्रसन्न हुए ।
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अब गुरु गोबिन्द्सिद जी की इच्छा हुई कि हिन्दुओं को संगठित किया जाद्य और एक स्वतन्त्र राष्ट्र का निर्माण किया: जाय। उन्होंने पर्वेतीय-राजाओं को मिमन्त्रण देकर बुलाया और फहला भेजा कि आओ इस सब हिन्दु एक होकर चिरोधी का सासना कर। आपसी भेद-भाव, तथा ऊँच-नीच भाव को त्याग कर एक सूत्र में वन््ध जाने से ही हम सब का कल्याण है। शुरू गोविन्द- घिंह के सिक्स दल में सभी जाति के, लोग थे। इसलिए उच्चः वंशीय राजाओं से सिक्खों के साथ मिल जाना अपना अपमान समझा प्रव्युत्तर में उन्होंने था कहा कि हस उच्च वण के राजपूत आपके सम्प्रदाय के नीच सिक्खों के साथ कैसे खाव-पान कर सकते हैं | इसरी घात यह कि आपके इने-गिने सिक्ख अठुल शक्ति - मुगल सम्र ८ का क्या विगाड़ सकते हैं। -
शुरु जी ने जब उनकी यह वात सुनी तो वे उनकी सूखता और अररदर्शिता पर बहुत हो दुखी हुए । और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि---
राजन फे संग में रंक्र लड़ाऊँ, चिड़िया से में वाज्ञ तुड़ाऊ सदा लाख संग, एक लड़ाऊँ, तभी तो गोविन्द नाम कहाऊ।
इस प्रतिज्ञा के उपरान्त उन्होंने भेड़ों को शेर, कायरों को बलवान, सोते हुओं का जागृत कर दिया। इन्हीं दिनों से वेशाखी का पर्व आया | आरत भर में यह पवित्र त्योहार मनाया जाता है । इस दिन भारत के कई प्रान्तों में मेला लगता है । इसलिए गुरुजी ने अपने सिकखों के नाम आदेश सेजा कि बशाखी के पवे पर सभी लोग आननदपुर में एकन्न हों । आज्ञा की देश थी हज़ारों सिक््ख्र सेवा में उपस्थित हो गये । एक विर:४ सभा फी गई हजारों नर नारियों के सम्मुख गुरुजी ने ओजस्जो भाषण दिया।
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भाषण देते संमय गुरुजी का चेहरा सूय की भाँति चमक रहा था | वे अपने शिष्यों की परीक्षा लेना चाहते थे । उन्होंने कहा वीरो ! आज शक्ति देवी, असि चण्डी बलिदान चाहती है, रक्त पीना चाइती है। आप सब में से कोई ऐसे पांच बीर हैं जो अपने सीसों को सहषे असि चरडी के चरण कमलों में भेंट कर सके । गुरुजी के इस कथन से शिष्य-संडल्ली में अत्यन्त सन्नाटा छा गया | जीवन का प्रश्न इस संसार में बढ़े महत्व रखता है । कीड़ी से लेकर छु्लर तक बालक से लेकर बूढ़े तक सभो प्राणी जोना ही चाहते हैं. मरना कोई नहीं | किसी को आशा नहीं थी कि गुरुजी इस प्रकार की मांग करेंगे | पहिली मांग में ही चारों ओर सन्नाटा छा गया था। गुरुजी ने दुवारा गज कर कहा--'क्या कोई ऐसा वीर सिक््ख नहीं जो अपना सस्तक सेंट कर सके ।?
इस वार एक दयाराम नामक खबन्नी हाथ जोड़ कर सामने आझाया और बोला--“पूज्य गुरुदेव मेरा सीस आपके चरणों में सहपे उपस्थित है” आपकी जैसी इच्छा हो उसका उपयोग करें। सभा-मण्डप के पास ही एक खेमा लगा हुआ था गुरुजी दयाराम का हाथ पकड़ कर झट उसे खेसे के भीतर ले गये । थोढ़ी देर में खेसे के भीतर से खूत की धारा ब३ निकली दशकों के छदय कोंप उठे । इतने में गुरुजी रक्त रज्जित कृपाण को हाथ में ले कर सभा-मंडप में आये और वोले-मुर्मे एक ऐसे वीर की आवश्कता है जो दयाराम की भाँति अपना सीस अपेण कर सके । इस बार दिल्ली निवासी घसंदास नामक एक जाट उठ खड़ा हुआ । उसको भी गुरुजी खेमे के भीतर ले गये ओर उसी भांति खून की थारा वहाने के पश्चात् रुधिर से रंगी हुई तलवार सहिन बाहिर आये ।
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तीसरी वार मुहकमचन्द चौथी वार साहिबराम ओर पॉचवी वार हिम्मत कहार बलिदान होने को उठे | गुरुजी ने यह एक परीक्षा. ली थी, वास्तव में उनका वध नहीं किया । थोड़ी देर वाद गुरु गोविन्दर्सिह उन पाँचों के साथ बाहर आये ओर सबको सम्बोधन फर वोले मेरे लिये ये पॉचों सिक्ख ग्राणों से भी अधिक प्यारे हैं। इसके वाद उन्होंने एक पात्र में उन पांचों को अस्त छकाया और ध्वयं भी छक्ना । इस अनोखे उपाय से उन्होंने ऊँच नीच जाति फा भेद-भाव भुलाकर सबको एकता फा पाठ पढ़ाया ।
गुरुजी के इस चरित्र को देख कर उपस्थित नर-तारी हे से गद-गर हो उठे | जयकारों की गूँज़ से सारा आनन्दपुर मुखरित हो उठा | तभीसे सिक्खोंमें यह प्रथा चली आई है कि जब तक कोई ध्यक्ति अमृय छकने! का संस्कार न कराये पका सिक्ख नदीं घन सकता । उसी दिन से गुरुजी ने अपने शिष्यों को आज्नाः दे दी कि वे अपने नाम के अन्त में “सिह” लगाया करें, और केश, कंघी, कड़ा, कच्छा, तथा कृपाण ये पाँच कक्के हमेशा अपने पास रखो । सिक्ख जाति आज सी उसी नियम का पालन करती चली आ रही है ।
नो गुरुओं तक प्रत्येक व्यक्ति केवल गुरुका चरण धोकर पी लेने से सिक्ल वनजाता था। परन्तु गुरुगोविन्दर्सिह जी की यह इच्छा थी कि प्रत्ये> सिक्ख सच्चा ज्षत्री हो । इसलिए उन्होंने एक नई रीति निक्राली | वे चीनी का शर्बेत बनवा कर उसमें अपनी वलवारः डुबो कर यही शिक्षा देते कि अत्वेक्त सिक्स तलवार से शत्रु ओं का वध करे । बस इस नियम से वीर सिक्खों की जत्था- बन्दी दिन प्रतिदिन बढ़ती गई ओर इस जत्थेवन्दी के साथ गुरुजी आनन्दपुर में सुख से रहने लगे । | ह
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शुरुजी की इस उन्नति को देखकर औरंगजेब के हदय में ईर्पा के सांप लोटने लगे । उसने कई वार गुरु के जत्थों को-नाश करने के लिए अपनी चतुरंगिणी सेना भेजी । परन्तु सिक्खों की सेना ने हर वार उसके दोंत घुरी तरह खट्टे किये । एक दिन ओरंगज्ेब ने एक बड़ी भारी सेना सेज कर आनन्द पुर के च.रों ओर घेरा डाल दिया। सिक्खों ने कई महीनों तक उसका सामना किया परन्तु खाद्य-सामग्री समाप्त हो जाने से कई सिख गुरुजी को छोड़ कर भाग गये ! तब गुरुजी ने अपनी माता के साथ अपने दो : छोटे २ बच्चों को बाहर भेज दिया और आप इ ग़ल-सेना के साथ लड़ते बहुत दूर चमकोर जा निकले। इस सब्ध्य गुरुजी ने अपने बढ़े लड़के अजीतसिंह को लड़ाई में भेजा | वीर बालक ने अपू्व रण-कोशल दिखलाया । अन्त सें सेकड़ों वीरों के सार कर स्वयं भी उसले वीर-गति प्राप्त की । श्रव उससे छोटे भाई जुमारघिंह् की बारी आई । इस रण-चांकुरे को शखरास्रों से सुसज्जित किया गया | ऐसी किंवदन्ती है कि बालक जुममारसिंह ने रण में जाने से पहिले पीने के लिये पानी मांगा, किन्तु गुरुजी ने कहा--बेटा ! अब रणत्षेत्र में जाकर ही--शप्रु के ताज्षे खून से अपनी प्यास घुकाओ वीर घालक पिता की आज्ञा पाकर प्यासा हो- रण में लड़ने चला गया और अपनी तलवार से शत्रु के सहस्त वीरों का सर्वताश करता हुआ अन्त में स्वयं भी अमर गतिको प्राप्त हुआ ।
प्रतापी एवं धीर-वीर गुरु गोधिच्दर्सिह जी अपने नीनिहाल पुत्रों की मृत्यु सुनकर तनिक भी. विचलित न हुए। दुश्मनों फा जमघट चारों ओर से उनके पीछे पड़ा हुआ था, इसलिए गुरुजी ने
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सोचा कि अब चमकोर ठरहना सर्वथा हानिवर है | अत्तः थे छपने थोड़े से साथियों सहित किसी तरह से निकल कर वचहलोलपुर में एक मुमलमान रायकल्ला फे पास चलते सुरुजी का मुसले- भानों के साथ कोई जातीय बर नहीं था । वे तो उन लोगों से घुणा फरते थे जो मुग़ल-शासक हिन्दू प्रजा फो बुरी तरह सत्ताया करते तथा उन्हें सेकड़ों याततायें दिया करते थे। उनका एकमात्र ध्येय यह था कि हिन्दु जाति के स्वत्वों की रक्षा हो। नहीं तो इन पर हिन्द ' ज्ञावि की इतनो श्रद्धा क्योंकर होती । दो पुत्रों की मृत्यु हो जाने पर भी गुरुजी को इतना संतोप था कि दो छोटे पुत्र तो किसी तरह सुरक्षित होंगे । गंगू रसोइया इनके साथ था; किन्तु कौच जानता है कि मानव का सन कब बदल जाय । गंगू के सन सें पाप से प्रवेश किया, क्योंकि छोटे घच्चों के साथ जो बूढ़ी दादी थी उसके पास बहुत सारा धन था अत्त: उसले धनको अपने आप छीनकर उन सब को मोरण्डा के शासक जानीखोँ के हाथ पकड़ा दिया । परन्तु जानीखाँ ने गंगू से वह धन छोन लिया और उसको विश्वासघात के फल्न-स्वरूप मृत्यु दृष्ड दिया। जानीखाँ ने उन तीनों बन्दियों को सरहिन्द के नवाव के सुपुदं कर दिया। नवाब -से उत्तको इस्लाम धर्म ग्रहण करने को कहा । पर जब वे न माने तो उस दुष्ट ने जीते जी इन दोज़ों बालकों को दीवार सें चुनवा दिया । यूढ़ी दादी इस दारुण दुःख को देखकर मूच्छित हो गई और इसी शोक से उसके प्रांण-पंखेरू भी उड़ गये। सालेरकोटला निवासी शेरमुहम्मद खो ने सरहिन्द के नंबाब को बहुत समकाया कि हंसारा विरोध शुरू गोबिन्द्सिह से है न कि इन बंचों से | इस लिए इनके प्राण न-लीजिए किन्तु नवाब-ने एक न सानी |
गा ] है।
[ १६ ]
गुरु गोविन्द््सिह ने जब अपने दोनों बच्चों का आंत्मे बलिदान सुनातो उन्दोंने अपने आपको बड़ा धन्य मानवा। उस समय - की गुरुजी की वाणी कितनी आदशमयी हँ--
धम हेत सुत जिनके लागे, मातु पिता जानो बढ़ भागे ।
गुरुजी छुछ दिन-तक शायक़ल्ला के यहां रह कर फिर दीना _ गांव में जा पहुँचे । वहां उन्होंने एक वड़ा भारी सम्मेलन बुलाया, : इनकी दोनों ध्-पत्नियां भी आई | इन वीर माताओं को अभी तक यह सालूम न था कि हमारी सनन््तान अपना उज्ज्वल नाम संसार में सदा के लिए अमर कर गई है। सती सुन्दरी ने पूछा कि-प्राणनाथ ! भेरे चारों लाल कहाँ चले गये । माता के करुणा-जनक रुदन से सारी -मण्डली में सन्ताटा छा गया । गुरुजी उसे धीरज बन्धाते हुए कहने लगे--सिक््ख जाति की रक्षा के लिये मैंने चारों पुत्रों को स्योछवार कर दिया । महाराणा प्रताप ने वर्षों तक् जंगलों की खाक छाती वे कभी अधीर न हुए पर जिस दिन उनके बर्चे भूख से तड़प रहे थे और दर्देव ने कन्या के हाथ से घास की रोटी भी विलाव से छिनवा दी तो छुट्ठुम्ब के इन छोटे व्चा की, ममता के वशीभूत हो कर उन्हाने अकवर को सन्धिपत्र लिख भेजा था। यही दशा आज गुरुजी की थी। उन्होंने भी एक सन्धि पत्न ओरंगज्ेव के नाम पर “ज्ञफर नासा” के नाम से भेजा । सम्राट पर इस पत्र का अत्यधिक अभाव पड़ा। आनन्दपुर की लड़ाई में जो सिक्ख गुरुजी का साथ छोड़ भाग आये थे वे अब फिर गुरुजी के साथ आने को तय्यार हुए | अस्तु गुरुजी ने फ़िर सिक्षखों को एकत्र कर यूही मुणलों पर चढ़ाई करने को इच्छा ही फी परन्तु इतने में सरहिन्द के नवाव की सेना पहले ही झ्राक्रमण
[ २० |]
के लिए वहाँ आ पहुँची | आनन्दएुर से भागे हुए सिक््खों ने यहां पर बड़ी वीरता दिखाई ओर मुगल सेना के साथ लड़ते २ उन्हेंनि अपने प्राण दे दिये। सिक्खों का जब तक एक भी बच्चा शेप रहा तव तक वे जी जान से लड़ते रहे | ओरंगज्ेव सिक््खों को चिड़िया ओर मुसलमानों को वाज्ञ कहां करता था। इस पर शुरु जी ने वह प्रण किया था। कि--
जब चिड़ियों से वाज्ञ चुनाऊँ। तब गुरु गोविन्द्सिह कहाऊ॥
अपने प्रण के अजुसार गुरु गोविन्दर्सिह का मुग़लों से। निरन्तर संघर्ष रहा किन्तु उनको कोई आशातीत सफलता न मिली | हाँ सिक््ख जाति में वे वीरता का जीवन-संचार अवश्य कर गये। सैकड़ों वर्षों से मुग़लों के अत्याचार सहते-सहते हिन्दु जाति हतोत्साह हो चुकी थी। गुरु जी ने उनको नवीन जीवनदान देकर अपना नाम अमर कर लिया । छुछ दिनों बाद अत्याचारी ओरंगज्ञेव की मन््यु हो गई ओर उसका उत्तराधिकारी बहादुर- शाह बना। इतिहासकारों का कथन है: कि वहादुरशाह को राजसिंहासन देने का श्रेय भी गुरु जी को ही हैं, क्योंकि औरंगजेब के आज़मशाह, कामंबर्श और वहादुर्शाह तीन बेटे थे । आज्षमशाह ने कामवर्श को मार कर . स्वयं राजसुक्ु्ट पहन लिया था। बहादुरशाह ने गुरु गोविन्द्र्सिह की सहायता से आज़मशाह् को मार डालां। अब एक मात्र 'मुऱल सम्राट बहादुरशाद ने शासन की वागडोर संभाली | गुरु जी ने देखा कि पञ्ञाब की सिकख जाति उनके कहने पर उतना नहीं चल : रही जितनी कि उनकी इच्छा है। इसलिए वे देश-भ्रमण के बहाने
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दक्षिण की ओर चल दिये। वहां उनकी बेरागी माधोदास से भेंट बुई । इस ग्रान्त में वेरागी माधोदास बड़ी ख्याति प्राप्त कर चुका थो। वास्तव में यह बेरागी पहिले पतञ्ञाव प्रान्व का लक्ष्मण- देव नाम का बड़ा वीर क्षत्री था। एक दिन शिकार खेलते खेलते इसने गर्भवती हरिणी को मार डाला था और उसी दारुण दृश्य से इसकी भावना बेराग्य की ओर बदल गई थी। जैसे ये से राजपूत थे वैसे दी--सच्चे बेरागी भी। इनको अष्टसिद्धि प्राप्त हो चुकी थीं। गुरु जी ने वैरागी से पञ्ञाव की दुरदशां का वरणणन किया, साथ ही अपने पुत्रों के वलिदान का भी । बैरागी के हृदय में मातृ-भूमि का प्रेम उमड़ आया । उसने गुरु जो की श्राज्ञा पाकर पञ्ञाबव की ओर प्रस्थान किया ओर यहाँ आ्राकर मुसल- मानों से उनके अत्याचारों का श्रच्छी तरह बदला लिया । गुरु जी के बच्चों को जिन्होंने दिवार में चुनवा कर मरवाया था उन सब
को एक २ करके वीर बैरागी ने सार डाला। सिक््सखों का राज्य स्थापित किया। किन्तु अदूरदर्शी सिक्खों की मूखंता से वीर वैरागी मुगल सम्राट फरु खसीयर छारा बहुत घुरी तरह से मरवा डाला गया |
उधर बैरागी को पञ्ञाव का उद्धार करने के लिए भेज कर गुरु गोबिन्द्सिद जी गोदावरी के किनारे रहने लगे। बहादुर- शाह ने एक पठान को सिखाकर भेजा था कि अ्रवसर मिलने पर शुरू गोचपिन्द्सिह की हत्या कर डाले | एक दिन शुरु जी रात को निश्चिन्त सोये हुए थे कि उस दुष्ट पठान ने उनके पेट में छुरा घोंप दिया। शुरु जी ने भी उठ कर तलवार से ऐसा प्रद्यार किया कि बह वहीं पर धराशायी हो गया । घाव सहरा हो गया था किन्तु
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इश्वर की कृपा से प्राण नहीं निकले । छुछ समय बाद घाव भर गया। परन्तु एक दिन धनुष पर चिल्ला चढ़ाते हुए घाव के वंध फिर से खुल पड़े ओर उन्हें मूछो आ गई । होश आने पर उन्होंने अपने प्रिय शिष्यों को बुला उन्हें देश, जाति तथा घर्म की रक्षा का उपाय बताकर कार्तिक शुदी पंचमी संवत् १७६४ में इस असार संसार से नश्वर शरीर को त्याग दिया। ह
यद्यपि गुरु जी का शरीर इस संजार में इस समय विद्यमान नहीं है फिर भी सदियाँ तक उनकी अमर कीर्ति हिन्द एवं सिक्ख जाति का गौरव बढ़ाती रहेगी। वे केवल योद्धा, धमे-प्रवरतक तथा समाज-सुधारक हो नहीं थे वरन् अच्छे कंवि सांहित्यिक ओर व्याख्याता भी थे । हिन्दी-साहित्य के कवियों में आपकी रचना चण्डी चरित्र, अकाल स्तुति, विचित्र नाटक आदि पुस्तक बड़ी उत्कृष्ट कोटि की मानी जाती है ।
सिक््ख जाति इनको अपनाअन्तिम शुरु सानती है क्योंकि इन्हों ने अन्तिम समय यह वात स्पष्ट कर दी थी कि अब से अपना गुरु. प्रन्थ सादव को ही मानें। किसी को शुरु मानने की आवश्यकता नहीं। भक्ति भावना में पगो सिंक्ख जाति अब गुरु प्रन्थसाहव को ही सर्वोत्कष्ठ अपना धमम ग्रन्थ मानती है |
धन्य हैँ. गुरु गोविन्दर्सिह जिन्होंने अपनी जाति के लिए अपना सारा जीवन, तन, सन, धन सारा परिवार तथा- अपते नोनिहाल वालकों को भी धर्म की बेदी पर बलिदान -कर दिया । वंड़े दुर्भाग्य की वात है. .कि हिन्दु जाति की रक्षा के: लिये बनी हुई सिक्ख जाति आज्ञ हिन्दुओं से अपने आपको पएथक् मान रही है। ह
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. शुरु गोविन्द्सिह का सच्चा आदर अब उन्होंने भुल्ञा दिया है । फुछ भी हो सिक््ख या हिन्दु सभी गुरु जी के तेजोबिल पराक्रम के आगे. श्रद्धा से मस्तक ऊ्ुका लेते हैं। '
हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि गुरु तेगवहादुर के घेलिदान का ही यह फल है कि उनके उपरान्त उनके सुपृत्र गुरु गोबिन्दस्सिह ने यह प्रतिज्ञा कर रखो थी कि अपने पिता का बदला चुकाने के लिये, मुगगल बादशाहदी से टक्कर लेने के लिये अपने अनुय्रायियों को सदा प्रोत्साहित करता रहूंगा और अपनी जाति में से ऊँच नीच भाव दूर कर सबको समभाव से उन्नत होने का मौका दूंगा.। ताकि मुग़लों द्वारा पद दलित हिन्दू जाति का पुनरुत्थान हो । इन जच्च विचारों के कारण वेशाखी के उत्सव पर उन्होंने अपने भक्तों सेइस वात की मांग की, कि मुझे जानि के उत्थान के लिये ५ मनुष्यों के मस्तकों की आवश्यकता है। और इसके बाद जो छुछ हुआ उसका वर्णोन हम पहिले कर आये हैँ । यद्यपि गुरु जी के कहने पर वाद में सैकड़ों सिक्ख बलिदान होने के लिये तय्यार हो गये पर इनमें से जिन पांच वीरों ने सबसे पहिले अपने आप को ससर्पित किया था वे शुद्ध जाति के थे। उनका विशेष उत्साह देख कर गुरु ने अपने हाथों से उन्हें प्रसाद खिलाया और स्वयं भी उन पाँचों के हाथों से भोजन किया। उस दिन से सिक्ख जाति की नींच एक नवीत ढंग पर रखो गई। उस समय गुरु गोबिन्दर्सिह् ने उपस्थित मण्डली से कहा कि- मेरे प्यारे सेबकों ? जाति पाँति के भेद-भाव को छोड़ 'फर धर्म की रक्षा के लिए मेरे साथ मिल कर हझावतायी मुसलमानों का सुकाबिला करो में गोहत्या करने वाले मुंसल-
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मानां से लड़कर मुस्लिम साम्नाज्य को धूल में मिलाना चाहता हैं। अरब ओर ईरान से आये हुए, धर्म-नाशक विदेशी राक्षसों को भगाकर इस पवित्र भूमि भारतवर्ष को प्राचीन रूप में देखना चाहता हूँ। गुरु गोविन्द ने सिक्खों में आमूलत: परिच्रतेन कर दिया, जहाँ उनको पाँच ककार ( केश, कन्धा, कब्छ; कृपाण ओर कड़ा धारण करने को कहा वहाँ सव सिक्खों के नामों के अन्त में (सिंह? शब्द जोड़ कर उनको सच्चा शेर वना दिया | इन्हीं सिक्ख वीरों को प्रोत्साहित करते हुए शुरु जी ने कहा था। कि--
अगम शूर बीरा उठहिं सिंह योधा,
पकड़ तुरकगन के करे वे निरोधा। अखिल हिन्द खालसा पंथ गाजें,
जगे धमम हिन्दू सकल भंड. भाजे॥ न छाडहु कहूँ दुष्ट असुरत निशानी
चले सब जगत में घममं की निशानी ।॥
इन शब्दों से स्पष्ट प्रतीत होता है. कि गुरु, गोविन्दर्सिह की
न्त्व से कितनी ममता थी | आज दुर्भाग्य से सिक्ख लोग अपने आपको हिन्द कहने में शर्माते हैं। सिक्ख जाति हिन्दु जाति से भिन्न नहीं है। फिर भी जो भेद-भाव मानते हैं. इसमें हस उनकी अदूरदशिता ही कहेंगे )
मुस्लिम सत्ता का अन्त करना कोई साधारण कार्य न था उसके लिए वीर-बाँकुरों के अतिरिक्त धन की अधिक आवश्य- कता थी। शुरू गोविन्दर्विह ने पतञ्ञाब प्रान्त के पहाड़ी. राजाओं से धन की सहायता माँगी, साथ ही उन सब को एक सूत्र सें संगठित होने का भी उपदेश दिया। धन की सहायता देना तो
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दूर रहा उन राजाओं ने मुस्लिम सत्ता के कर्णघारों से थौर भी ' अधिक गठजोड़ कर लिया ओर गुरु गोविन्द से लड़ने को तेयार हो गये। उन्होंने गुरुजी का पवित्र उद्देश्य नहीं सममा, बल्कि उन्होंने यह सोचा कि गुरु भी राजा वनना चाहता है। यहि चह राजा वन गया तो हमारा राज्य छीन लेगा ।
! इस तरह के संकुचित विचार रखने वाले राजाओं ने ओरंगज्ञेब से मिलकर हिन्दू जाति का ही नाश किया तथा हिन्दू धर्म के रक्षक गुरु गोविन्द के प्रयत्नों फो निष्फल बनाने में फोई कसर -उठा न रखी । यदि उस समय वे लोग इस वीर सेनानी का साथ देते तो इसमें तनिकभी सन्देह नहीं कि मुसलमानों का साम्राज्य स्वेदा के लिये भारत से उठ जाता । एक शओर दक्षिण से महारा्र केसरी शिवाजी ओरंगज़ेवी सिंहासन पर घुन फी तरह लगे थे तो इधर उत्तर पश्चिम से गुरु गोविन्दर्सिद घीर सिक्खों की सेना को बढ़ाते जा रद्दे थे | जेसे उत्तर पश्चिम के हिन्द राजा हिन्द जाति के रक्षक की सहायता न कर ओरंगज्ञेत्र की सहायता कर रहे थे वैसे ही दक्षिण में भो बहुत से हिन्दू राजा औरंगजेब की ओर से शिवाजी के साथ लड़ रहे थे । इसलिए निर्विवाद यह मानता ही पढ़ेगा कि हिन्दू जाति की दरदशा घर के फूट के फारण ही हुई ।
गरु गोचिन्द्सिह ने स्वयं भी बड़ी कष्ठ सदन किये और अपने परिवार को भी मुसीवतों के केलने के लिए कटिचद्ध किया उस वीर आत्मा ने घने के नाम पर अपने. चार नोनिद्याल बालकों को वलिदान कर दिया। इससे गररु गोविन्द जी का कितना त्याग कितना उच्च आदर्श और कितनी ऊँची भावना प्रकट दाती है ।
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चमकोरं के ढुगे को जब चारों ओर से मुसलमानों ने घेर लिया तब गुरुजी ने अपने सबसे बड़े पुत्र अजीतसिंह की ओर संकेत किया | वह वीर बालक जिसकी श्रवस्था श्भी १४ वर्ष के ही लगभग थी--कृपांण हाथ में लेकर शह्-सेना पर दूट पड़ा ओर तव तक शब्रुओं का संहार करता रहा -जब तक कि उसने वीर-गति प्राप्त न कर ली |
गुरु गोविन्द अन्य पुरुषों की भाँति पत्र-मोह में फँसने वाले व्यक्ति न थे । अपने पास अन्य वीरों के होते हुए भी उन्होंने 'यही उचित सममका कि अपने पुत्र को युद्ध-क्षेत्र में भेजें | इससे शरुजी यह दिखाना चाहते थे कि जाति की रक्षा के लिए मैं पत्रों का बलिदांन भी कर सकता हूँ । पिता के लिए पत्र से बढ़कर कोई प्यारी वस्तु नहीं होती । जो व्यक्ति अपनी जाति और धर्म के लिए अपने पुत्र तक का त्याग कर सकता हैं उसकी जातीय- भाव॑ना कितनी ऊँची होगी ? इसको सभी लोग समम्त सकते हैं ।
कुछ समय तक बालक अजीतर्सिह लड़ता रहा किन्तु शत्रु की अतुल सेना का सामना वह वोर अकेला कैसे कर सकता था। लड़ते २ वह वीर गति को प्राप्त हो गया | अपने बड़े भाई दी बोर- गति को सुनकर गुरुजी का छोटा बेटा भी उनके संकेत पर युद्ध- क्षेत्र में आ डटा । इसकी अबस्थ. उस समय केवल ११ बंप की ही थी। साधारण मनुष्य भी इस.बात को समझ सकंता है कि 2९१ बर्ष का बालक बड़े २ सिपाहियों को कैंसे हरा सकता है। फिर भी ग़ररु गोबिन्दजी नें उसे युद्ध करने के लिए प्रोत्साहित किया | अंपनी शक्ति. से भी अधिक पंराक्रम इस बालक ने , दिखलाया । जब लड़ते२ थक्र गया और उसे प्यासने अधिक पीड़ित
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किया तो पानी पीने के लिये हुगे में वापिस्त लीट आया। गरु गोविंन्द्सिह उस समय दढुसगे की प्राचीर पर चढ़कर देख रहे थे, नि जुकारसिंह से पूछ-वेटा. ! युद्धक्षेत्र से बिना व्िजय प्राप्त किये क्यों चला आया । प्यासे बालक ने कहा पिताजी ? थोड़ा जल पिलाइये, गुरु महाराज ने कहा--बेटा में जल नहीं पिलाऊँगा । जाकर यवनों से युद्ध कर, तेरा बड़ा भाई स्व में तेरी प्रतीक्षा कर रहा है वही तुमे जल पिलायेगा । वीर बालक पिता की आज्ञा को शिरोधाये कर प्यासा ही फिर युद्ध-क्षेत्र में वापिस लोट गया । लड़ते २ सैंकड़ों ही शत्रुओं को अपनी तलंबार का प्रास बनाता हुआ अन्त में श्रमर गति को प्राप्त हुआ | चमकोर की लड़ाई में मुरुजी ने जान बूककर अपने दोनों वालकों को ज/ति-सेवा में सेंट कर दिया। गुरुत्री नें ऐसा करना इसलिये इचित समझा ताकि हिन्दु जाति जाग उठे । हिन्दु जनता यह नहीं समझे कि गुरु गोविन्द्सिह अपने लिए या अपने बेटां के लिए युद्ध कर रहा है | गुरुजी ने_ इस समय अपने साथियों को चह् बतला दिया : किम अपने स्वार्थ के लिए यबनों से टक्कर नहीं ले रहा वि अपनी जाति और घर के लिए ही ऐसे कररडा हैँ ! उनका भिद्धान्व था कि यदि मेरे पृत्र रख-क्षेत्र में मारे जाते हैं. श्रीर उससे हिल्दू जाति +#ी रक्षा हो जाती है तो इससे बढ़कर सोभाग्य की वात क्या होगी । केवल अ्रपने पुत्री को ही-- पुत्र॒ से सान कर गुरुज्षी ने समस्त हिन्दू ज्ञाति के पृत्रां को अ्रपना पुत्र समझा । वही कारण है छ्लि प्यासे जुकार- सिंह पर भी उन्हों ने दया नहीं दिलाई । गुरुजी के पर्चा की बीर- गति देखकर चमकोर दुगे के समस्त सिख दाइ-सेला पर मूर्ति
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सिंह की भाँति दृट पड़े । अपनी शक्ति से सी अधिक उत्साह उन वीरों ने दिखलाया । यह निश्चित था कि यदि वे दो नौनिहाल घालक युद्ध न करते तो सिकक्खों में इतना जोश न आता । इसका एक कारण यह भी था कि मुरल सेना से टक्कर लेते २ जब गुरु योविन्द्सिद्द हारने लगे तो बहुत से सिक््खों से उनको यह ताना दिया कि आपके कर्मो का फल हमें सोगना पढ़ रहा है | हम लोगों को खाना-पीना भी ठीक नहीं मिलता | छुछ कायर साथियों ने तो शुरुती का साथ भो छोड़ दिया। इस अपवाद को मिटाने के लिए तथा अवशिष्ट सिक्ख़ों में उत्साह संचार करने के लिए गुरु गोविन्दर्सिह ने अपने पुत्रों को युद्ध-क्षेत्र में भेजा । प्यासे पुत्र को युद्ध के लिए वापिस भेजने का अभिप्राय अपने सिपाहियों को यह शिक्षा देना धा कि विजय प्राप्त किये विना घर वापिस लोटना महा पाप है । युद्ध-क्षेत्र से वापिस तभी आओ जब कि विजय हो, अन्यथा नहीं |
गुरु गोबिन्द्सिद ने दो पुत्रों का बलिदान चमकोर के ढुगे में कर दिया पर अभी गुरुजी के दो छोटे पुत्र अभी जीवित थे । अपनी मावा जी के साथ दोनों बच्चों को एक ब्राह्मण की देख-रेख में दुगे से बाहर भेज दिया। किन्तु उसने विश्वासघात करके सरहिन्द के नवाब द्वारा उनका भी वध करवा दिया। इस प्रकार शुरू सहाराज ने धर्म की रक्षा के लिए अपने चारों पुत्रों का अभूतपूव उत्सये किया |
गुरु साहव दृदता और गअतिज्ञा की मूर्ति थे । सहन-शीलता ओर न्याय-परावणता तो उनसें क्ूट-कूट कर सरी हुई थी। धीरता ओर साहस तो उनमें इतना था कि बड़े २ संकट ओर फेष्ट पड़ने
[ २६ ॥]. पर भी थे घबराते न थे। देश की ऐसी अधोगतिं की अंवस्था[-में हिन्दू जाति और हिन्दू धमे की रक्षा का बीड़ा उठानां इसी “ भहापुरुष का काम था । हु
: शुरुजी ने अपने त्याग से शक्ति-हीन पुरुषों में भी शक्ति का सम्ार कर उन्हें अपने कतेत्य पर आरूढ़ रहना सिखला दिया ।
गुरु-गद्दो पर आरूढ़ होते ही गुरु गोविन्द्रसिह ने सोचा कि यदि में अपने शिष्यों से पृत्रे गुरुओं की भाँति रुपया पैसा भेंट में लूँ तो मेरे पास धन ही इकट्ठा होगा, उससे यबनों का मुछाविला नहीं हो सकेगा । यदि में उन शिष्योंसे रुपये पैसे के स्थान पर हाथी घोड़ा, तल्गर, बन्दूक, छुरियाँ आदि भेंट में लूँ तो मेरे पास युद्ध की विविध सामग्री एकत्र हो जायेंगी। इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों में इस बात की घोषणा करदी कि जो मुर्मे अच्छेर अल शस्त्र सेंट में दिया करेंगे में उनसे अधिक प्रसन्न होरँगा। गुरूजी की दूरदर्शिता फल्लीभूत हुई आर चारों ओर से तलवार, ब्ियों,गोलियाँ, कवच तमंचे आदि अनेक प्रकार के अख-शख्त्र तथा तरह २ के घोड़े आकर जमा होने लगे । सिक््ख संप्रदाय के प्रवते के श्रादि ग तानक देव से लेकर ग॒रु तेग़वहादुर तक किसी भी गुरू ने इस तरह की थुुक्ति नहीं सोची थी । श्रत्र गढ़ गोविन्दसिद ने अपने शिष्यों को केबल धार्मिक उपदेश ही नहीं दिया: बल्कि लड़ाई फे दोव-पेच सार-काट के तरीके भी सिसलाये | प्रकृति का नियम है कि प्रत्येक ज्ञाति अपने प्राथमिक उत्थान में चहुत बीर दाती है । दसवे गुद गोविन्द्सिहजी ने सिकल जाति मे नया प्राण टाल दिया । उनकी ओजस्विनी वाणी का उनके शिप्यों पर ऐसा प्रभाव पड़ता था कि वे तम्मव हो जाते ओर घर-चार सबफूछ थूलकर गूर
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की सेवा में संल्मम रहते | गुरु साहब ने देखा जि जब तक संस्कृत विद्या का प्रचार अपने शिष्यों में नहीं होगा तब तक ये लोग संस्कृति तथा सभ्यता का भली भाँति ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकेंगे ।
उन्होंने इस कमी को पूरा करने के लिये संस्कृत के बढ़े २ परिडतों को संस्कृत पढ़ाने के कार्य पर नियुक्त किया । शनेकों शिष्यों को काशी पढ़ने के लिए भेजा । इनसे पूर्व विद्या का प्रचार किसी भी गुरु ने नहीं किया। धार्मिक उपदेश देने के अतिरिक्त पूब गुरुओं का ध्यान दूसरी ओर गया ही नहीं । इसी विलक्षण बुद्धि चातुय के कारण गुरु गोबिन्दर्सिह को सब गुरुओं में यदि सबसे उच्च स्थान में दिया जाय तो श्रत्युक्ति न होगी ।
इनका धार्मिक उपदेश केवल आात्मज्ञान से ही भरभूर नथा अपितु उपदेश देते समय गृरुजी हिन्द! ज।ति के आदशे चीरों का पविन्न नाम अवश्य उद्चारण कर लिया करते थे | उनका कहना था कि भाइयो ? हम लोग ज्षत्री हैं, हम कृष्ण अजुंच और भीम की सन््तान हैं । देश ओर धमे की रक्षा करना हमारा प्रथम कतेञ्य है । परन्तु काल की गति से हम इतने गिर गये हैं कि यवनों का इतना अत्याचार देखते हुए भी कुछ नदीं बोलते । हमारे चारों ओर गोबश् जारी है, हमारी ख्त्रित्रों और लड़कियों के साथ बलात्कार किया ज्ञाता है ! हमारे धर्मशिक्षक तलावार की भेंट हो रहे हैं और हम लोग चुपचाप देखते जाते हैँं। कितनी लज्या की बात है । आप लोग अपनी विलास-प्रियता- को छोड़िये और सब मिलकर देश-जाति और. धर्म की रक्षा करने को तथ्यार हो जाइये। ,
इस प्रकार प्रभावशाली व्याख्यानों से गुरुजी ने एक पन्थ दो
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काज' की उक्ति द्वारा घानिक उपदेश के साथ अनोखो-सैन्य-सेंगठेन-* भी कर लिया | जब तक सिक््ख सेना साथ देती रही स्वयं लड़ते रहे किन्तु जब अपनी सेना के सिपाही वीर गति को प्राप्त हो गये तव गुरुजी अन्य किसी उपाय से मुस्लिम सत्ता का नाश करने के लिए चिन्तित हो उठे | यात्रा के वहाने दक्षिण की ओर गये । यह हम पहिले लिख आये हैं कि-दक्षिण में बेरागी माधवदास उन दिनों बड़ी ख्याति प्राप्त कर चुका था । गुरुजी ने उसे पंजाव जाने ओर मुसलमानों से बदला लेने के लिए प्रेरित किया । गुरुजी की सदुभावना का द्वी प्रताप था कि संसार को त्यागकर तपस्या में: लीन बेरागी फिर से कमे-क्षेत्र में आडटा । यदि अन्य कोई उससे युद्ध के लिए प्रेरणा करता हो सम्भव था कि वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता ) गुरु जी ने वरामी के आगे भिन्षा नहीं मोंगी अमनुनय विनय नहीं की, चल्कि सिंह की तरह गर्जना कर वेरागी से यों कहा--कि आप अपने जीवन को व्यर्थ नष्ट क्यों कर रहे हैँ । सिद्ध वैरागी माधवदास ने भी निर्भाक थाणी में उत्तर दिया--जीवन तो सबका ही नष्ट हो रहा है। भगवान् का भजन करके में भी समय काट रहा है आत्म-कल्याण फे लिए भगवान, का भजन ही मुख्य है। गुरु महाराज वैरागी की तपश्नयां से प्रसन्न तो थे परन्तु वे इस वीर पुरुष को इस तरह अफ्रेला बैठकर तपस्या करते देखना उचित न सममते थे) इस लिए इन्देनि कड़कते हुए स्वर से कद्दा--तब तो आप घड़े स्वार्थी हैं । अपने कल्याण के लिए जप, तप, ज्ञान ध्यान में लगे रहना स्वार्थ नहीं है तो कया परमा्थ है। पाठक इस बात को समक लें कि एक
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घोर पुरुष अपने समान वलवान वीर के सामने नम्नता के स्थान पर तीखे शब्दों का प्रयोग करता हैे। वीर अभिमन्यु ने अपने पिठ-गरु द्रोशाचाय को वाण छोड़कर ही अभिवादन किया था। टुष्यन्त जब शझुन्तला के वियोग में उदासीन बेठा था तो चठर मातली ने विदूषयक्त को सताकर दुष्वन्त को क्रोधित किया था. ताकि असुरों को मारने के लिए यह इन्द्र की सहायता कर सके। गुरु जी नीतिं-फुशल थे । वीर वैरागी को उत्तेजित करके अपना मनोरथ पूरा करना ही उनका मुख्य उद्देश्य था। आखिर उनकी इस नीति ने अपना चमत्कार दिखाया ओर बैरागी भी उत्तेजित' हो कर वोल पड़ा--आखिर आप क्या चाहते 8 ? ग़रु जी ने उत्तर दिया--आप यहाँ शान्ति से स्वगे की प्राप्ति के लिए साधन कर ” रहे हैं ओर आपकी जाति की स्त्रियों को मुसलमान भ्रष्ट कर रहे हें । मन्दिर तोड़े जा रहे हूँ, चोटियोँ कार्ले जा रही हैं और लाखों हिन्दू मुसलमान बनाये जा रहे हैं । गोहत्या वढ़ती जा रही है। समस्त पंजाब में हाहकार मच रहा है । हिन्दुओं की रक्षा के लिए कोई भी सपूत आगे बढ़ने को तय्यार नहीं। ऐसे समय में आप का चुपचाप यहाँ बैठे रहना शोभा नहीं देता ।
इस प्रकार वीर वैरागी को हिन्दू धर्म की रक्षा के निमित्त कर्म- क्षेत्र में स्थिर करने का श्रेय भी गुरु गोविन्द्सिह जी को ही है। जब तक ग़रु जी जीवित रहे | उनका ध्येय, उन्तकी धारणा अपने हिन्दु भाइयों के उद्धार की ओर लगी रही ।' आन्तीयता का भेद्- भाव भी गुरु जी के मन में नहीं था। वे सारे भारतवष को अपना देश सममते थे ।. वैसे भी .उनका जन्म-स्थान पटना, युद्ध-क्षेत्र पंजाब और मृत्यु-स्थान दक्षिण । इस प्रकार सारा भारत ही गुरु
[ जेँंई ॥
जी का अपना घर था| हिन्द जाति ही उनकी जाति तथा हिन्द धर्म ही उसका धर्म था। ऐसा व्यापक पुरुष इनके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं दिखाई देता । गुरु जी ने जहाँ सिक्खों तथा हिन्दुओं में संगठन का बीज वोया वहाँ वे चरित्र-गठन की ओर भी ध्यान देते थे । अत्येक पुरुष को सदाचारो सत्यवादी होने का उपदेश देते थे। अपने शिष्य-सेनिकों की देख-रेख भी थे स्वयं ही करते थे । उनके साथ अपने पत्रों जेसा आचरण करना गरारु जी अपना परम कतव्य सममते थे |
अब तक जो गरु श्रथा चली श्रा रही थी। इन्होंने उसको समाप्त कर (गूरु वाणी को ही गुरु माना जाय ) शआगे के लिये फोई अन्य गुरु मानने से इनकार कर दिया। अतः आज तक सिक्ख जनता उनके आदेशालुसार ग्रन्थ साहब को ही अपना गरु मानती चली आ रही है । प्रन्थ साहब दसों गरुओं की वाणी का संग्रह है। किन्तु प्रन्थसाहब के पढ़ने से पता चलता है कि जितनी सुसंस्क्ृत मेंजी हुई भाषा गरुगोविन्दर्सिध की वाणी में मिलती है उतनी अन्य किसी में नहीं। क्योंकि ग्रुगोविन्द्सिहद अन्य गुरुओं की अपेज्ञा अधिक पढ़े लिखे थे। वे एक तो विद्वान थे साथ ही प्रतिभा-सम्पन्न भी। पर इनकी विद्या ऐसी न थी कि रात दिन किताबों का मनन करने में अपना समय व्यतोत करते । युद्धक्षेत्र में भी एक ओर शबुओं से संघ हो रहा हद तो दूसरी ओर थोड़ा समय मिलने पर शास्त्र-चिन्तन करने लगते। कहने का अभिप्राय यह दे कि गरसाहव की गति चार्रो शोर थी। राजा के स्थान पर राजा, शरु के स्थान पर गुरू, सेनापरते के स्थान पर सेनापति ओर स्थागी के स्थान पर एछ अप
अदरक ४ कर जज कक बे 3 ेक 5 हे अ८अ+ जिन ॥ ० कक व ० ४५9७४२ ५ 3८ २४०९-०८ कहकर:
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त्यागो। यदि गरुसाहब का अधभ्युदय न होता तो हिन्दू जाति लड़खड़ाती भोर नए्र-भ्रष्ट हो जाती । सिक्ख लोग एक प्रकार के कबीर पंथ, दादुपंध की भाँति नानक पंथ का अवलम्बन लिये खड़े रहते । श्राज जो वीरता का गोरब सिक््ख जाति को प्राप्त है उसका एक्र मात्र कारण गुर गोविन्दर्सिह हं। अंगरेज्ञ लोग भी सिक््खों का लोहा मानते हूं। क्योंकि वतमान काल में सिक्खां ने .बड़ी वीरता से लड़ाइयों लड़ीं | स्मरण रहे कि सिक््तखों की युद्ध विद्या के गुरु, गूरुगोविन्द्सिह ही थे। जिस गुरुसाहव ने हिन्दू जाति की रक्षा के लिए सिक्खों को लड़ना सिखाया उनक्रो क्षत्रियत्व की पदवी देकर जाति-रक्षक वनाया वही सिक्ख जाति आज श्रपने आप को हिंदुओं से भिन्न जाति स्वीकार कराने पर छुली हुई है । परन्तु गृएप्राही हिन्दुओं को चाहिए कि जो स्थान वे महाराष्ट्र केसरी शिवाजी को देते हैं, जो श्रद्धा उनके मन में राणा प्रताप के लिए हैं वही श्रद्धा--भक्ति भावना गुरुगोविन्दर्सिद के प्रति भी होनी चाहिए | गुरुजी के गुणों की जितनी चर्चा की जाय कम है फिर भी आवश्यकीय घटनाओं का त्याग हमने भी नहीं किया ।
अमर शहीद वीर बन्दा वेरागी
पत्चाब के ऐतिहासिक साहित्य में सिक्रख धर्म के प्रव्तक तथा! संरक्षक दस गुरुओं के घाद हिन्दू जाति के प्रवत्तंक और सुधारकों में चीर बैरागी का नाम घड़े गौरव ओर श्रद्धा से लिया जाता है. । ये एक अद्वितीय महान् पुरुष हो चुके हैँ । किसी जाति के चहुत काल तक जीवित रहने का केवल मात्र यही एक चिह है, कि उसमें समय २ पर महापुरुष जन्म लेते रहते हैं। ये महापुरुष जाति देश तथा ससाज़ में नूतन जीवन का सम्वार करते हैं । गहरी नींद में सोई हुई झतप्राय जाति तथा ससाज को देश की गहान शआत्माएँ ही जागृत करक्के उन्हें कततव्य-पालन की शोर अग्रसर फरती हैं । सारे हिन्दू भारत को और विशेष कर पश्लाव की सिक्ख जाति को वीर बैरागी ने किस ऊँची चट्टान पर ला खड़ा कर दिया। पाठकों को इस यात का पता इस छोटे से लेख से भल्ी भान्ति चल जायेगा। यह लेख उनके जीवन की एक मोंकी हूँ, विस्तृत विवेचन ऐतिहासिक ग्रन्थों में भरा पड़ा है । परन्तु इसमें भो झिसी घटना को छोड़ा नहीं गया। प्राय: सभी घटनाएँ लिखी गई हूँ । इस महापुरुष का जन्म कार्तिक शुक्रप्ष संवन्१७२5को पन्छ रिया- सत के राजोर, गाँव में हुआ | आपके पिठा का नाम रामदेव था !
[ ४ ]
थे जाति के ज्ञत्री थे। भारतीय महापुरुषों के जन्म-स्थान, और तिथि आदि में प्रायः वाद-विवाद चला ही करता है। क्योंकि निश्चित तिथि तथा निश्चित स्थान का लिखना यहाँ के साहित्यकारों की प्रकृति के विरुद्ध रहा है। इसलिए वीर वेरागी के सम्बन्ध में भी "लोगों की यहं धारणा है कि ये दक्षिण के थे.। कोई उन्हें ज्ालन्धर ज़िले का मानते दे। सर. कुछ भी हो इतना तो प्रसिद्ध ही है कि गुरु गोविन्दर्सिह ने अपनी माठभूमि पतञ्ञाव की सेवा करने के लिए. उन्हें प्रेरित किया। माठ्भूमि पश्नाब के प्रति उनकी सच्ची भक्ति का दिखाना और दक्षिण को छोड़ कर यहाँ आना यह अकास्य , प्रमाण इनके पत्ञावी होने के द्योतक हैँ। इनका बचपन का नाम लद्टमणदेव था राजपूत होने के नाते इनमें दो प्राकृतिक गुण थे। इनको शिकार खेलने का बड़ा शौक था । इसीलिए इनका
निशाना अचूक था । शिकारी के लिए घोड़े की सवारी आवश्यक है। यह विद्या मनुष्य शिकार खेलते-खेलते स्वयं सीख जाता है।
आगे चल कर जब उसको सेना-सम्वालन या वीर योधा बनने
की आवश्यकता होती है तो ये दोनों गुण उस के बड़े काम आते. हूँ । इतिहास पर दृष्टि डालने से यही पता चलता है कि संसार के बढ़े * वीर सेनानी बचपन से ही कुशल शिकारी, अद्वितीय घुड़्सवार और अचूक निशानची थे । शिकारी का दिल बढ़ा * कठोर होता है। इसी कारण वह निदयवा-पूवेक निर्दोष प्राणियों का * वध कर देता है। पर यदि उसंको शंत्रुओं का सामना करना पड़े तो , वह बड़ी नि्देयता से उनको अपने पैरों तले रौंद डालता है । बस यही .
जन
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गुण लेक््मणदेव को आगे चलकर एक वोर सेनानी के रूप में बदलने वाला हुआ | किन्तु इनके जीवन में घड़ा परिवततेन आया | एक समय को बात है कि इन्होने एक हरिणी को तीर का निशाना जबनाया। वेचारी हरिणी घायल होकर लुढकती हुई दूर जाकर श्रचेत ही गिर पड़ी। चह गर्भिणी थी, उसके पेटसे पच्चे निकत पढ़े और उस ने त्तदफड़ा कर अपने प्राण त्याग दिये | इस दृश्य से लक्ष्मणदेव के चरिन्न पर गहरा प्रभाव पड़ा । उसका दिल पिघल आया ! अनाथ नवजात-बच्चों की करुण दशा उससे न देखी गई। श्रत्: उसने निश्चय कर लिया कि आज से मैं शिकार-रूपी दुष्कर्स को त्याग दूँगा। चस यहीं से उनके जीवन का स्वरूप बदल जाता है । इन्होंने जानकी- दास एक बैरागी से जान पहिचान की और उसी के साथ लादौर चले आये । अब लच्सणदेव साधोदास के साम से पुकारा जाने लगा । कुछ दिन लाहोर रहने के बाद माधोद्ास तीथ॑-यात्रा फेरन फे-लिये अनेक तीथों में घूमता हुआ पद्चवटी जा पहुँचा। यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर इसी बन में उसने श्रपना डेरा जमा लिया और अनवरत रूप से तप फरने लगा । भार्य-वश्य एक सिद्ध मद्ात्मा की कृपा से इतको भी अद्वितीय सिद्धि प्राप्त दो गई
अच सिद्ध माधोदास ने पद्चवटी को स्यागकर सोदावरी फे किसारे अपना स्थान बना लिया। भक्ति की असाधारणा धफ़ि के कारण उसके पास असंख्य लोग आने लगे। कई एक तो इसके चेले वन शये। कई मरुष्यों की तो यह घारणा घन गई थी किवैरासी ने जिन
हु]
या भूव-प्रेव सिद्ध किये हुए हैं। इन दिला दक्षिण में मराठों के
३ कै.
साथ ओऔरब्नज्षेब की घमसान लड़ाई हो' रही थी -। बीर चैरागी : सब छुछ सुनकर भी संसार से विरक्त होने के कारण हिन्दः जाति की रक्ता के लिए कोई .कदम नहीं उठाता था, किन्तु ईश्वर को यह स्वीकार न था। उनको-वेराग्य के शुष्क स्थल से हटकर कम के“ क्षेत्र में आना पड़ा | त्यागी हुई.तलवार और. घनुप-वाण को फिरसे . अपनाना पड़ा । वास्तव में बात. यह थी कि पतद्चावके वीर-शिरोमरि- गुरु गोबिन्दर्सिह ने अत्याचारी मुसलमान शासकों के साथ बढ़ा: * प्रतिहन्द्र फिया। जिममें इनको अपने लाइले बच्चों तक का बलिदान- करना पढ़ा। शन्तमें अपने प्रान्त और सिक़्खों की उन्नति के उपाय - सोचते २ दंच्षिण.की ओर चल पढ़े | इनकी:इच्छा थी कि किसी प्रकार किसी से सहायता प्राप्त कर पप्नाव का उद्धार किया जाय ।
बैरागी की कीर्ति बढ़ी दूर तक फैली हुई थी.। इसलिंए वह गुरु गोबिन्दर्सिह के कानों तक भी पहुँची | निदान गुरुजी ने वैरागी से मिलने का निश्चय किया । आखिर गुरुजी जब वैरागी के मठ में गये तो वाह्य परिचय न होने पंर भी एक वीर आत्मा ने दूसरी वीर आत्मा को मट से पहचान लिया | गुरुजी बढ़ी २ कुवानियाँ कर चुके थे और बैरागी को. अभी करनी थीं।
. एक सच्चे वीर ज्ञत्री ने वेरागी.के हृदय में ज्ञात्रधम का बीज बो दिया | उसे अकमरंयता के मागे से कम के मागे परे ला खड़ा कर . दिया। माठ्थूमि के दुखों का ऐसा चित्र गुरुजी ने खींचा कि साधु महात्मा कट से कह उठा कि “में आपका बन्दा हूँ” गुरुजी ने उत्तर" में कहा यदि तुम सचमुच मेरे बन्दा हो तो माठ्भूमि की वन्दना केरो'
[ ७ ] बस, ' उसी दिन से आपका नाम बन्दा या बन्दा वहादुर पड़ 'गया। कुछ सिक्खों को साथ लेकर वन्दा बैरागी पञ्नाव की ओर चल “ प्रडा । रास्ते में कई एक देश-भक्तों से उसकी भेंट हुई | उसे पर्याप्त आर्थिक सहायता भी मिली । सुदूर दक्षिणकी लम्बी यात्राके अनन्तर ' बन्दा वरागी पश्चाव पहुँचा और सैनिक संगठन करने लगा । इधर ' शुरूजी के दक्षिण चले जाने के वाद छुछ सिख नवाब सरहिन्द के 'यहाँ नोकर हो गये । नवाव इनका सदा अपमान किया करता । किसी सेनानायक के न होने से वे वेचारे चुप रह कर सब 'कुछ सहते । बन्दा वद्दादुर के पहुँचने पर बहुत सारे सिक््ख इनसे आकर मिल गये | छोटी सी फौज तैयार हो गई । इस छोटो सी टुकड़ी को लेकर वैरागी ने 'सामना' .के शहर की लूट-पाट शुरू करदी। साथ द्वी यह घोषणा भी करदी कि लूट का माल लूटने वाले का अपनार होगा। तीन दिन की लूट मार से सारा शद्दर खाली द्वो गया । स्वे-प्रथम इसी नगर पर इतने प्रकोप का विशेष कारण यद्द था कि गुरुजी के बच्चों को मरवाने वाला अलीहुसेन भीर शुरु तेश- बढ्ादुर का घावक जलालउद्दीन दोनों यहीं रहते थे । सरकारी खज़ाना सैनिकों ने आपस सें ही वॉट लिया। इस समाचार के मुनते ही हज़ारों लुटेरे और डाकू बन्दा वद्दादुर की फ्रीज़ में शा भिले। एक बड़ी भारी सेना तैश्यार दो गई अर इसने अम्बाला, सीफावाद, संवारा, दावल आदि शहरों को लूट लिया | एक और पठानी गाँव लूटने के बांद बैरामी को नवाब की सेना से सुकाबिला करना पढ्ा । किन्तु वैरामी के तीरों की घौछार ने सेना के पांव झाञइ दिये।
६... ॥ एक सढ़ोरा नगर के शासक उस्मानर्खाँ, ने हिन्दुओं. पर बढ़े अत्याचार किये थे । हिन्दू बहू-वटियों की इज्ज्ञत उतारना उसके लिए एक मामुली सी बात थी। बन्दा बढ्ादुर ने इसंके ऊपर धावा बोल दिया। दिन भर लड़ाई द्वोती रदी, क्योंकि वह भी श्रसंख्य मुसलमानों का दल बनाये बैठा था । बन्दा वहादुर के जहरीले बाणों के आगे वह भी वहुत समय तक न टिक सका | उस्मानखाँ को पेड़ से बांधकर मार दिया गया। वबेरागी ने फुछ दिनों में मुखलिसगढ़ के क्लिलि पर अधिकार कर लिया । पूर्वी पल्ञाव में वैरागी की धाक जम गई । हिन्द जनता इनको धसे-रक्षक ईश्वर का अवतार में सम- भने लगी | बढ़े २ वीर हिन्दु-युवक्र इतकी सेचा्में आ पहुँचे | कपट रूप से सैकड़ां मुसलमान भी इनके साथ मिल गये और गुप्तरूप से नवाब सरहिन्द से मिले रहे। इनकी एक गुप्त चिट्ठी वन्दा बहादुर के हाथ लग गई । अतः उसने सब मुसलमानों को बुरी तरह से मरवा दिया। उस दिन से इन्होंने कभी भी मुसलमानों का विश्वास नहीं क्रिया । वह समय लूट-मार का था। छोटे-छोटे राज्यों से लेकर बड़े? सांम्राज्य तक की नींव लूट-मार के घल पर ही आश्रित थी। लुटेरों का सरदार अपने साथी डाकुओं को लालच देकर छोटे बड़े गाँवों को लूटता और अन्त में किसी किले को विजय करके राजा बनबैठता। किन्तु स्मरण रहे कि वैरागी के सभी सेनिक लुटेरे ही न थे। न ही वैरागी की यह इच्छा थी कि लूटमार से.जनता को तंग ' किया जाय ।' किसी न किसी प्रकार से हिन्दू जाति की रक्षा करना , ही उसका अुख्य उद्देश्य था। जो कोई भी-हिन्दू उनसे सहायता
् धर
&::*« | ' के लिए आता वे फौरन उसकी सहांयता करते । एक गाँव के ब्राह्मणों ने मुसलमानी अत्याचारों से पीड़ित होकर इनसे प्रा०्ना की। इस पर चन्द्रा वहादुरने फतहसिंद्द को सेनापति, वाजसिंह को खज़ानची तथा अन्य सरदारों को दूसरे अधिकारों पर नियुक्त का ब्राह्मणों की रक्षा के लिए भेज दिया। उन्होंने भी एक एक करके सारे अत्याचारी मुसलमानों को फुचल डाला। मार्मे के सिक्ख बैरागी की सहा- यता न कर सकें, उनको रोकने के लिए सरदिंद के सूे ने ५ हज़ार सेना भेजी | किन्तु उसे बन्दा वहादुर के सामने हार खानी पड़ीं। सरहिंद पर बैरागी की तीखी नज़र थी, क्योंकि यहीं गुरुगोविन्द सिंह के बच्चे दीवार में चुनवाये गये थे। आखिर प्रतिद्िसा की ज्वाला एक दिन भड़क उठी | और बन्द्रा बडादुर ने सरहिन्द के नवाव पर आक्रमण कर ही दिया। दोनों सेनाएँ बड़ी वीरता से लड़ीं। घोड़ों ओर मनुष्यों की लाशों के ढेर लग गंये ओर खून की धारा बह निकली। नवाब की तो पं आग उगल रबी थीं, परन्तु दूसरी ओर केवल तलवार और तीर दी चल रहे थे | एक दो बार सिक््ख-सेना भी पीछे हृ॒टो, पर पेरागी के तीरों ने तोप चलाने बालों को अपना निशाना वना लिया और निकट पहुँचकर बन्दा . बहादुर म्यान से तलवार निकाल कर दुश्मनों पर दृट पढ़ा । वजोरखों से भी पूरा मुकाबला हुआ । उसकी भागता देख वैरागी ने गिरफ्तार कर सारे नगर में दृत्याकांड जरी कर दिया। किले में प्रवेश कर बेरागी ने वज्ञीरखों का घुला इस के सामने उसके सारे परिवार का बच करवा दिया । बाद में इसे
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जिन्दा ही अप्रि में डाल दिया। इसके बाद सूबे के दीवान सुझ्ा- : भन््द को घुला उसे भी जान से मार डाला ।. हिन्दू होने पर भी यह . शुरु गोविन्द्सिह के वश्शों को दीवार में चुनवाने में सद्दायक था। . इसके बाद बन्दा बहादुर विजेता राजा की तरह मालेरकोटला की ओर घढ़ा और जिगरांव, रायकोट को अपने अधिकार में कर लिया। छुछ दिन लुधियाना में ठहर कर ढुआवे पर चढ़ाई कर दी। इस प्रान्त के मुसलमान या तो भाग गये या भेंट लेकर वन्दा की सेवा में उपस्थित हो गये । इस लिये जद्दों कोई लड़ाई नहीं करनी पड़ी । जालन्धर, फगवाड़ा सूरसिंह, पढ्टी, सापाल, 'खैमकर्ण आदि इलाके बिना परिश्रम -किये अधिकार में आा गये। हाँ वजवाड़ा के नवाव ने रुकावट पैदा की, किन्तु अन्त, में वह भी हार गया । आश्चर्य की वात है कि इतनी विजय के बाद भी उस थीर पुरुष के हृदय में राज्य करने की लालसा नहीं जगी । उसने अपने अधिकारियों में ही सारा विज्ञित राज्य बाँद दिया। करनाल ओर पानीपत बावा विनोदर्सिद को ओर सरहिंद का सूवा बाज्ञसिंह को देद्या । करनाल से लेकर कांगढ़ा प्रान्न तक बावन लाख के विशाल प्रदेश पर फिर हिन्दु-राज्य स्थापित हो गया । ु । मुसलमान शासकों में इसका दबदवा छा गया । उनको: यह पूर्ण विश्वास हो चुका था कि -बरागी ने जिन्न, -भूत अपने वश में किये हुए हैं। यद्यपि कुछ नरम दल वाले हिन्दू इनकी इतनी सख्ती से चिढ़ते थे और केई'विरोधी भी वन गये थे । किन्तु बैरागी बाबा का
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“एकमात्र मुसलमानों का समूल नाश करना ही उद्देश्य था। थोड़े दिनो. के बाद वन्दा बहादुर अमृतसर आया ओर उससे दरवार साहब में बहुत सी भेंट चढ़ाई। कई जाटों को सिक्ख बनाने का उपदेश : दिया। जो जाट सिक््ख-बनं जाते थे उनसे कोई कर नहीं लिया जाता था। परन्तु इतनी बड़ी विजय के वाद भी सिक््ख जाति सबल न हो सकी । बन्दा वहादुर की अनुपस्थिति में मुसलमान “सिक्खों को बहुत सताया करते थे। परन्तु बैरागी के पहुँच जाने पर शांति हो जाया करती । इनकी विजय में राजनेतिक परिस्थि- - तियाँ भी बहुत कूछ सहायक हुई। उन दिलों दिल्ली का केन्द्रीय . शासन डगमगा रहा था। दक्षिण से मराठों ने मुग़र्लों की नाकों चने चवा दिये थे । दिल्ली का मुग्नल सम्राट दक्तिणोत्तर तथा पश्चिम को अपने हाथ से गंवा बैठा । दक्षिण सें सरहठों का राज्य था 'तो - उत्तर पश्चिम में चन्द्र वगादुर का। वास्तव में बन्द्रा वहादुर राजा: नहीं था। वह तो अपने अधिकारियों में राज्य बॉँट कर : स्वयं अलग हो रहता था। पश्लाव के इिन्दुओं के लिए * तो मानो यह अचतार ही था। प्रायः मैदानी प्रान्त में इसका बोल बाला था। यद्यपि पहाड़ी हिन्दू राजा वेरागी फे विशधी तो - मन थे पर उसस उदासीन अवश्य थ। वेरागी न जे्जों केलोर के राजा अमेरचन्द को पत्न लिखा कि आपने पहिले तो गुरु जी का विरोध किया दे | अव आप अपने दस विचार फो घदल कर सिक््खों की सहायता फर्रे। अभिमानी थमेरचन्द ने उत्तर में लिखा कि--जैसे उम्णचको भगाया है; बसे ही सुम्दें भी भगा देंगे।
[ १२९ ] बस फिर क्या था वैरागी ने तुरन्त ही उस पर चढ़ाई कर दी। कई पहाड़ी. राजा उसके सहायक थे। परन्तु अन्त में सब ने अधीनता स्वीकार कर * ली। सम्बत् १७६७ में मण्डी नरेश वन्दा को अपने राज्य में ले गया ओर उन्हें अपना गुरु बना लिया । उस समय इनकी इच्छा राजसी ठाट-बाट से रहने की हुई । अत: इन्होंने एक क्षत्रो कन्या से विवाह भी कर लिया। पव॒तीय ग्रान्त में जन्म लेने के कारण बैरागी का पवतीय आन्तों में विशेष प्रेम था। जब अधिक दिनों तक ये पहाड़ी प्रान्तों में रहने लगे तो इधर प्रतिशोध रूप में मुसलमान सिक्खों पर बड़े अत्याचार ओर सख्तियाँ, करने लगे। यद्यपि सिक्ख बनन््दा वेरागी का मान तो करते थे परन्तु दिल से छुढ़ते भी थे। यही कारण है कि कुछ सिक्खों का एक विरोधी दल भी बन गग्रा जो लगातार बंद्ा बैरागी के विरुद्ध ज़हर उगलता। विवाह कर लेने के बाद तो उनको एक ओर भी बड़ा अच्छा बहाना मिल गया । “विरोधियों का कहना था कि वैरागी भोगों में अस्त हो गया है। इसका तप जाता रहा है और इसने धर्म-युद्ध छोड़ कर अपने पन्थ का परित्याग कर दिया है। छुछ भी हो, यह सिक्खों की शदूरदर्शिता थी। इन दिनों सन्त बैरागी कुल्लू मण्डी आदि : पर्वतों के प्राकृतिक दृश्यों का दशेन कर अपना दिल बहला रहा था ओर इधर दिल्ली के मुगल सम्राद औरब्लज्ेवकी मृत्यु के बाद बहादुर- शाह ने राज्य की बगडोर अपने हाथ में ली। सभी पवेत्तीय प्रान्त तथा करनाल और पानीपत आदि पर बैरागी का अधिकार देख बढादुरशाह ने अपने सेनापति हाजी इस्माईलखों ओर इनायत अल्लाइखां को
अल बह
: बड़ी सेना के साथ सिक््खों पर चढ़ाई करने के लिए भेजा। बस फिर क्या था दिल्ली की शाह्दी सेना को देख कर बाबा विनोद: “सिंह करनाल छोड़ कर सरहिन्द आ पहुँचा। भग़लों ने सिक््खों से पूरा २ बदला लिया। सरहिंद पर भी मनीमखोाँ ने अधिकार कर लिया। हिन्दु सिक्ख बैरागी वावा को याद करते २ थक गये, : अब इनका कोई अन्य सह्ययक न था। यह समाचार जब बैरागी के कानों में पड़ा तो चह बिजली की तरद्द फुल्लू से भागा और हुशियारपुर आन पहुँचा । हरिणों के ऊपर सिंह की भाँति बीर बंरागी मुसलमानों पर टूट पड़ा। अब तो मृतप्रायः सिक्ख जा में भी प्राण विद्यत दोड़ पड़ी। सबका उत्साह बढ़ गया। हिन्द ल्षियाँ बैरागी को सो-सी आशिप देने लगी । मुसलमानों के घरों में फिर से पढिले जैसा हाहाकार सच गया । इस तरह बीर बैरागी के आते ही--पतारा प्रान्त फिर स्वावीन हो गया। सारे राज्य में दौरा करके त्यागी वीर ने इस समय लुधियाना का प्रान्त रामसिंद को दे दिया। मालवा फूज्क्रियों को और मामा मम्कालियां को दे . दिया। होँ अपनी राजधानी लोहगढ़ का किला बनाकर सदल्त- वल उसने घूमना प्रारम्भ कर दिया। इस द्रमण में इन्होंने सचे-प्रधम गंगाराम ब्राह्मण को सपरिवार पकड़ा ओर नगर के प्रमुख थाने- दारों सहित उसे मार डाला। क्योंकि गंगाराम आहार ने शुरू
. पुत्रों को धोखे से पकड़वाया था। इसके बाद जरागो ने सहारत- पुर की ओर बढ़ना प्रारम्भ किया और वर्दी के शासक 'फली- मुहम्भद के साथ टबर ली। झुगल सेना का सेनापति सरदार
[ १४ | रॉ गालिवखों मोत के घाट उत्तार दिया गया। फिर क्या था सेना - में भगदीड़ मच गई, और समूचे शहर में लूट-मार मच गई । इसके पश्चात् नजीवाबाद की वारी आई । बैरागी ने वहों भी घेरा डाल दिया | पहिले तो वहाँ का शासक शाहनवाज़खों खूब लड़ा किन्तु ज्वालासुखी में पतंग का क्या पता चलता है। जिस बीर बैरागी : में बड़े २ नवाबों के दाँत खट्टे कर दिये। उसके सामने एक छोटे से यवन शासक की. क्या चल सकती थी।॥ आस-पास फे सारे इलाके लूट लिये गये, . मुरादाबाद, जलालावाद शअआादि प्रान्तों पर भी आक्रमण हो गया । आश्चर्य की वात है. कि वैरागी जियर जाता था वहाँ आंधी ओर ववंडर की भांति जाता और लूट-खसूट करके जल्दी ही लोट आता | उस बवंडर में जो पड़ते वे कुचले जाते या पिस जाते ' और भागने वाले भी बड़ी कठिनाई से बचते। इस वीर के पास ' श्रजीव शक्ति थी; श्रफेले ही चारों ओर अपने वल पर लड़ता, विजय पाता और अन्तःमें त्यागी बन कर बठा रहता। युद्ध से विरत हो भगवद्धजन में लग जाता । यदि मरयादापुरुषोत्तम राम से इसकी : तुलना-की जाय - तो अत्युक्ति न होगी । रासने' भी तपस्वी फे भेष “में राक्षसों को पछाड़ कर बड़ी निर्देयता ही उनका वध किया था.। यही 'शुण- साधु 'वेपधारी बैरागी में था। तपस्वी वेषधारी मर्यादा पुरुषोत्तम ' “सम नें ,थोड़ी'सी बानंरों कीः सेना लेकर तीनों लोकों के। विजेता, | - शक्तिशाली रावण को" जैसे परास्त कर. दिया । उसी अकार बहादुर “ बैरागी ने भीछुछ एक सिक््ख सैनिकों को साथ लेकर मु ग़ल-साम्राज्य
[ १५: ] को जड़ों को खोखला कर दिया | क्या यह अलौकिक शक्ति न थी। विजली की चकाचोंध भले दीस्थायी न रहे किन्तु कुछ काल के लिए वह सारे भुवन-मंडल को अपने प्रकाश से आच्छादित कर देती है । प्रतापी वैरागी के चमत्कारों से हिन्दु हो विस्मित न थे । किन्तु मुसलमान तो बड़े विस्मित ओर सदैव भयभीत रहा करते थे। दिल्ली सम्र/ट वहादुरशाह के पास वीर चैरागी की कई बातें शुप्तचरों द्वारा पहुच जाया करती थी। प्रायः देखा जाता है कि यदि कोई ज्ञाति किसी युद्ध से सफलता प्राप्त नहीं कर सकती तो उसको धर्म का वहाना लेकर भड़काया जाता है । बहादुरशाह ने कुछ वीर मुसलमानों के सामने म्यान से तलवार निकाली ओर उसे ज़्मीन पर रख कर फहा कि घर्म-रक्षक फे नाम : पर कोई भी इस तलवार को उठाने वाला है. जो अपने धर्म के श्र का नाश कर सके । किसी ने भी तलवार न उठाई | शअत्तः श्रन्त में लाचार होकर असगरख, शसदुल्लाजों और नृरखों तीनों को एक बड़ी सेना देकर भेजा गया। कोट 'आवृखों के समीप युद्ध ठन गया । फिर सिक््खों की पराजय होने लगी।
शाही सेना एक लाख के करीब थी । इधर वे रागी के साथ फेवल २०-२२ हज़ार सैनिक थे। इस युद्ध में वेरागी फरो पराजय हुई सारी सेना में भगदीड़ भच गई। पेरानी भी घोढ़ा भगा मंदान - छोड़ गया । मिजाविग के पुत्र नवाबप्रेय ने उसका पीछा किया। दैरागी के सारे साथी तितर-वितर हो गये ।दिन इल चुका था। एक घने ,जंगल में घोड़ा छा गी पंदल ही.
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दोड़ पड़ा । अंधेरी रात थी। भगवान इन्द्र ने भी फुपित होकर चर्षा प्रारम्भ करदी। भूख और प्यास से चीर बेरागी व्याकुल हो रहा था। साथ ही शत्रु पीछा करता आ रहा था । उसे नज़- दीक ही आय जलती नज़र आई, यह एक बाग था। माली और 'सालिन बड़े आनन्द से आग सेंक रहे थे । चरागी इस स्थान पर पहुँचा दी था कि पीछा करने चाले भी आ पहुँचे१ प्राण रक्षा के लिए चह फु्ये में उतर पड़ा, बाद में चुपके से भाग निकला और बंड़ी कठिनाइयों का सामना करता हुआ शत्रु की आँखो से ओमल हो गया ।
फुछ दिनों बाद बन्दा वैरागी लोहगढ़ के क़लिले में जा पहुँचा । किन्तु शाही सेना विजय करती हुई लोहगढ़ भी आ पहुँची और उसने किले पर घेरा डाल दिया | सिक्खों का उत्साह भंग हो गया किन्तु वैरागी के जादू-भरे वचनों ने उनमें फिरसे जोश भर दिया ।.: यह बात कितने दिनों तक रह सकती थी। आखिर किले के चारों ओर घेरा पड़ने से खाद्य सामग्री का नितान्त अभाव हो गया अब तो सिक््ख “रागी को ताने देने लगे--कहाँ गई तुम्हारी शक्ति १ : तुम्हारे तप को क्या हो गया ? इत्यादि । इन बातों से चीर बंदे को बड़ा क्रोध आया उसने शाही सेना पर रात को छापा सारा, परन्तु इससे भी कोई सफलता नहीं मिली । आखिर वैेरागी ने अपनी शकल सूरत का एक आदमी अपनी जगह रखकर. पहाड़ों. का रास्ता लिया। इधर नकली बरागी पकड़ा गया। बहादुर- शाह पहिले तो बड़ा खुश हुआ क्रिन्तु भेद खुलने पर उसे .इतना.
[ १७ ] गुस्सा आया कि वह स्वर बैरागी को पकड़ने के लिये युद्ध-तेत्र में कूद पड़ा | बाहर की तड़क भड़क से यद्यपि बादशाह बढ़े रोव- दाव से लड़ाई के लिये चल पढ़ा किन्तु भाग्यवश वादशाह, लाहोर पहुँचकर बीमार हो गया ओर सं० १७७० में उसकी मृत्यु हो गदे। वस अब क्या था ? दिल्ली में राज-सिंहासन के लिये अन्तह्ृन्द् चलने लगा! सिक््तखों के दिन पलट गये। कभी मुसलमान विजयी होते तो कभी सिक्ख | बेरागी ने भी फिर सेना एकन्र करके सारे प्रान्तों पर अपना अधिकार कर लिया ओर इस समय इनके नाम का सिक्का भी चलने लगा। परन्ठु उसमें यद् एक वड़ा भारी दोष यह था कि राज्य-स्थापन के अनन्तर वह पठ़ाड़ी इलाकों को चला जाता इससे सिक्त्ख शक्ति मज़बूत न होने प।ई | जैसे एक म्यान में दो तलवारों का रहना असम्भव है वैसे ही एक पुरुष में दो प्रतिकूल शक्तियों का रहना असम्भव है । अतः बाहुबल से विज्ञय प्राप्त कर लेने पर भी बैरागी राज्य-शक्ति अपने हाथ में रखना नहीं चाहता था। वह राज्य को दूसरों के हाथ में दे देता था । जिनको राज्य का भार सोंपा जाता वे इस योग्य न होते थे। यदि बैरागी चैंराग्य-भावना को छोड़कर राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले लेवा तो निश्चव ह्दी पंजाब में हिन्दू राज्य की नीच पछी हो जाती। पर वह त्ता सुणालों से प्रान्न छीन कर उसका भार सिक्सखों फों सॉप कर स्वयं तपस्या करने चला जाता था। क्राग्य शरीर राज्यद्राति को परस्पर महान् विरोध है ये दोनों एक्क झ्ाश्नव में डैसे
न ना
न्च्् हम कार, ४ घहादर 45 गांगे। फन्न-फूज सकतो हैं । यही कारण है कि बहादुर बंदाया
[ १८ |
दोनों में से एक को की चिरसाायी न रख सका। यदि यह वीर' अपने हृदय से बेराग्य की गन्ध को निकाल देतो तो ' सम्भव है उसके साथ होने: वाली अनहोनो घटना न हो पाती | राजनीति धर्म के' अजुसार एक शासक को हर समय वैराग्य ' भाव अहण किये रहना बड़ी भारी भूलहै। उघर बहादुरशाह: की मृत्यु के उपरान्त दिल्ली के अमीर परस्पर दलबन्दी करके अपने-अपने आदमियों को राजपसिंहासन पर बैठा कर हत्याकारंड से रंगरलियाँ कर रहे थे। आखिर दो सैयद बन्धुओं को' सहायता से फरुंखसीयर बादशाह बना। इसी के राजत्वकाल में' वीर बैरागी असर गति को प्राप्त हुआ। यद्यपि यह स्वयं भोग- विलासों में फँसा रहता था, फिर भी इसने सिक्खों से मुसलमानों का पूरा बदला लिया। इसके राजसिंहासन पर बैठते ही झुस- लमानों ने सिक््खों की शिकायतें करनी शुरू कर दीं। इसने सूवा लाहौर को सिकक्खों के दमन करने का आदेश दिया । सूबा लाहौर सेना लेकर सरहिन्द पहुँचा और सिकक्खरों. पर टूट पड़ा | परन्तु घैरागी ने ऐसी तलवार चलाई कि हार खाकर मुगल सेना तितर बितर हो गई। फरुखसीयर अब इस बात को समभ गया कि.सूबा: लाहौर वैरागी का दमन नहीं कर सकेगा | तब उसने मन््त्री-मण्डल: से.परामशे लेकर चालाकी-ले काम लेना चाहा । उन दिलों दिल्ली. में गुरु गोबिन्द्सिह की दो स््ियाँ- रहती थीं। बादशाह ने एक : हिन्दू मन््त्री द्वारा उनको संदेशा भिजवाया कि वे वैरागी को समझा. दें।-बह:व्यर्थ में ही प्रजा को पीड़ित कर रहां है। - इस-वात को
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सुनकर गुरु जी की स्लरी “माता सुन्दरी” राज्ञी हो गई। इस
समय भाई मानसिंह और सदकीसिंह ने माता सुन्दरी को बहुत . सममाया कि आप बादशाह की चालों में न आयें । पर खो की ह
चहुत बुरी होती है । जहाँ स्लो लोक-कल्याण की पवित्र मूर्ति सममी जाती है वहाँ हठ-धर्म का शअवलम्वन कर विनाश-कारिणी भी हो सकती है। उसने.बेरागी को पत्र लिखा--“ तुम शुरु के सच्चे सिक्ख हो और तुमने पन्थ की बड़ी सेवा की है । तुम्हें चादशाह् जागीर देना चाहता है। इसलिए तुम लूटमार बन्द्र करदो” पत्र को पढ़ते ही चेरागी आगवबूला हो गया और सभा बुलाकर उनके परामश से उत्तर लिख दिया । आपका मुझको ऐसा लिखना व्यथे है। मेरे ऊपर आपका कोई अधिकार नहीं हैं। गुरु के पृत्रों का बदला लेना था सो ले लिया। परन्तु मैं कर्भा भी मुसलमानों की अआआधीनता स्वीकार नहीं कर सकता । जिस काम में खतरियाँ हाथ डालती हैं. वह कार्य कभी पूरा नहीं होता । प्रत्युत लाभ के स्थान में हानि उठानी पड़तो है । इतिहास के प्रष्टों पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि राज्य-शासन के भार में द्िद्रों के हस्तत्तेप करने पर निश्चय ही विनाश फा बोलवाला होता है | बादशाह ने जब देखा कि साम-नीति तो विफल रही । अतः अब भद-नीति का सद्दारा लेना चाहिए ? क्योंकि माता सुन्दरी के पत्र और इसके उत्तर का समाचार बादशाह सुन ही चुका था। इसने दोनों माताओं को अपने पत्त में कर लिया तेथा उनको चहफा [कर सिक्षखों फो यह पत्र लिखवाया कि आप में से यदि कोई शुरु गोधिन्दर्सि का सिकस्य
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है तो वह बैरागी का साथ न दे। इस आज्ञा-पत्र से सिक्स पंथ में खलवली मच गई। अदूरदर्शी तथा अन्धविश्वासी सिक्खवैरागी के विरुद्ध हो गये। आपसी फूट क्या नहीं करा देती । घरेलू फूट के कारण ही विदेशियों ने भारत में अपना अधिकार जमाया था । अन्त-विंद्रोह् तो अधिक मात्रा में जल ही उठा था अब केवल ज्वालामुखी फूटने की कसर थी । ह
आखिर संवत् १७७३ में अमृतसर में जब वैशाली का मेला लेगा तो सैकड़ों सिक्ख इकट्टे हुए। बेरागी भी बहाँ बड़े ठाठ-बाट से आया | परन्तु विरोधी दल के चल पकड़ जाने के कारण यह , दिन वैरागी के पतन का था | जन-समूह से आवाज्ञ आने लग्ी कि जो शुरु के,सिक््ख हैं वह इसका साथ न दें | वस फिर उसी संमय त्तू खालसा नामक एक दल बन गया । फरुंखसीयर की नीति सफल हुई। मूर्र सिकख खुशियां मनाने लगे। पर बैरागी ने. हिम्मत न हारी चाहे इने गिने सिकक््ख तथा हिन्दुओं ने ही इसका साथ दिया । बादशाह ने दिल्ली से सेना भेजदी । वैरागी ने हिन्दुओं को इकट्ठा करके शाही सेना का सामना किया । बैरागी को अब की वार भी अरभूत पूर्व विजय प्राप्त हुई । बादशाह के आश्चये का ठिकाना न रहा। वीर वैरागी के विरुद्ध जो सिकखों का दल बन गया था वह अब मुसलमानों से मिलने लगे |. इस समय की विजय से (दिल्ली पम्राट घबरा गया ओर मंत्रियों की सलाह से उसने बैरागी के विरुद्ध खालसा- सेना को अपने साथ :मिला लिया । अवृरदर्शी सिक्खों के अन्दर वेरागी के अति अबज्ष रूप से घृणा के भाव
[ २१ ]
जाग्रत हो चुके थे । सिक्खों और बांदशांह फरुखसीयर में फुछ 'संधि की शर्तें भी तय हुई। जैसे--शाही राज्य में सिक्ख कभी 'लूट-मार नहीं करेंगे, कोई सिक्ल वैरागी का साथ न देगा इत्यादि । बादशाह की ओर से यह शर्ते थी कि कोई बादशाह सिक्सों की जागीर न छीन सकेगा तथा किसी हिन्दू को ज्बरदस्ती मुसलमान 'त्त बनाया जायगा । वास्तव में मुग़लों की यह चाल ही थी। क्योंकि संधि के अनुसार मुगल सम्राट ने सिक्त्रां के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया | छुछ भी हो कूटनीतिन्न तुकी ने अपना स्वाथ पूरा किया। हृढ़-निश्चयी बैरागीने यह सव समझकर भी “कि सिक्ख विरोधियोंसे जां मिले हैं”” अपनी वीरतासे मुख न मोढ़ा ओर उसने लाहौर पर आक्रमण करने की तय्यारी कर दी। गुरुद्ासपुर से जितने भी साथी मिले उन्हें साथ लेकर लाहौर के समीप आकर ढट जया। वीर वैरागी के लिए यह समय पड़ा द्ानि-प्रद सिद्ध “ हुआ। वह तो सुसलिम शक्ति का सामना करना चाहता है । परन्तु उसके पद-पद पर काँठे विछे हुए थे। लाहर फे सूवा की सहायता के लिये खालसा फोज भी श्रागई | मुसलमानी 'फौज से वीर वैरागी खूब लड़ा। पर खालसा फ्रीज़ को सामने देखकर उसका दिल टूट गया जिन वीर सिक्खों की सद्दायता से उसने सैकड़ों वार विजय प्राप्त फी थी। श्राज उन्हीं के विस्द्ध सलवार उठाना उसके लिये वढ़ा फठिन काय था । झारििर जऔैरागी द्वार गया और वापिस शुरुदासपुर चला गया ।
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चारों ओर अविश्वास का अन्धकार था। जिघर दृष्टि जाती: उधर शत्रुओं का जमघठ था । किन्तु इतने पर भी वेरागी ने उत्साह नहीं छोढ़ा। उसने खालसा सेना को एक पत्र लिखा कि आप लोग तो शब्युओं के थोखे में फेस गये हैं। अभी फुछ नहीं बिगड़ा सोचो, और विचार करो | आओ एकसाथ मिलकर शब्रु सेः बदला लें फिए आपस में भी लड़ लेंगे। इस अकार की चिट्ठी कोः पढ़कर भी खालसा लोग कुमागे से पीछे नहीं हटे | उधर चैरागी ने सोचा कि में राजपूत हूँ में अपने अकेले दम पर ही लद्ूँगा । इसके पश्चात उसने कलानौर) स्थालकोट आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लियां । उत्तरोत्तर विजय प्राप्त कर लेने पर भी बैरागी को आत्म- बलिदान करने वाले वीर नहीं मिल सके । बैरागी की सफलता: के समाचार सुन-सुनकर बादशाह को चैन नहीं पढ़ता था। उसे, यह पक्का विश्वास था कि यदि बचैरागी जीता रहा तो कभी न कभी लाहौर पर वह अवश्य आक्रमण करेगा । इसलिए संवत- १७७६ में दिल्ली सम्राट ने तीस हज़ार सेना बैरागी का वध करने. के लिए भेज दी। शुरुदासपुर के चारों ओर घेरा पड़ गया । खाने- पीने का सामान मिलना बन्द हो गया। चैरागी के छुछ सैनिक खाद्य-सामग्री के लिये वाहर निकले । किन्तु शाही सेना ने उन्हें घराशायी कर दिया | जब.वीर वैरागी के सारे सैनिक भूखों मरने ); लगे तो उसने सबकी एकत्र कर- एक बार फिर आक्रमण .किया किन्तु आग में पते की भाँति उनको मौत ही मिल्ी। . ..
महात्मा बंदा जिन सिक्ख सैनिकों को एकत्र करके लड़ते रहे
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वे सिक्ख घममे के अनुयायी न थे। उनका हिन्दू धर्म था और जाति भी हिन्दू थी। वीर वैरागी ने सिक््खों के श्रन्तिम शुरु शुरु गोविन्दर्सिह जी की प्रेरणा से शस्त्र धारण किया था। बद एक ' मात्र हिन्दू जाति की रक्षा करने के लिये उत्पन्न हुए। वे हिन्दुत्व के नाते सिकखों की सहायता करते थे। यह सब उनकी चाणी से स्पष्ट होता है। जिस समय फरुखसियर ने भेद-नीति का अवलम्बन करके माता सुन्दरी को अपने पक्त में मिला लिया' और उससे एक पत्र सिक्खों को लिखवाया "कि बन््द्रा गुर चनना चाहता हैं”? । सिक््खों ! तुम इस का साथ मत दो । माता सुन्दरी के पत्र को पढ़कर सिकक््खों ने वन््दा से कहा--अम्रत छक् कर आप 'पंच ककार ( केश, कंघी,, कृपाण, कड़ा; कच्छा ) धाण कर लें 'नहीं तो हम आपका साथ छोड़ देंगे। यह सुन वीर वैरागी ने 'निर्मीक होकर. उत्तर दिया-- “ऐ सिक््ख बहादुरो ! वीरता में तुम भारत बे में सबसे बढ़ कर हो, किन्तु जितनी तुम लोगों में चीरता है. उतनी
हो अदृरदर्शिता। तुम लोगों ने ही आनन्दपुर में अपने गुरु गोबिन्द्सिह का साथ छोड़ दिया था ।उस समय तुम लोग न नो शुरु-पुश्रों की रक्षा कर सके ओर न ही शुरु-पत्नी की । तुम लोगों ने श्रव तक किया ही क्या है? होंगुरु के साथ विश्वासघात करके अपने प्राण अवश्य वचाए ऐहैं। में तुम्हारी भोंनि
शुरु का शिष्य नहीं बना। फिर भी गुर के पुत्रों के दत्यारों फा मैंने सर्वनाश कर दिया। में सिख नहीं, एिन्दू हूँ और हिन्दू
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होते हुए भी सिक्ख राज्य की स्थापना कर रहा हूँ। मैंने हिन्दू" धमम की रक्षा फे लिये ही माला छोड़कर क्ृपाण हाथ में ली है। धम के लिये में जी रहा हूँ और धम के लिये ही मरूँगा। गुरु गोविन्दर्सिह जी ने भी मुझे सिक्ख नहीं बनाया और तुम सिक्ख बना रहे हो। में पूछता हूँ क्या हिन्द ओर सिक््ख एक जाति के नहीं । हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये गुरु नानकदेव श्रौर गुरु गोविन्दर्सिह का जन्म हुआ । क्या तुम. सिक्ख मत को हिन्दू जाति से.प्रथक् सममत्ते हो ? यदि तुम इस समय मेरा साथ छोड़ दोगे टो आज तक की सारी विजय धूल में मिल जायेगी और बाद में तुन्हें पछताना पड़ेगा |” ये थे बोर चैरागी के शब्द, इनसे पता चलता है कि बन्दा की हिन्दू धर्म पर कितनी अगाघ श्रद्धा थी । यद्यपि अदृरदर्शी सिक्खों ने आखिर में उत्तका' साथ छोड़ दिया। परन्तु वीरवैरागीने अपनी ओर से कोई ऐसी ग़लती' नहीं की । बैरागी तो राजा चनकर भी बेरागी ही रहा । जिस प्रदेश को वह जीतता उसको किसी न किसी सिक््ख या हिन्दू के अधिकार में कर देता था। वह अपने पास कुछ भी नहीं रखता था। विजित प्रान्त दूसरों को सॉप कर स्वयं ईश्वर-सक्ति में लीन रहता था। यह इस वीर का अतिदिन का काम था।- वीर वैरागी ईश्वर में आस्था रखता था ओर उस ईश्वर की: प्राप्ति का साधन एक मात्र हिन्दू धर्म को समझता था। इसलिये: . हिन्द धर्म के विरोधी मुसलमानों से वह अधिक चिढ़ता था ।* परन्तु अपने धरम की रक्षा न कर सकने वांले हिन्दुओं को भीर-
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वह बहुत बुरी तरह फटकारता था। एक समय की बात है. कि . वीर बैरागी अपने सुसराल मंडी राज्य से गुरदासपुर की ओर आ रहा था। रास्ते में एक आदमी ने सूचना दी कि महाराज बकरीद का दिन है इसलिये मुसलमान एक गाय का बध करना चाहते हूं । मद्दात्मा चन्द्र ने गो की रक्ता के लिए बहों सिख को जो कि संख्या सें एक हजार के क़रीब थे, भेज दिया और अपने आप स्वयं पेड़ के नीचे बेठा रहा | इधर मुसलमान ने गाय का काम तमाम कर डाला था। वस सो-बध का समाचार पाना था कि वीर बन्दा की क्रोपाप्मि भड़क उठी। उसने गो-हत्या करने वाले समस्त ग्रामीणों को भस्म जलाने दी आज्ञा दे दी। इतने में उस गाँव में रहने वाले हिन्दू आकर प्रार्थना करने लगे कि महाराज सारा गोंव जलाने से तो हम सारे हिन्दू भी जल कर मर जायेंगे ? इस बात को सुनकर बोर बन्दा बोले--जो हिन्दू होकर गो के पाणों को नहीं बचा सकता वह हिन्दू फैसा । वह तो हिन्द जाति के लिए एक प्रकार का कलंक है । चाहिए तो ऐसे कि सिस स्थान पर एक भी हिन्दू रहे उसके सामने गी माता का बंध कदापि न होने पाए। किन्तु मुझे आध्व् है कि तुम हक्ारों हिन्दुओं के होते हुए भी एऋगी के प्राण नहीं बच सके। गो माता की रक्षा के लिए तुम मर क्यां नहीं गये । कायरों ! , छुसने हिन्दू जाति को कलंकित कर दिया ई। न्याय की तो यद्ट
आज्ञा है.क्ि हत्या करने वाले ओर हत्या फो देखने वाले दोनों को ही दण्ड देना चाहिये। इतना कह कर उन्होंने उस गांव पे
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हिन्दू स्रो और व्चों को बाहर निकलवा कर समस्त नगर को फूँक डाला । इस कार्ड के वाद बन्दा बहादुर ने पंजाब के सारे प्रान्त में इस बात की घोषणा कर दी कि जिस गाँव में भी गो-वध होगा उसे जलाकर राख कर दिया जायगा। इस घोषणा का प्रभाव यह हुआ कि वन्द्रा के जीवन-काल में प्राय: गो-हत्या नहीं हुई ।
चीर बन्दा हिन्दू धर्म की रक्ता करना अपना सर्व-प्रथम कत्तेव्य सममता था। इसी कारण उस समय का यह सबसे बढ़ा महा- पुरुष था जो जाति और घम के लिए जन्मा और मरा। किसी जाति के जीवित रहने का एक ही चिह्न है कि उसमें समय समय पर महा पुरुष जन्म लेते रहें । महापुरुषों का यही एक लक्षण है कि वे जाति में नवजीवन का संचार कर देते हैं। जिस जाति में पिरकाल तक कोई महापुरुप जन्म न ले, समझ लो कि वह अब सृतप्राय है | हिन्दू जाति काही यह सोभाग्य है. कि उसमें राम और ऋष्ण जैसे महापुरुष जन्मे हेँ। किन्तु ये महापुरुष आज से हज़ारों वर्ष पहिले अपनी कीति अजर अमर कर चुके हैं। ईसवीय शताब्दी या विक्रमी संवत् प्रचलित होने के बाद राम कृष्ण जैसा शक्तिशाली महापुरुष तो कोई नहीं हुआ | फिर भी अनेकों ही ऐसे व्यक्ति हुए जिन्होंने हिन्दू सभ्यता और हिन्दू आदशे को फिर ज्यों का त्यों स्थापित रखने का यत्न किया । उन जाति-रक्षकों में वीर जन्दा भी एक असाधारण व्यक्ति था। यह वीर अपने जीवन की प्रथम... अवस्था में. एक - अद्वितीय 'शिकारी , राजपूत था +
छ
[. २७ ] दूसरी अवस्था में तपस्या करने वाला सब-देश प्रसिद्ध बेरागी ओर तीसरी अ्रवस्था में मुग़लों से टक्कर लेने वाला कुशल सेना- 'पति और शासक तथा अन्तिम अवस्था में अत्यन्त सीपणए आप- दाओं का सामना करने वाला अमर शहीद । हिन्दुत्व की रक्षा के निमित्त उसने वैराग्य धर्म को छोड़ कर राजधर्म का अवलम्बन 'किया। निवृत्ति मागे का अथ अपने लिए मुक्ति या शान्ति प्राप्त 'करना है। संसार में वहुत से ऐसे मनुष्य विद्यमान ६ जो भरवृत्ति मार्ग की अपेक्षा निवृत्ति मागे को अच्छा सममभते हैं। किन्तु यदि समाज, देश, ओर जाति संकट में पड़े हों ओर वे किसी रक्षक की तलाश में हा तो श्रेष्ठ मनुष्य का यह कतेव्य हो जाता है. कि वह इस समय अवृत्ति मागे का अवलम्बन कर शरणार्यियों की रक्ञा करे। व्यक्तिगत उन्नति को त्याग देवे। यदि जाति के लाखों करोड़ों मनुष्य विपत्ति के सागर में डूब रहे हां तो उस समय जो व्यक्तिगत 'उन्नति करता है वह जाति का सबसे बड़ा शरब्य है। स्वामी दयानन्द जी ने भी यही किया। वे यदि केबल अपनो उन्नति करना चाहते तो थोग द्वारा परम पद की प्राप्ति कर सकते थे 'परन्तु उन्होंने देखा कि जाति अंबेर के गते में गिरीजा र
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'है। ईसाई धमम का प्रचार बढ़ता जा रहा हैं। इसलिए थे फेयल
व्यक्तिगत स्वाथ की शझरे प्रवृत्त नहीं हुए । अपितु घर शोर जानि पका उद्धार फरने फे लिये मेंदान में कूद पढ़े ।
यही बात हमारे चरिष्र-नायफ बीर वराग
[ रप ]
कही जा सकती है । मुसलप्ानों ने जब हिन्दुस्तान पर विजय आप्त कर ली तो विजेता मुसलमान अपने रीति-रिवाजों को हिन्दू जनता में प्रचलित करना चाहते थे। इनका आचार-विचार टू धर्म के बिलकुल विपरीत था। यद्यपि मुसलमानों की संख्या हिन्दुओं की अपेक्षा बहुत कम थी, फिर भी हिन्दुओं के मुकाबिले पर मुसलमान अधिक बलवान थे। इसका विशेष कारण यही था कि मुसलमान लोग अपने नेता पर विश्वास अधिक करते थे तथा उसके आदेश को सानना अपना परस कतेव्य समझते थे। इधर हिन्दुओं का न तो कोई धार्मिक नेता था और न कोई राजनैतिक गुरु, ऐसे प्तमय में वीर वैरागी ने हिन्दू जनता का नेढत्व किया ) पहिले” पहल तो बैरागी पर किसी को विश्वास न था। स्वयं सरहिन्द के नवाव ने भरी सभा में जिसमें सिक्खों को संख्या अधिक थी बड़े घमण्ड से कहा--तुम्हारे एक गुरु की तो यह दशा हो रही है कि वह सारा-मारा फिर रहा है। अब एक नया आया है उसकी भी ऐसी खबर ली जायगी कि वह कहीं का न रह जाय | नवाव ने वैरागी को शक्ति.को ठीक तौर से नहीं पहचाना । बेरागी के अन्द्र: अद्भत विद्यत-शक्ति थी । थोड़ी सी सेना की सहायता से भी यह स्वयं अपने विपैले वाणों कीं ऐसी वर्षा करता कि शत्रु के छक्के छूट जाते | वैरागी जिधर जाता उसका सामना कोई नहीं कर सकता” था। इतना सब छुछ होने पर सी अपने जीवन-काल में ही बेरागी का राज्य, स्थिर न रहां। इसका मुम्य कीरंण यही थो कि'बार
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( #६
वार विजय प्राप्त कर लेने पर भी इसके हृदय से वैराग्य-भाव पूर्ण रूप से नहीं निकलने पाया था। यह विजित प्रान्तों को ऐसे लोगोके सुपुदे करता था जो इस कार्य के योग्य ही न होते थे। यदि शासन की वागडोर वैरागी अपने हाथ में रखता तो सम्मव था कि पंजाब में एक-छत्र हिन्दू राज्य कड्टे वर्षों तक स्थिर रहता । जब इसे कोई आक्रमण का भय न रहता तो यह पहाड़ों की ओर भजन करने के लिए चला जाता । युद्ध का समय इच्धिय-दमन का नहीं होता । इसलिये युद्ध से निवृत्त होकर भक्ति के प्रभाव से डद् वेलित होकर इन्द्रिय-दसन के लिए वे एकान्त स्थल में ब्रेठ जाता । वास्तव में वीर बैरागी सन््यास और कर्म-बोग दोनों का अचलम्बन किये हुए था। युद्ध के समय धर्म के लिए लड़ना दूसरे के प्राण ले लेना था अपने प्राण दे देना ही ऋमे-वोग है. ओर यही समन््यास है । यद्यपि परिभाषा तथा स्वरूप से सन््यास कार कमेयोग दोनों ही भिन्न २ हैँ, परन्तु लक्ष्य दोनों का एक ही ६ सनन््यास का साधारण अर्थ त्वाग ईं--अतः इवतें हए देश झोर जाति के लिए प्राण दे देना सबसे बढ़ा त्वाग ६€। इस पदेश्य को लेकर जो मनुष्य कम-मा्ग में अवृत्त होता है. जाति का पथ- प्रदर्शक बनता है उसे हम पूर्ण कर्म-योगी कट़ेंगे। बीर बैरामी अपने समय में तुफान की भोंति आया ओर विरोधी बादलों रो नए-अप्ट करके सदा के लिये प्पनी कीरति झजतर अमर फर गया।
जे समभ्का
इसके समरस्यल में उतरने पर हिन्दुओं ने समझा कि उनको पचाने दे
[ ३० ] “लिए ईखर स्वयं चैरागी के रूप में अवतरित हुआ है। यह अधर्म ' का नाश और घर्म की स्थापना करेगा । यही कारण है कवि सिक््खों के अतिरिक्त सैकड़ों हिन्द नवयुवक अन्तिम समय तक बैरागी का साथ देते रहे। वह लूट सार का ज्ञमाना था। अनेकों दल ' पहाड़ी कन्दराओं में छिपे रहते ओर आस पास के गोँवों से लूट मार कर अपनी आजीविका करते। जब वैरागी ने अपने सिपा- 'हियों को स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि लूट का माल लुटेरों का अपना - होगा, तो सारे का सारा लुटेरों का दल उसकी सेना में सम्मिलित हो गया। यद्यपि वीर वैरागी का उद्देश्य लूट मार करमा न था । ' किन्तु यदि बरागी लूटेरों को अपना न बनाता तो उसके पास और कोई चारा ही न था कि एक विशात्न सेना का संगठन कर सके । “यदि लूट का माल वैरागी स्वयं ही अपने आधीन रखता तो 'सम्भव था कि उसके सिपाही इतनी वीरता से शत्रु का सामना न करते। सेनिक्रों के हृदय में एक ही धारणा थी कि हम अपने 'वास्ते लड़ रहे हैं। इधर सैनिकों के मनोरथ परे हो रहे थे तो उधर हिन्द धर्म की रक्ता तथा गुरुगोविन्द की आज्ञा का पालन “हो रहा था। इस प्रकार विना पैसे के, बिना किसी की सहायता ने अपनी प्रतिभा और दरदर्शिता के कारण वीर बहादुर अपने -कार्य में सवंधा सफल ह। इतना ओर स्पष्ट कर देना हम अनुचित नहीं सममते कि बैरागी के सभी साथी लुटेरे न थे। कुछ व्यक्ति ऐसे भी थे जो निःस्वाथ भाव से वीर बहादुर का
[ ३१ )ै
साथ देते थे । वेरागी की भाँति कई हिन्दू तथा सिक्खों की यह: निःस्वार्थ भावना थी कि वे हिन्दू जाति के रक्षक की सहायता करें | ऐसी निःस्वार्थ भावना वाले कतिपय हिन्दू तथा सिक्ख सिपाही अन्तिम समय तक अर्थात् फरुंखसियर द्वारा किये गये हत्याकाण्ड तक वैरागो का साथ देते रहे। वीर बहादुर अपने घोड़े पर सवार होकर एक मात्र धनुष का सहारा लिए दुश्मनों का सामना करता था| बादशाही सेना के साथ तोपे भी थीं परन्तु उस बहादुर ने आग उगलने वाली उन तोपों का जबाब अपने वाणों से दिया । युद्ध समय घनुप-वाण चलाने में उसका हम्त-फौशल देखने योग्य होता था । पतञ्ञाव के इतिहास-लेखक मुहम्मद लतीफ ने श्रपनी पुस्तक 'पम्ञाब के इतिहास! में वैरागी फे विपय में इस प्रकार लिखा है कि इसने सहस्रों मुसलमानों का बध क्रिया, मस्निदें ओर खानकाहे मिट्टी में मिला द्ीं। घरों में आग लगादी ओर स्त्रियों तथा बच्चों तक की हत्या कर हाली। लुधियाना से लेकर सरहिंद तक समस्त प्रदेश सफ़ा कर दिया । पहिले पहल इसने सरहिंद पर चढ़ाई कर गुरू गोयिन्द- सिंह के चर्च्चा के प्रतिकार रूप में सारे नगर को ग्राग लगा दी। बालक या स्त्रियों का कोई विचार न रखते हुए सब नगर- वासियों को फ़त्ल कर डाला। मृतकों को कबरों स निकाल कर चीलों और कब्चों को गिलाया। सारांश वह कि जहों कही बा गया तलवार से हो काम छिया। इसी कारण मुसलमान इसे साछान यम-
० कक १३७० कक 0 राज़ कहने लगे। सचमुच ६। श्नूस पृत्र काई इन्दू राजा, लटाए
[| १२ ] '
था लुटेरा ऐसी सख्ती से काम लेने वांला नहीं हुआ | यद्यपि हिन्दू वीरों ने अपने शब्॒त्रों से बदला तो कई बार लिंया, किन्तु वैरागी का प्रतिकार लेने का ढंग अन्य हिन्दरओं की अ्रपेज्ञा कठोर था | इस सख्ती का कारण यही था कि जिन लोगों से वैरागी की टक्कर हुई उत्तका भी तो हिन्दुओं के प्रति बहुत बुरा वर्ताव थां । उन्होंने गुरु तेगवहादुर जैसे वृद्ध पुरुष की हत्या की। गुरु गोविन्द के छोटे २ चालऋ जीते जी दीवार में चिनवा दिये | बालक हकीकत- राय का मामला अपने सहपाठियों के साथ मेगेड़ने से चरम सीमा तक पहुँचा दिया । काज़ियों ने हकीकत को मुसलमान न बनने पर क़त्ल करा दिया। हिन्दुओं की छुछ परवाह नकी। इस दृष्टि से यदि बैरागी ने मुसलमानों के साथ कठोरता की तो कौनसे आश्वये की बात है । स्वयं बेरागी के साथ फरुखसियर ने क्या कम कठोरता की |
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बैरागी यद्यपि साधुं था, पर ऐसा वीर नेता भारतवषे में 'पहिले कभी नहीं हुआ | इस थोड़े से समय में जहां कहीं युद्ध होता रद्दा उसमें प्रायः बेरागी के व्यक्तिगत वीरता के कारण ही विजय द्वोती रही. । ज्यों ही थोड़े समय के लिए वह अजुपस्थित “होता मुसलमान फिर उठ खड़े होते और सिक्ख इधर उधर भागेर फिरते | जब वह युद्धकी कमान फिर अपने हाथमें लेता तो अवस्था सुधर जाती। इसमें सबसे बड़ी विशेषता एक यह भी थी कि इतनी विजय ग्राप्त कर लेनें पर भी उसने अपना साधु-वेष नहीं छोड़ा ।
9 5॥
“आवश्यकता पड़ने पर ही वह युद्ध-क्षेत्र में उतरता, अन्यथा ईश्वर- भक्ति में लीन रहता था । इस संसार में वह कमल-पत्र के समान निर्लेप रहा । विधर्मी वीर सैनिकों को जीतने में सफलता प्राप्त करने 'के लिये सबसे बड़ी वात उसमें यह थी कि उसने अपने जप-तप से समस्त इन्द्रियों तथा अपने सन को भी वश में कर रखा था | शान्त और वीर रस की विरोधी पद्धतियों पर चलता हआ
-भी-यह बहादुर दोनों में अपूव सफलता ग्राप्त कर गया यह उसकी 'अलीकिकता ही तो है।
धर्म-वीर हृकीकतराय
: चैदिक काल से लेकर आजतक के' भारतीय इतिहास, पर विहंगम दृष्टि . डालने से पता चलता है. कि इस धम-प्रधान देश. भारतवपष में कई ऐसी मद्दान आत्माएँ हो चुकी हैं जिन्दोंति धमे. फी रक्षा फे लिए अपने प्राण तक भी न््यंछावर फर दिये हैँ ।; मु ने धर्म के दश लक्षण किये हैं । उन सब में से कोई किसी पंशः का पालक हुआ तो कोई अन्य क्ा। जिस प्रकार सत्य धर्म फे पालक: हरिश्चन्द्र, दान तथा घम के. पलि, कण और शरणागत-रक्षकू, महाराज शिवि झादि हुए हैँ, उसी प्रकार देश सथा-जाति फे. परिपालक शिवा, मद्दाराणा प्रताप आदि अपने नाम फो धज्नर. अमर कर चुके हैं। बसे ही हिन्दु धर्म की मयादा- पर मर मिटन वाले वीर हकीकतराय का नांस दम कभी नद्वीं भूल सकते | अपनी: जाति तथा अपना घमम किसको प्यारा नहीं. किन्तु उसछी मर्चादा- पर मर मिटते वाला लाखों में से फोई एक ही होता है । इस नश्वर शरीर से लाभ ही क्या यदि वह किसी अच्छे कार्य में. काम: न आये। फिर दृकीकृतराय की चिरोपता इस बात में है फि बह अभी बालक है. पाठशाला में पहिलो था दूसरी शणी में पढ़ता है.। जब उसके पृथ्य, देवी देवताओं को मुसलमान छात्रों द्वारा अपमानित किया जाता हैं तो हसदी धार्मिक भाष- नाएँ उत्तेजित दो उठती हैँ । बदू उनके द्वारा किये गये अप- मान फो सहन नईदीं फर सदछता और उप-चाप तन बैठ कर इंट का - उत्तर पत्धर से देता है। क्या यह महान घात्मा दा लख्गा नदीं? उस दोर वालक के भीतर सामान्य प्राशियों की फ्पेदा एक प्रद्ञोक्िक शक्ति झांह रही थी। नोति छा बाक््य ६ कि
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“नहि तेजल्िनां क्यः समीझ्यते” अर्थात् तेजस्वी पुरुषों की श्रवस्था नटों देखी ज़ञ,ती । गुरुंगोविन्द जी ने नौ वर्ष की अव- स्था में: अपने पिता तेग़बहादुर जी से' कहा था $ि--“पिता जी ? हिन्दू ध्म की रक्षा के निम्मित्त यदि आपको ऊात्मबलिदान भी करना पढ़े तो कोई हानि नदीं? । अन्त में वही हुआ । बालक के अदम्य उत्साह को देखकर गुरु तेशयहादुर मुम्नल सम्राट ऑरस्प्वलंग्रेव के हाथों घमें पर बलिदान हो गये। गुरुगोविन्द्र जैसे अद्वितीय घमेवीर थे वैसे ही उनके नौनिहाल यात्रक भी हसते-हँसले धर्म धर शाह्वीद हो गये। इन बीर पुरुषों
देदय से देश जाति और घर की सश्थी लगन थी। गीता में भगवान् क्णचन्द्र युद्धसे विमुख हुए शजुन को ललकारकर साव- धान करते हैं--“स्वधर्मे लिधन अंग: परधर्मो भयावह:” अर्थात अपने घमर पर मर-सि० जाना भी सर्वोत्तम है, किन्तु भयदायक दूसरे के घर को स्वीक्षार करता अच्छा नहीं। ]
' घरमवीर हकीकतराय के पिता का नाम लाला भायमल' था । यें स्यालकोट के बड़े प्रतिष्ठित व्यापारी थे |. परन्तु कई लोगों के मत में ये कोई अतिष्ठित सरकारी नौकरी करहे थे।. सारे स्यालकोट' में इनकी वरूयाति थी + खवंगरुणसम्पन्ना : इनकी एक पतिव्रता स्त्री थी, जिसका नाझ कौरां था। इसी फौरां के गर्भ से वि० सं० १४०२ में पीर हकीकतराय का.जंन््म हुआ |: धनी मा्य-फ्ति! का यह इकल्वैत्ता:देटा था । इसलिए - इसके लाड़-प्यार में उन्होंने कोई कसर न.छोड़ी ) श्रभी बालक हकीकत की- शिक्षा प्रारम्भ ही हुई थी कि माता पिता ने एक प्रतिष्ठित सिख परिवार में इसका विवाह कर दिया। प्रेत्नवधू का नाम लक्ष्मी था।' तंद्मी अपने: नाम के अनुसार सचमुच द्वी.लदमी थी ।:- पुत्रवधु के
का
आगमन पर लाला जी अत्यधिक प्रसन्न हुए और उन््दंने अपनी धम्मेपत्नी कौरां के साथ आनन्द-मग्न होकर दीन-अनाथों सें प्रचुर श्रन्न-पस्त ओर धन बांटा | इस प्रकार बढ़ी खुशी के साथ वालक हकीकत का विवाह संस्कार समाप्त हुआ | भागमल और माता फौरां पृश्न और पृत्रवधू का मुख देखकर अपने आपको चहुत ही धन्य मात रहे ये कि अ्रचानक इस आनन्द-सागर की परिधि दुःख के ज्ितिजञ पर समाप्त हो गईे। घालक हकीकतराय ने धर्म पर घलिदान
होकर अपने नाम के साथ माता-पिता के ताम को भी श्रज्षर अमर कर दिया। परन्तु भाग्यवश भागमल शऔर कौरां को जीवन पयन्त पुत्न-वियोग का असह्य टुःख सहना पढ़ा |
'« बास्तवमें बात यह थी कि जिस पाठशाला में हकीकतराय फो शिक्षा
दिलाने के लिये प्रविष्ट किया गया उसमें अधिकतर मुसलमान लड़पे;
ही पढ़ते थे। शिक्षक भी मुसलमान मौलवी था। इन दिनां
उत्तर-पश्चिम भारत में मुग़लों का राज्य था। मुसलमान शासक
सनमाने श्वत्याचार हिन्दुओं पर करते थे । श्रागे न्यायालयों में
भी उनकी ही सुनवाई होतो थी | इसलिए उन लोगों का उत्साह बढ़ा हुआ था| वालक हकीकत पढ़ने-लिखनेसें बहुत चतुर था। इसका
जन्म एक आदश हिन्दू परिवार में होने के कारण यह पाठशाला मे
घड़ी शांतिसे रहता। किसी से लड़ाई दंगा नहीं करता तथा झपने धध्या- पक की धाज्ञा का हृदय से पालन करता था। मुल्ला साइव भी धस
पर श्रत्यधिक प्रसन्न थे (प्शलु मुसलमान छात्र हफीकत फो देख
फर मन दी मन में छल्ला करते थे। एक दिन नौलयी साहब
चादर चले गये और पाठशाला छे छात्र झापस में कगदने लंगे।
फेवल इकीझतराय ही शान्त-चित्त होकर झपनी पुस्तद पद गद्टा
रू ॥५
६2 कल्प हार नमक एप कम्म्वक- अमगऊ सत्पा " ४ के (। उप्तको इस प्रकार पदते हुए देख इष्यान मुसलमान हां से
च्कत
[६ हू शपस में सलाद की कि यह काफिर हकीकतराय दिन भर पंदता रहता है। हमारी ओ्ेणी में सबसे प्रथम रहता है और इसी कारण हमारे ऊपर मुल्ला साहब भी नाराज़ रहते हैं.) यढ़ि किसी प्रकार से इसको यहाँ से निकलवाया जाय तभी अच्छा ही ! शाखिर सबने एकमत होकर हकीकत को छेड़ना आरम्भ. कर दिया। पहिले उन्होंने उसको खेलने के लिए कहा, किन्त अनसुना वह पढ़ने में ही लगा रहा। मुसलमान लड़के और हकीकत _ अपनी हूटठ पर शड़े रहे। अन्त में दोनों ओर से गाली-गलौच. शुरू हुई । ह है अब्दुल्ला नामक एक मुसलमान लड़का हकीकत को घसीटने
लगा । अन्य लड़कों ने भी उसका साथ दिया। घमम-घुरीण हकी- कत के मुख से निकल पड़ा कि 'दगों माता की कसम में आज नहीं खेलूँगा | मुझे छोड़ दो | यह सुनकर एक लड़का बोल पड़ा-- ऐसी वैसी तेरी दगी माता की। वीर . हकीकत ने उनकी तरह अपने मुख से श्रपशव्द न निकाल कर चेतावनी दी--'देखता+ अरा ज़बान सम्भाल कर घोलना। यदि मेरी दुर्गा मवानी को अ्पशब्द झंहोगे तो ठीक न होगा। में भी तुम्हारी रसूल ज्ञादी
फ्रातमा फो अपरशब्द कहँँगा। कितने अच्छे विचार थे उस बालक के, जो कि अपने साथियों की गाल्ियों को ज्दर के घूट की तरह पी. जाता है ओर झागे के लिए उनकी सावधान करता है।. यदि झगड़ा जान-बूकत कर किया जाय तो उसको कोन रोक सकता, है ।- आखिर फिर उन्होंने देवी दुगों को बहुत बुरी २ गलियां दीं ठो हकीकत से भी चुप्न रहा. गया । उसने भी रखूंल ज्ञादी फ़ावमा को जैसी-ही गालियां दीं। सौकोवों के .वीच .में. शक इंस की क्या चले सकंती दे । सब लड़कों ने उस अकेत्े
[| ]
-हक़ोक़त की बहुत पीटा | थोड़ी देर के दाद जब म॒ुल्ला साइब आये सब बतावरण शान्द हो यया। उन्होंने लड़कों को डॉट कर पृषठा क्यों रे क्या चात है ९--
सब्र लड़कों ने मिलकर फहा-यदहद शरारती हकीकत रसूल ज्ञादी को गाली देता है। प्रत्येक जाति अपने-अपने देवताओं की इज्जत फरती है। मुसलमान जाति रखूलज्ञादी को प्धिक आदर के साथ पूजती है। सुल्ला साइव न जघ उसका नास स॒ना तो वे भी हक़ीक़त पर खूब घिगढ़े । गुस्से स त्मतमाए हुए थे पूछने लगे--क्यों रे हफ़ीक़तत क्या यह घात सच है ? डर्कीकतराय ने विनोत भाव से फहा कि--मुल्ला साहथ पहिलते ' इन्होने हो हमारी भवानी को हरामज्ञादी कहा तो मेने भी कह दिया कि यदि तुम मेरी सवादी को हरामज्षादी फद्दते होतवो में भी तुम्हारी रसूलज्ञादी फ़ातमा को हरामज्ञादी कद्दता हूँ। मुन्ना ' ले फिर लड़कों से प्रश्न किया; किन्तु उन्दनि हृफ़ीक़त को सरासर भूठा सिद्ध कर दिया। समुदाय घलवान छोता है । फिर अन्ध- विश्वासी मुसलमानों में इसनो दूरदरशिता कटों जो सत्य फा निर्णय फर सके। थे लोग तो इस्लाम घमे के पामने संसार भर के सारे धर्मो को तुच्छ सममते थे। लड़कों फे फहने पर मुझा ने- ह॒फ़ी- क़तराय को सुलेमान काज्ञी के. सामने पेश कर दिया। काफी साहब मुल्ला से भी चह कर निकले। क्योंकि बढ तो अपने श्रापको इस्लाम धर्म फा ठेकेदार ही समझते थे। फ्राज्ञी साहब ने फचहरी घुलाई। सव फर्मचारोी मुसलमान अपने + स्थान पर बैठ गये। तब काज्ञी साध्य ने एक्कीक़नराय, मुन्ना घोर पाव्याला के सभी छात्रों को घुलाया। सुल्ला और लड़कों ने हफीकमत के '_.रिरुद्ध कई बातें झद्टी, रसलकादी के श्रपमान का. प्रश्ष था ।
[ र |]
काज़ी आपे से बाहर होकर दृक़ीक़त को डॉटने लगे। मुल्लाने ' सिर झुका कर कहा कि हज्र मेरे मदरिस्से में कोई भूठ नहीं योलता और यदि कोई बोले तो उसको आपके सामने ला खड़ा कर देता हूँ। फाज़ी ने मुल्ला की बढ़ाई करते हुए कहा विल्फुल ठीक है । मुल्ला साहब मुझे आप से यही उम्मीद है। नेक आदमी ऐसे ही होते हैं। मुझे पूरा यक्रीन है कि इस वदमाश ने अवश्य ही हमारी रसूलज़ादी की वेइज्ज़तो की होगी । में इसको श्रवश्य दण्ड दूँगा। इक़ीक़त राय ने प्रार्थना की कि मेरी भी बात सुन ली जाय, किन्तु वहों तो अपना राज्य था ओर हिन्दु धर्म को मिटाने का एक मात्र बहाना था। भन््यायी काज्जी ने शआाज्ञा दे दी कि इसे कफ़ैद कर लो। वस आज्ञा की देरी थी पल भर में असद्दाय 'घालक को हथकड़िया पहना कर कारागार में डाल दिया। उस समय हकीकत ने जो बचन कट्दे उसको बड़े २ ज्ञानी भी नंदीं कह सकते । इस वीर वालक की आत्मा बड़ी पवित्र थी। वह कहता है-- फ़क्नत है फ़क़े लफप्ज़ों का असलियत एक है. लेंकिन । महादेव हिन्दुओं का जो वही अल्ला अफबर है॥ मुघारिक्त आप को हो मुहब्बत दीन अपने की। मुझे अपना धर्म प्यारा जान अपनी से बढ़कर है ॥। 'मदीना क्वावा काशी है झोर काशी मदीना भी। ने वह स्थान ईश्वर का न वह अल्लाह का घर है ॥ ' यहाँ पत्थर 'वहाँ पत्थर न पत्थर से बचे तुम भी। वहाँ पर -संगे असवद है यहाँ” पर संगेमरमरं है॥ इस खुदा और ईश्वर की एकता के-चरणन से काज़ी साहब ' को प्रसन्न होना चांहिए था; परन्तु हुआ इसके विपरीत ।
[ ६ ]
: इधर घर में माता कोरों ओर भागमल हफ़ोक़्त-की चार 'देख रहे थे। कोरां मे कद्दा आज बड़ी देर हो यई । हकीकत अभी सक घर नहीं छोटा ।-भागमल सी. पुत्र फी ऐेखने फे लिए उत्सुक हो रहा था, स्री को क्या उत्तर ऐ-सकता। इससे में ध्यालकोट फे घनी चांदमल के लड़के मे 'लो कि इफ़ीकृत का सहपादी था! झाकर सूचना :दी कि रसूल ज्ञादी फादमा फो भाह्ली ऐने के फारण
. का ने हकीकत को क़ैद कर लिया है। प्राण-प्रिय पुत्र फे फ्रेद : होने फा समाचार सुन्र फोरां पछाड़ खाफर भूमि पर गिर पढ़ी। भागमल्त भी सोच में पढ़ सया। उसको विश्वास हो गया कि श्स पध्यन्यायी रियासत में श्रघ पृत्र का सहसा छूटना फठिन है । फिर भो उसने पुत्र को मुफ्त फराने छा यत्न किया। सारे घर में शोक छा गया । -हन्नीक़त की स्त्री लक््मी भी अपने पति के छूट ऊाने फे लिए पार्चती-डी फी पूता करने जगी | इधर कैद में पढ़े बोर बालक फो सरद तरए के फ्ट दिये गये उसको विवश किया गया कि पद इस्लाम घर को महण कर ले । परन्तु ध्दम्य उत्साहिी घाहुक ने फ्त कि चाह प्राण चले दी जय पर में अपने धमम को नहीं छोड़. गा। मुल्ला और घन््य गवाहों से जर इक्ीक़त को भूठा साबित फर दिया तो उससे - फ्टा--थदि से
भूठा हैँ और आपके गयाद सच्चे हैं तो-- “परवाह नहीं धसे पर घल्िदान हो जाके; 'सिस्ता नहीं यदि साहा फे शुभ सम ध्माझ ॥
अन्त में फाक्नो ने ज़बदस्ती हफ़ीकत के मुन्धस अफरने झार फो दोपी कहलूवा दिया। साथिया सी नियम सना दिया छि इध्लाम की तौहीन करने वाले फो मौन फ्री सझा दी मिलनी भाहिए!
हों यदि वह झरने धरे को छोद कर हस्लाम धर्न से स्पीर
[ ९० ]
कर ले तो जीवित रह सकता है अन्यथा नहीं। काज़ी ने एप मार फिर हक़ीक़त से पूछा-क्यों हक़ीक्रत ? तुमे इस्लाम धर स्वीकार है? उसने उत्तर दिया--नहीं नहीं, कदापि नहीं, में हिन्दू है । सशा हिन्दू हूँ। में मानता हूँ कि खुदा और ईश्वर एक ६, पर यदि ठुम खुदा को अलग सममते हो तो में भी ईश्वर 'को खुदा से अलग मानता हूँ। तुम लोग खुदा-परस्त बनकर हिन्दुओं से घृणा करते हो तो में भी तुम लोगों से उसी प्रकार 'घृणा करता हू । .. छृफ़ीक़त की बातों को सुनकरं काज़ी जल-झुन सा गया और 'हसने उसे मृत्यु-दण्ड सुना दिया। न्यायालय में बैठे हुए लाला भागमल ने काज्ञी साहब के पाँच पकड़ लिये। पिता ने पुत्र की प्राण-रक्षा के लिये छ्षेमा याचना की। काज्ञी अपनी ज़िद पर श्ड़ा रहा, यदि यह इस्लाम धम स्वीकार करले तो इसकी प्राण-रक्ता 'हो सकेगी अन्यथा नहीं। पुत्र-वात्सल्य के कारण 'माता पिता ने -हफ़ीक़ृत राय को सममाया कि इस्लास धमम स्वीकार कंर'ले, तुम्दारे प्राण बच जायेंगे। चीर बालक ने अपने माता-पिता को “भी समझाया कि धर्म के किये बलिदान द्वोना मेरे लिए यह एंक “सुनहरा अवसर है।. अमर दे आत्मा मेरी नहीं मरंती किसी से, स्वयं पछतायेंगे इकदिन इन्हें अन्याय करने दो |
अन्याय का नाम 'सुर्न कर काज़ी ने कहा कि मु गुस्सा : तों इतना आता है कि तेरी ज्वान निकलवा दूँ परेन्तु इन बूढ़ों ' पंर तरंस' खाकर - तेरी इंस बद-जबानी और .बदंशुमानी पर चुंप रह जाता हूँ। नहीं तो दवाथी के पॉव-तलें तुंके कुचलवा दूँ, इंटों से चिनवा दूँ 'सोंखें निकलवा दू।' योर दृकीकत जे थी तक
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कर कंहा--भाँखें निकलवा लो, दीवार में चिनवा लो/ -जो चोद करो .पर तुम्हारा इस्लाम भी वेगुनाहों को दण्ड देना नहीं “सिखलाता। याद रखो तुम जिसे धर्म समझते दो वह ठोक है. 'पर नलिसे तुम धमम के नाम पर, अपना कम और फज्ञे सममते
हो उसमें तुम्हारी बड़ी भारी भूल है । आखिर काज्ञी साहब मु कला कर उठ खड़े हुए और थोले में इसका निणय नहीं कर सकता | श्रमीर की कचहरी में इसका निर्णय 'होगा । इसको वहीं ले जाओ | अब अमीर की कचहरी में मुफदमा चलेगा । इसलिये हकीकत को फिर जेल में डाल दिया गया। उधर भागमल ओर माता कौरां रोते-पीटते घर फी ओर चल “दिये। चारों ओर मुसलम्ारना का आतह्ूु छा रहा था। फिसी भी हिन्दू ने उसका साथ न दिया। कई शताब्दियों से मुग़लोंफे आक्रमणों ने हिन्दुओं को श्रशक्त कर दिया था। वे लोग निदत्पे हो चुके थे । फिर मुसलमान शासक शासनके सुब्यवस्थित दो जाने “पर मनमाना अत्याचार करते थे । उनके विरुद्ध श्वाज्ञ उठाना ' ड्राणों से हाथ धोना था। इस प्रकार कई दिन बीत गये और १६र के 'बड़े शअधिकारी निर्ज्ञा श्रमीरयेग को कचहूरी की तारीख था पहुँची । कचहरी में छोटे बढ़े अधिकारियों के अतिरिक्त काज्ी पीर मुल्ला साहब भी उपस्थित थे। अभियुक्त दृकीकृत वन्दी के रूप में - खड़ा था। अमोर साहब ने सबके घयान लिए । काडी और सुझा ने अपनी पिछली बातें दुहराई । हकीकत ने अपने आपको निर्देषि दृइ- राया | अमीर ने निष्पक्ष दो कर निर्गव किया कियालरकों के आपसो भगड़े में इस्लाम धर्म क्यों दखल दे । इन्होंने उसको देदी के गालियां दीं तो उसने इनको रसूलज्ञादी को भी वैसा दी फटा । यदि फानून
-ा 5 ऋ - गम अूककल ५ 5
ज्ञागू होताई तो दोनों पत्चों पर. नहीं तो को४ भी ध्यपराधो नहीं । छ्मीर
् रच का हा <> 2 55जफकक २०० “7 अनसार कक जो त्िणेय किया के डाक कट हे र्णान के के अनुसार जा निएझय किया ठोक बद्दे प्रधशसा के
योन््य था। होनहार घात हो कोई नहीं टाल सहृता। धर्म फे चाम पर
हकीकत 'का बलिदान होना था, इसलिए पअमीर के मिरेय पर मुसलमानों ने चिश्षेष-फर फाज्ञी ने आक्षेप किया। काझी ने अमोर
मुस् से कहा कि यदि हकीकत को मोत की सज्ञा नहीं देनी तो चह इस्लास का स्वाफार करल । अनार पर इस दइाजदा का गहरा प्रभाव पट्ठा | उसने दृकीकत को बहत सा ग्लोभन दिया, यहां तक क्नि अपना लड़का से ज्ादा कर दुन का कद) परन्तु हकीकत अपने धर्म पर स्थिर रहा । संसार में सबसे प्रिय वस्तु अपना जीवन है, परन्तु लो जीवन की भी परवाह न करे उप्तको सांसारिक प्रलोभनों से क््या। आखिर अमीरवबेग ने फद्य कि मेरी रकूचहरी से हकीकत राय निर्दोष सिद्ध हुआ; परन्तु अब इसका अन्तिम निणेव लाहीर के नाक्षिम साहय के न्यायालय में द्वी होगा ।
लाहर के नन््यायात्रय की तिथि निधारित दी गई । दोनों पत्तों लोग लाहौर पहुँच गये । घेचारा भायमल चथा कोरां भी तन,
घन से अपने प्राण-प्रिय पत्र को घचाने का प्रयत्त करने
के लिए लाहौर की ओर चल पढ़े। पुत्र-बधू लक्ष्मी को उसके पिता के चर सिजवा दिया, जिससे उसे साथ में कठिनाइयाँ का सामना फग्ना पढ़े ! इश्चर की लीला का कुछ पता नहों चलता । पतिब्रता लक्ष्मी पृज्वय सास-सझुर की आज्ना से पिता के घर जा रही थी कि रास्ते में उसकी अपना प्राशप्रिय पति दिखाई दिया जोकि एक सुराल सिपाही के साथ बन्दी के रूप में जा रह्य था। सिपाही हृदय सम्वन था, उसने हकीकत की सचाई ओर-चीरता पर मुन्ध होकर उसको अपनो पत्नी से मिलने को आज्ञा दे दी । मिलने के अनन्तर सिपाददी ने कहा कवि ऐ नेक लड़के! ल्स.जाचता-हू
| 52
[ ४१३ | कि तू अपराधी नहीं। इस्लाम को बदनाम करने थाला काज्ञी 'ही तेरी मृत्यु का कारण बना हुआ है । यदि तुम चाहो तो इसी 'जंगल में कहीं जाकर छिप जाओ | में काज़ी से अपने आप निपट लूँगा | हक़ीक़त राय ने हँसते हुए कहा--नहीं, नहीं ? मेरे प्यारे भाई ? तेरी दया का मैं आभारी हूँ; पर मैं यहां से भाग कर अपने ओर तेरे माथे पर कलंक का टीका किसी तरह न लगने दूँगा। फुछ दिन घाद अभियुक्त हकीकत राय लाहीर पहुँचाया गया। छोदे २ न्यायालयों की फाइलें तथा अविकारियाँ की सम्मतियां नाज़िम साहब के सामने सिरिस्तेदार ने पदुकर सुनाई । इस्लाम- 'धम का अ्रन्धविश्वासी काज्ी तथा मुल्ला दोनों यहां भी उपस्थित थे। अमीरबेग का निणेय हक़ीक़त राय के पक्ष में था। नाज्षिम ने सिरिस्तेदार को अमीरवेग का निर्णय सुनाने का संकेत छिया। उसने आज्ञा पालन करते हुए कट्टा-हक्ूर ! वे लिखते ऐँ-- “मुल्जज्षिम हकीकतराय बल्द भागमल वाशिंदा स्वालक्नोट जबकि मुलज्ञिम हकीकतराय स्कूल में पढ़ रह्य था नो कुछ मुसलमान लड़कों ने उसे खेलने के लिए कहा, इसपर मुलक्षिम ने भवानी की कसम खाकर खेलने से इनकार किया तो मुलशिम को मुसलमान लड़कों ने मारा और उसकी पृज्या देवी फो द॒रामज्ञादी कहा | इसपर समुलज्ञिम ने रसूलज्ञोदी फ्रातमा को भो दरा-भत्रा कहा | यह मामला साधारण है. । अपराधी दोनों झार से एूँ। मुसलमान लड़कों ने हिन्दू धर्म का अपमान छिया प्रीर हिन्दू लड़के ने इस्लाम धर्म का। नियमाठुसार दोनों ही 'सपरामी हैं अथवा निरपाधी । यदि कोई दण्ड दिया जाय ता साथाग्य सा न कि मलु-दुरढ । इसपर फोई मझहबी नियम दांव में लाना ठीक नहीं । इसलिए मेटी राय में अभिश्वद्न शो रिट्रा फर
[ ए४ 3 दिया जाय ।7? . मिज्ञा अमीर का निरंय सच्मुच पक्तपात-रहित था ! भाक्षिम साहव ने भी इसकी प्रशंसा की ओर कद्दा कि हाकिम साहब ने जो वात लिखी है वही ठीक है । मामला कोई संगीन नहीं, इसलिए मेरी राय में भी यद अभियोग यहीं समाप्त कर दिया जाय । इस्लाम धर्म के कट्टर पक्षपाती काज्ी ने इसका विरोध करते हुए कहा--नहीं हजूर इस्लाम का राज्य होते हुए. इस्लाम की वज़्ञती करना सचसे बड़ा गुनाह हैं । या तो यह अपने धमम फो छोड़ कर मुसलमान वन जाय, नहीं तो मौत की सज्ञा भोगे । नाज़िम ने काज़ी को बहुत समस्माया, किन्तु उसने सारे मुसलमानों फो भड़का दिया ५ सबने इस निणुय के विरुद्ध आवाज्ञ उठाई-। अधिकारियई का व्यक्ति-गत निर्णय तभी तक महत्व रखता , है लव तक कि उसके विरुद्ध कोई जाति, कोई देश, कोई समाज, या संप्रदाय आवाज़ न उठाये । नाज़िम साहम्र ने सोचा कि कहीं घग्रावत न हो ज्ञाय | यदि बादशाह तक यह बात पहुँच गई तो - मुझे. भी आणों से हाथ घोने पढड़ेंगे। उदारता से किये गये अपने निर्णय पर यदि नाक्षिम डटा रहता तो सम्भव था कि हक़ीक़त की जान बच जाती। पर उसने सम्प्रदाय की क्रान्ति से भयभीत होकर अपना विचार बदल लिया ओर कहा--यदि यह मुसलमान हो जावे तो वच सकता है । जब हक़ीक्नत से पूछा गया तो उसने साफ शब्दों में इनकार कर दिया। नाज़िम ने उसे बड़े-बड़े भतोभन दिये, जिस पर हक़ीक़त ने तमतमाए हुए चेहरे के साथ ओजस्विनी भाषा में कहा--।... नहीं है चाह मुझ को ऐसी हसरतं की; . नहीं, है. चाह मुझ को मालोदौलत की |
| [ हश भगर है चाह हिन्दू हूँ. हिन्दू दी रहूँगा मैं। हुआ हूँ हिन्दू में पैदा तो हिन्दू ही मरूँगा में।
. थद्द प्रतिज्ञा भीष्म की प्रतिन्ना से कम न थी। सत्यहरिश्वन्द्र की चन्द्र टरी सूथ टरे, टरे जगत व्यवहार” वाली प्रतिज्ञा भी वीर हकीकत की प्रतिनज्ञा के समकत्त ठहरती हैं । इसकी शआ्रात्सा में अद्भुत शक्ति थी। धर्म-रक्ता के लिए माता का प्यार त्याग दिया, पिता का स्नेह छोड़ा, सखी का मोह छोड़ा । अभी तक तो इस वाज्ञक ने संसार के बाह्य रूप को भी नटीं देखा था । फिर भी अपनी हृढ़ता से उच्नने भ्रव को भी मात कर गया । ध्रत्र को रोकने का काय क्रेवल नारद ने किया था वह भी विशेत्र आग्रह से नहीं, किन्तु इस बीर बालक को सैकड़ों यातनायें दी गई डराया गया, घमकाया गया। फिर भी वह अपने विचार से तिल भर भो पीछे नहीं हटा । इससे मानना पड़ेगा कि हकीकृतराय की श्रात्मा मदान थी। उसकी प्रारम्सिक शिक्षा यही थी कि धम्म क्या वस्तु €ै, इस का पालन करना मनुप्य-मात्र का कतेव्य है? यह बात तो उसको अभी तक किसी ने पढ़ाईही नथी । केवल उसके प्राफ़न संस्कार प्रवल थे, जिनके कारग भअत्याचारोी शासकों फा पातफ् भी इस पर कोई प्रभाव न डाल्सका | ग्छू स लेकर राजा तक फोई ऐसा नहीं होगा जिसको लोभ ने प्रपन जाल में न फंसाया है । हकीकतराय को तरह-तरह के प्रलाभन दिये गये, सीत की नी
मकी दी गई, पर वह धर्मवीर श्रपनी प्रतिधा पर हिमालय फी भांति अटल रहा !
बहुत फुछ कहने के बाद जब नाक्षिम ने देखा फि यह हृटी घालक नहीं मनिता तो उसने उसे मत्यु-दश्ट को घोषणा सभा दा काझी. मुझ तथा 'प्ेन्च धन के 'अन्ध
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न रह किन्तु भागमल और कौरां पर क्या थीती इसका वर्णन फरना हमारी लेखनी से घाहिर है ।
संसार में प्रायः ऐसे ही देखा गया है. कि जिसको मृत्यु-दण्ड दिये जाने की घोपणा द्ोती है, उसके प्राण तो पहिले ही सूख जाते हैँ । किन्तु हकीकतराय तो अपने- धर्म पर बलिदान हो रहा था इसलिए वह श्रत्यधिक प्रसन्न मुखमुद्रा में जल्लादों के सामने खड़ा हूँ। जल्लाद ने वार करनें के लिए तलवार उठाडे,किन्तु वह हाथ से नोचे गिर.पड़ी । हकीकत न तलवार उठाकर जज्ञाद के द्वाथ में पकड़ादी और कह्दा- तुम कायरता क्यों दिखलातें. हो । ज्षरा से छोटे बच्चे पर भी तुम वार नहीं कर सकते तो अपने फतेव्य को कैसे निभा सकोगे । आखिर इस वीर शआत्मा के सामने उसकी हिम्मत न हुई कि उसे क़त्ल कर सके । फिर काज़ी के कहने पर दूसरे घातक ने उस वीर वालक का सिर घड़ से अलग कर दिया । माता पिता इस दृश्य को देखकर मूछित हो गये | उनकी दुनिया ल्ुट चुकी थी | वृद्धावस्था में पून्र-चियोग का असझ्य भार उनको उठाना पष्टा । पुत्र-वधू लक्ष्मी अपने पति के साथ चिता में जहुकर राख हो गई। लाढीर के शालामार.वाय में श्रभी तक भी हकीकतराय की पुण्य स्मृति में एक समाधि बनी हुई है। यहां अतिवषष वसन्त- पम्चमी को मेला लगता है ।. यह शहर लाहौर से ४ मील की दूरी पर है । भागमल और कौरां गली-गली, वाज्ञारों, सड़कों और लाहीर के खण्डरों में पागलों की भांति भटकने लगे। उनको न खाने की सुध थी न कुछ पीने की, न सोने की इच्छा । एक मात्र अपने इकलौते पुत्र की याद. में वे तड़फ रहे थे ।
राज्य में. होने वाले पाप-पुण्य फा राजा के ऊपर अवश्य प्रभाव पड़ता है। राष्ट्र यदि. शरीर है वो राजा. इसका. प्राण. ।
घ
[ १७ |
शारीरिक पीड़ाओं का प्रभाव श्रात्मा पर अवश्य पड़ता है। यदि किसी देश-का शासक जान वृक्त कर प्रजा पर शअ्रत्याचार करे चाहे वह उसके परिणाम को उस समय न समझे, पर एक न एक दिन वह इस बात का अनुभव अवश्य करेगा कि मैंने अब तक क्या किया और क्या करने जा रहा हूँ। तैमूरलंग बड़ा श्रत्याचारी और प्रभावशाली बादशाह था। उसने इस्लाम के नाम पर असंख्य प्राणियों का वध किया। तैमूर का ठहाका सृत्यु का ठहाका था। लेकिन उम्मतुलहबीब के सामने 'जो कि तातार सेनापति यज्दानी का केटा था। उसके सामने उसे भी कुकना पड़ा | यह बात तो स्वयं अत्याचार करने वालों का एक छिस्सा है । जो राजा स्वयं अत्याचारी नहीं बल्कि उसके राज्य फे कर्मचारी पापी हैं; तो उनके द्वारा किया गया पाप राज़ा के शअ्रात्मा को भी अवश्य दहला देता है। जब हकीकतराय का हृत्याकाणड हुआ उन्र दिनों मुगल सम्राट फररेखसीयर भारत पर राज्य करता धथा। यद्यपि यह स्वयं इतना बुरा न था जितने क्लि इसके अधि- कारो बुरे थे। फिर भी यह मानना पड़ेगा कि इसके राज्य का . शासन-प्रचन्ध अच्छा न था। इतना बड़ा काट्ड राजधानों लाहर में हो गया और वादशाद्व को पता तक ही न लगा। फुछ भी हो बादशाह के साथे पर दृकीक्षत की झुत्यु फा कलंक लग चुरा था। रात को बादशाह से स्थप्म में एक खूबसूरत बालक को देखा। बादशाह ने चाहा कि उसे गोद में उठा ले यह ह्शीफत फी आत्मा थी और उससे बादशाह से कहा--बदशाद सलामत मुझे पहचानते हो ? अच्छा मैं तुम्हें स्वयं ही बतलाता हूँ। में इस 'बीर की आत्मा हूँ , जिसको इस्लाम के नाम पर तेर जल्लादईों ने फ्त्त कर दिया है। तेरे छोटे-घढ़े शासक प्रन्ता पर घोर कत्पादार
[ हव ).
कर रहे हैं । उठ अपनी प्रजा की देख-रेख कर | याद रख नहीं तो निरपराधियो की श्राहों से तेरा चद विशाल राष्य मिट्टी में मिल जायेगा।'
बादशाह इस भयानक और श्रद्मुत स्वप्व को देखकंर अचानक चौंक पड़ा, बबड़ा कर उसने अपनी बेगम को जगाया।: उसको भी इसी तरह का स्वप्त श्रा रहा था। बादशाह और बेगम फो निश्चय ही गया कि किसी निरपराधी ग्राणी की इत्या दो गई है ओर उसकी आत्मा हमें सावधान करने आई है। दूसरे दिन बादशाह ने शुप्तहूप से पता लगाना आरम्भ किया कि दर-दर भटकते' भूखे-नंगे लड़खद्ाते (हफीकत के मात।-पित्ता) भागमल ओर कौर्से : महल के पास ही पहुँच गये। किसी तरह वाइशादह व उन्होंने- अपनी प्रार्थना पहुँचाई। यह ठोक नहीं कद्दा जा सकता कि किस प्रकार उनका बादशाह से मिलाप हुआ । छुछ लोगों का कथत हैँ कि साधु और साध्वी के भेष में महल के आगे जाते हुए बादशाह से उनकी जान-पहचान हुई। मिलाप के वाद वादशाद ने सारा हाल पूछा और उन अमभार्गों ने ज्यों का त्योँ सव छुछ कह दिया । दुलियों की करणा-कद्दानी मुतकर उसका हृदय उमड़ आावा और उनको आश्वासन दिया क्रि तुम्दारे- पुत्र के प्रतिशोध रूप में सच हत्यारों को मौत की सञ्ञा दी जायेगी ।
. पक दिन वादशाद् बिना सूचना दिये नाज्िम साहब: के मकान पर चला गया। वहां नाच-सान हो रहा था। बादशाद् के अचानक वहाँ पहुँच जाने से रहे में भट्ट दो गया | मसन्द पंर बैठते ही वाइशाद ने नाक्षिम साहव को इस्लाम के वियय में पूछा ओर नाज़िम ने यद्द अच्छा समय जानकर कद्दा कि “नहांपनाह ? अ्षो- ताला की मेहरवानी से आपका वोलवाला है। अभी कुछ ही दिन हुए एक काकिर को मौत की सज्ञा दी गई भी। उसने रसूल ज्ञांदी'
| ४]
फातमा फी तद्दीन की थी । काड़ी ने शरद के मुताबिक उसको क़त्ल का हुक्म दिया था, किन्तु लाझीर के हाकिम सिक्ञी अमीरभेग से उसकी तरफ हो ड्से तामजूर कर दिया था । फचल इसलिये कि मुलज्ञिम काविले रिहाई है । इसकी इस सम्मति फो शआ्रपके गुलामने पूरा न होने दिया।” इस घःत से बादशाह को पूरा विश्वास हो गया झोर उसेने निश्चय कर लिखा क्ति मुझे श्प कया करना चाहिए। दूसरे दिन बादशाह की ओर से घोषणा की गई कि इस्लाम फी रक्षा करने वाले काज़ी, मुन्ना, और निज्ञाम साहब अपने परिवार सहित द्रघार में उपस्थित दां। उनकी इनःम दिया जावेगा। मिर्क अमीरबेग को फ़रैद कर लिया ज्ञाय, क्योंकि उसने हकीकतराय फी मौत की सज्ञा माफ़ कर दी थी। सम लोग उपस्थित हो गये। बादशाह उन सबऊो रादी नदी के किनारे ले गया झौर पद्विले फ्राज़ी तथा मुल्ला को परिवार-सद्दित किस्ती की सैर पराने के घदाने मंसूधार में ले जाकर डुचो दिया। बाद में नाक्षिम साहर फो एस बड़े भारी गहरे गढ़दे में धक्का देकर मार शला गया। पछगीर घेग की दृथ्कड़ियां खोल दी गई अर पादशाद उससे गले मिक्त कहने लगा-मेरे दोस्त, तुमने दी सच्चे इस्लाम को पभाना है। झाज से तुम लाइर के नाज्िम णनाये जाते हो। घाये भी उसी प्रकार न्याय॑ं से कार्य करना। बादशाह के इस उसदे के घाद मुसलसानों में एक प्रकार की सनसनी सी फल गई | हुठ काल सह जव्यशान्ति का बातावरण रहा । एक आत्मा फे बलिदान से सारे दि्दुर्शा दा पन्दागा हो
्, हे रे गयां। घीर हकोकझत ने अपन सास की सी छात्र हमर किया हो ५ हेन्द ७ जप |; अब लक की गम ७ + “+ घ्णः पर उससे हिन्द ते रएा पारपः हन्टू झा पा गब्य हा घटाया ! पु र
बतझ सो मो घर््षा फे दाद
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तक बड़ा हां उक्री उच तक के उसका काई ने ऋाई बोर दल्िदान हा 2. >लल नकल पतन बज 5 चित > जाति £5. ओर 5525 250 59% नेहओआाहा। साधारस सडुण्य मां बाद देश: जाते आर घर के - £५ नेमित्त अल आपचो मम पर प्ति छ्वेता 7० इससे >> निन्न अपत्त आपका चालवाद पर सनापत ऋर दद्चा है ठा उससे
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८5 महाएद्पों नेक 6 पट हकीकत न प कक दिज्ञेप प यह्ायप इन नसंहापुरुषपा का तरह चार हहांकद कली ऋषि चर है. ह॥-.क क)
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न हुआ था। अभी उसका विद्याध्ययन का ने हुआ था। अभा उसका खिद्याध्ययन के के हे 22 अ
हक
जाता तो संभव था कि आगे भविष्य में वह दीर बालक एंक अद्वितीय धर्म-घुरीण वनता । समय आने पर ही सारी बातें अपना प्रभाव दिखातीं हं। थोड़े से ही समय में बहते कार्य कर देना असम्भव है । वीर हकीकत राय को तो किसी भी कार्य के करने का अवसर ही नहीं मिला | केचल एक द्वी दिन की लढ़ाई और गांली-गलोौच से इतना बड़ा काण्ड हो गया। श्राश्नय फरो 'घ.त है कि वीर हकीकत राय फे जीवन-काल में ऐसे नृशंत शासकों के हाथ शासन की बागडोर थी जिन्टनि एक साधारण सी यात को साम्प्रदायिकता का रंग देकर बहुत संगीन जुर्म बना, ठाला। फिर उस में भी हिन्दुओं की ओर से कोई बोलने वाला नहीं | इतिहास के प्र० उलटिये जहाँ कहीं मुंसलमानों फा ही चोलवाला था। इतना ही नद्दीं बल्कि बालक हकीकत राय की ओर से फोई हिन्द सहायता करने वाला भी न था । जहाँ ऐतिद्यासिक लोग इस बात फो लिखते हैं. कि हकीकत का पिता सेठ भागगल इतना बड़ा प्यादमी था कि सारे स्थालकोट में उसकी ख्याति थी और था एक गण्य- मान्य पुरुर्षा में गिना जाता था, तो क्या उसके बेटे के उपर फ्ये जाने वाले अत्याचार का पता उस प्रान्त के निवासी हिन््दर्शा को ने रहा होगा ? पता होने पर उस प्रान्त की टिन्द जनता ने बिठ्ठांट के रूप में न सही तो प्राथना के रूप में शी मुसलमान शासझों के अनुनय-घिनय क््यां नहीं की ।
इससे स्पष्ट प्रतीत द्वोता हैं कि उस समय सुसलमानी ह्यामेक प्रत्येक हिन्दू फे दिल पर छाद्रा हुआ था। टिनदू कससा झक्प्रा थी। गशुसलमानों के विरुद्ध प्यावाज्ञ उठाने पो इसमें शाकिटी ने थी। यह तो सर्व-सम्मत घाव है दि उसर पश्चिम भारत पर इच्ची शताखदीतसे विदेशी आकेसगाश्रियां के कगानार प्राय वार
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रहेह। सैंकड़ों नहीं हज़ारों वार उन विदेशी आक्रमंणकोारियों से
लोहा लेते-लेते पञ्ञाव की हिन्दुजाति अत्यन्त शिथित्र हो चुकी थी
सम्भवतः इसी लिए यंहाँ के निवासी अपनी जीवन-रक्षा के निमित्त विरोधी शासकों के प्रतिकूल चलने में द्विचकते थे ।
फुंछ भी हो जद्दों वीर हकीकतराय के साथ किये गये अन्याय- पूर्ण बर्णन को जब दम पढ़ते हैं तो जहां तहाँ मुसलमानों का ही शघोलवाला देखते हैं। केवल भागमल और माता कोर्या के सिवाय क्रिसी दिन्दू का नाम नहीं सुनते | इससे तो यद्द श्रतीत होता है कि ' मानो तत्कालीन हिन्दूजनता हकीकतराय के बंलिंदान से श्रथवा सेठ भागमल से हेप करती हो। अपनी जाति के मूल उद्देश्यों से पिछड़ी हुई और स्वाभिमान के गौरव से गिरि, च्युत हुई हिन्दू जाति को जगाने के लिए ही उस वीर बालक का जन्म हुआ। अपने थोड़े से जीवन में, जबकि उसको धसस की परिभाषा बताने वाला भी कोई न था-इतना छुछ कर गया तो हमें मानना पड़ेगा कि बह एक साधारण बालक नदी था। वल्फि उसकी आत्मा में एक महान ज्योति प्रऊकाशमान थी । उस्त परम पिता परमात्मा की शक्ति अपरम्पार है । उसके आगे बड़े २ चक्रवर्ता र/ज्ञाओं की भी कोई सत्ता नहीं । फिर छोटे-छोटे कीट-पतज्नों की भांति कःज्षो और नाक्षिम की क्या सामध्ये थी | हकीऊृत की आत्मा में उसी परमात्मा की ज्योति जगमगा रही थी। इसीलिए बढ़ अपने शरीर को नाशवान बना कर शात्मा को अछेदय अकाव्य बताने वाला हुआ । हिन्दू जाति के लिए यह गौरव छी बात है कि उप्तमें एक हकीकत द्वी नहीं बल्कि अनेकों ऐसे वीर बालक जन्मे हैँ जिन्होंने कई अनिवेचनीय काय किये हैं। बालक भरत की अवस्था केवल पाँच वर्ष की थी, जबकि सौतेली माता ने अरको फटे बनने कहे थे । दिन्द्रजाति का पाँच बचे का बरोक़कर थी
[ रे ]
आत्म-सम्मान तो ठेस पहुँचते पर रया एछ अर सूफता है, या दाद प्रव ने करके दिखाई सास मे सारद ये समकामे पर भी व 'सयगी प्रतिज्ञ में अटल धघत्र॒ तपस्या ८ घल पर धरन्-लोक पा स्वामी बने फर ही रहा। दिश्ण्पकशिपु की विधिव यातनाओं की सदन करता हुआ बालक प्रह्मद भगवान् विप्णु का अनन््य भक्त पद रद्य। फोरवों की असंख्य सेना का संद्वार करता हुआ चीर अभिमन्यु ही चक्रव्यूह-सेदन में सम हो सका। चाहे बाद में कई मदारथियों में मिलकर उसको मार डाला। परन्तु अभिमन्यु फी वीरता पर किसको सन्देहद दो सकता है, जोकि अवस्था में ग्भी फेचल १४-१६ बे का ही था। सिक््ख संप्रदाय फे अन्तिम गुरु भोविन्द्सिद के ज्ित दो नॉनिदाल घालकों को सरहिन्द फे नवाव मे दीधार में चनया दिया था आखिरो दम तक वे दीर घालक किस परद पन॑ पर अटल रहे। इस विषय में उनकी जितनी प्रसंशा की ज्ञाय यो है। इन्हीं वीर बालकों की भोति एक दृकीब:तराय भी था। डिस्तु इन सब से दकीकतराय में यह विशेषता पाई जाती हैँ कि मरते समय तक जब कभी इससे कोई अस्त पृष्ठा गया वा उत्तर से भारस- ज्ञान, धर्म का तत्व, जाति-मौरव आदि दिपयो का दी यह उपदेश देता रद्या। एक स्थान पर यह फदता है कि-+
“हिन्द फे वासी लोगो | तुम सब अपने घर पर मरना सरसों । जिससे दुनि न में ठुम्दारा माम झूमर हो जाय ।
एस समय हिन्द-जाति शो दशा पिगइती ता रही : इसे सुवारने के लिए सब एक सूप के पन्प जे
वया दावि पर घक्षिददान दोता सीखे
[ २४७: | इसके बाद हकीकत .हिन्दू मुसलमानों को भी एकता के संच्र में बांधता चाहता था। जिन मुसलमानों ने हकीझतराय के साथ: दुंद्रता का बर्ताव कियां उनके साथ भी वश उदारता से पेश आया। मुसलमान ओर हिन्द दोनों परस्पर भाई-भाई हैं, इसलिए ऐ मेरे भाइयो | श्रापस की लड़ाई छोड़कर प्रेम से रहना सीखों ।
इस वीर यात्रक के निर्भीक वचनों को सुनऋर कई सहृदय मुसलमान भी इसके साथ सहानुभूति प्रकट करने लगे थे। जिन सिपाहियों के दाथों बन्दी बताकर इस बालक को लाहीर भेजा गया था वे भी इसको निरपराध सममकर, जंगल में छोड़ देना चाहते थे | एक सिपाही ने तो यहां तक कद्द दिया था कि ऐ नेक . लड़के, में जानता हूँ तू अपराधी नहीं है। इस्लाम को बदनाम करने वाला काज्ी द्वी तेरी मौत का कारण बन रहाहै। में मुसलमान हूँ खुदा-परस्त हूँ। खुदा की निगाद में तू गुनहगार . नहीं । एक वेगुनाह का साथ देने में खुदा मुक से कभी नाराज़ नहीं दो सकता । अगर तुम इसी जंगल में कहीं छिप. सको तो, छिप जाओ | मैं उस पाजी काज़ी से समझ लेगा । तुम्हारे बदले में मरने को तैयार हूँ। बेगुनाहों की सदद के लिए. मैं सर्वा: करिबद्न हूँ।.#. ््््ि कट
दयालु सिपाही की.यह वात सुनकर भी उस वीर वालक के मनः में. कायरता के भाव उत्पन्न. नहीं होते। वह लुक-छिपकर अपना: धसे कलट्वित करना नहीं चाहता । बड़ी धीरता से उसकी यूँ उत्तर-देता: है--ऐ मेरे दयालु मुसलमान भाई !.मैं;तेरी इस ;:ढूंसा का >आमभारी:
ह। परन्तु में यहां से भागकर अपने और तेरे माथे पर कलंएः का टीका दरगिज्ञ न लगाऊंगा। मेरे प्यारे भाई? जिस तरह तु आज मेरे लिए मर सक्रता है यद्दी बात अपने अन्य भाइयों को सुनाना कि हिन्दू मुंसलमानों के लिए और मुसलमान हिन्दुओं के लिए मरना सीखें।” तभी सबका उपकार होगा । इस छोटे से बालक के हृदय में इतनी गूढ बातें कैसे आगइ ? ऐस। उपदेश तो श्रच्छे से श्रच्छा पश्- लिखा भी नहीं दे सकता। बड़े २ ज्ञानी ध्यानी भी आत्म-दृत्यारों से ' हेप करने लगते हैं। फिर यहाँ पर तो जातीयता का प्रश्न था | नीच प्रकृति के मुसलमान हिन्दू-जाति, हिन्द-सभ्यता तथा संस्कृति को संवाप्त कर देने पर ही तुले हुएथे । इसके विपरीत दिन्दू लोग मुसल- सातों के साथ भाई-भाई का सा नाता रखना चाहने थे। वाम्तव में हिन्दू जाति की उदार भावना प्रशंसनीय है। हकीकत राय उस समय हिन्दू-जाति का एक प्रतिनिधि ही तो था । ह
-« हिन्दओं के उपनिषद् प्रंथों में आत्मा की सुन्दर विचेचना की सेई है। श्रात्मां अजर है. श्रमर है। इसको काई काट नहीं सकता. केले] नहीं सकता । शरीर के नाश होने पर भी जात्मा अपिनाशी £ । ज्ीवात्मां परमात्मा का अंश है। माया के बस्चनस में पषआआ जोवात्मा अपने असली रूप को भूला रहता है । साया था पदा ने ही आत्मा परमात्मा एक हो जाते हैं) से प्रयर के चरास्म-दान का सनम करने से योगी लोग मृत्यु के भय से सह हा जाते हैं। परन्त इस प्रकार का सान प्राण फरमे छ लिये उसे राई साथ- नाओं का साधस करना परता दे खत भें सफ्दता भी प्रस्येष: पं नयी मिलतो--
पक
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“यततारुपि सिद्धानां फश्चिन सां वेत्ति तत्वत्तः [7
शस गीता के वचन से भगवान ने स्पष्ट कई दिया कि सेकड़ हजारों यत्त करने बालें में से मुकफो कोई विरला ही जान सफता है| धर्थात् इस मायावी संसार से झुक होना बहुत ही कठिन छाय है। जसम-मरण के पन्चनों से (भय से छटकारा पा जाना ही मुक्ति कदलाती है । इपका यह अभिप्राय नहीं कि ज्ञानी मनुष्य मरता दी नदी ? बलल्क कहानी इस बात को अच्छी प्रकार से समझ लेता है छि मेरा यद्द पांचभौतिक शरीर अवश्य ही नाशबान है औौर झात्मा विनाशी है। इसलिए दशरोर के नाश होने पर मुमझो शोक नहीं करना चाहिए। बस दृ्ीकत को इस बात का पूणा ज्ञान था। साधारण प्राणी फो जय सृत्यु का दण्ड सुनाया जाता है तो उसी समय उसके प्राण सूख जाते हैं, किन्तु वध्य स्थान पर ले जाया गया दृक्कीकृत अपेत्ञाक॒त शष्टि से प्रसन्नमुख होकर खड़ा , रद्दा। उसको इस घात छी असन्नता थी कि मैं धर्म के लिए भर मिट रद्दा. हूं । मेरा शरीर भत्ते ही नाश द्वो जाय पर मेरी कीर्ति मेरी आत्मा का उज्ज्वल प्रकाश दिगदिगन्त में फेल जायगा। यचिक ने ज़ब अधि हारियों के संकेत पर सारने के लिए तलवार उठाई तो निरपराध बालह की शात्म-शक्षि के प्रभाव से उसको तलवार नीचे गिर गई । यदि न्याग्र की तराजू से देखा जावा तो चधिछ फ्रे द्वाथ से तलवार का ज़मीन पर गिर जाना द्वी इस बात का दोतक था कि बालक निरपराधी है । पर वहां तो न्याय की कोई बात ही नहीं थी. एक जाति दूसरी जाति को छुचलने पर छुली
हक 5 शुई “4 ।
[ ४७ ]
संसार में सभी को मौत से सय हू, पर वीर एकीकृत मे जमीन
पर पड़ी हुई तलबार उठाकर वधिक के द्वाथ में पकड़ा कर कद्दया कि जरा सावधानी से तलवार चलाओ । क्या तुम एक छोटे से चालक का भी बध नहीं कर सकते ९ वधिक दरान हो गया। श्राज़ तक उसने ऐसा कोई नहीं देखा धा। न जाने कितने दी अपराधियों को उसने क़त्ल कर दिया, पर आज एक निगपराधी यालक परी हत्या करने से उसका कलेजा कांप रहा था। चीर दृकोकत पी आत्मा कितनी शक्तिशालिनों थी। पाठक स्वयं ही इसका अनुमान फर सकते हैँ । चधिक ने दृकीकृत से पूछा ? ऐ लड़के ! क्या तु्के मरने से डर नदीं मालूम होता ? क्या तुमे अपने प्रार्णो स मोद नहीं ? यूदे माता-पिता तथा नवविबाहिता पत्नी छी याद हमे नहीं सताती (--वधिक के बचनों की सुनकर बड़ी निर्भकता से बद इत्र देता है--में मीत से क्यों उरूँ। एक न एक दिन इस नायर शरीर क। त्याग करना हो पड़ेगा । फिर मैं तो देश-जाति तथा पर्म पर बलिदान हो रदा हूं। मं।त का दण्ड बीरों को ही मिल्ला बरता है । कायर और वुन्नदिलों को नहीं। मेरे बलिदान से थाने पाली सम्त्ति शिक्षा प्रहण करेगी कि घर्म के आगे शरीर का फाई डोमत सहीं। प्रत्येक्ष मनुष्य का यह ध्येय होगा कि यद घने ऋ लिए बलिदान ह। ज्ञाय। इसके बाद हकीकत ने का कि माना-पिता का सोद मूड हैं। संसार फे प्राशियों ने ऋपने व्यवद्वार पलाने के लिए माता-पिता भाई-यन्धु आादि फा नाता चनाया एफ | । जीते जे
!
च्द्ता + कल जन कक नव के जन 5४० धन २3० नल 0०क $०कम्कमपल्, छः ल्ूकः केक ऑच ०“. दर हर रखा हू | ररसे का बाद पान स्शसद, साहा, ४घादगे इधर फवएटा
कब्ज | आता हैं | प्राण-पसेल के चड़ जाने पर यह हाड़ सांस का पतला
किसी सी क
(34। | बन दे त बाज. मई 9॥ |] खनन £ धार ब्न्पु | (4। | 4 शत
)
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या 5 पक किये ७०० जम, पु ० कऋर सकता । दा मर घइ़ सं सर का ठुस भल्न हवा एथक करते ०.
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0४ |3॥ ज्ब्कन्य हि । /५।। 44 0४ कि है| 4४ 8 |
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््ज
ु हि १4]
हकाकऊत राय का अत्म-ज्राद स भरा दाता का सन को चड़ा ज्ञान हो गया ओर वह समम्त गयां कि यह को उ्यक्ति है। इसका वध करना मेरी शक्ति से वाहर की चात हैं। आखिर उसने कहा कि+ऐ समंकदार लड़के। में आज तक - अज्ञान में पड़ा हुआ पाप करता रह्म। आज तूने मेरे आँखों की पट्टी खोल दी। इस तलवार से मैंने हज्ञारों का खून किया परन्तु आन गुझसे बह पाप नर्थश दहोगा। इस प्रदार उस वीर बलकत का
हु हि
्
2
[ हट ॥. ज्ञान-भरी बातों को सुनकर कठोर हृदय बधिक का भी-हृदय * पिघल गया । इससे बढ़ कर श्रात्मा की पविन्नता का प्रमाण शरीर क्या हो सकता है । : उपरोक्त वर्णन से पाठंक भली भांति समझ गये होंगे कि बालक हकीकत केवल धर्म पर ही बलिदान होने वाला नहीं था अपितु वह एक बड़ा भारी आत्मज्लानी वीर था। उसको आत्मा बड़ी पवित्र श्रौर उब्ज्बल थी। अन्यथा इतनी छोटी सी अवस्था में वेद्न्त के रहस्यमय उरदेश करना किसी साधारग व्यक्ति का फाम नहीं हैं। यद्यपि मुसलमान शासकों ने अपनी अदृरदर्शिता से धर्म-परायण बालक का चध करवा डाला, पर उसके उपदेश का प्रभाव हिन्द-मुसलमान सभी पर पड़ा हकीकत की मृत्यु ने सोती हुई दिन्द्र जाति को जगा दिया। थ्ात्ञ तक तो वद्ध एक प्रकार से मृतगाय ही थी. परन्तु अब थमबीर ब,लक फी आत्मा ने उसमें नव-जीवन का संचार भर दिया । इसका अच्छा प्रभाव पड़ा। इसका एक कारण बह भी हा सझता है कि नंत्कालीन बादशाद तो फुछ खच्छा था । किन्ले सदर
राज-फाज की ओर से वे बचर रहता था। सही फारश है छि एड
निरपराध वालक को मौत के घाद उतार दिया गया कोर बाद शाट फो खबर तक भी नहीं ।
पे “५ दर टि जन कब १ 2] गक न. हा
यदि या कहा जाय कि लिसके राज्य मे हाट से लेइर बह ६ घिफारियों 5 2 पा 8 दो इसे है 7; आधिफारियों तक सब पत्तपात झरने बाले हां ला हे सदता के कक
राज्ा.भी ऐपा दी हा । परन्ठु नना अवश्य है |:
दकीऊतराय के इत्यारों को दएह परहश्य दिया। निर्शत इलऊ- की पवित्र बत्या ने बहु वाद थे 3० एदुलः दिया! आत्मा का ज नाश दवा उरी दोता वो सम्नव हू कि मंझ्ा हम पहिले हह आये ई इतेकत की आत्मा अलक्ष अप्रत्यक्द--जागते हुए दा सोते हुए वाइशाइ की अवश्य दिखाई दी दोगी। बादशाह चाहे दयालु न भी रहा द्वो। किन्तु निर्पराव प्राणी की हत्या कितनी भयड्ूडर दो सकती ह जो बढ़ों-बड़ों को भी झुका देती हं। यह बादशाह के डचित न्याय ने ही स्पष्ट कर दिया ।
एक छोटे से चालक का इतना खादी होना दिन््दु-तमाज के बड़े यौरव की वात हैं | एक अद्वितीय पुत्र के अलोकिक कर्मो द्वरा दी भागमल और कोरां का नाम भी संसार भर में अजर- अमर हो गया। यदि भागमल के घर ऐसा वीर सपूत न दोता तो कौन उसको जानता ? चाहे वह बड़ा भारी सेठ वा कोई उद् शिकारी था। भागमत् का सास उसके धनिऋ दोने से आज.फोई नहीं लेता । संसार जानता हैं कि ईश्वर छी छपा से भागमल के घर ऐसा पुत्र-रत्त उत्पन्त हुआ जिसके कारण हस डसको साधुवाद दिये बिना नहीं रह सकते । के
पत्र के युणी, चशस्त्री और वीर द्वोने छा सब से अधिक अ्रेत्र माता को मिला करता है। मद्दाराष्ट्र केसरी शिवाज्ञी हिन्दु- जाति की रज्ञा करने में तत्वर हुए तो अपनी माता के सदुपदेश से ही हिन्दुओं के एकमात्र अतिनिधि बने । आज संसार इस बात को सक्षोरदार शब्दों में कह रहा है कि शिवाज्ञी के वीरत्व में उनकी माता वीजावाई एकमात्र कारणस-थी। उस वीर माता ने बचपत
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में ही अपने पुत्र को रामायण श्ौर मद्याभारत के दीरों की कहानियाँ सुना-सुना कर वालक फो इतना वीर बना दिया कि भविष्य में उसी ने झौरहइजेब जैसे मुगल सम्राट के भी दाँत खट्टे कर दिये। इसी तरह जितने भी मद्यपुरुष इस संसार में हुए घचपन में उनकी वीर माताओं ने ऐसी शिक्षा दी कि झ्रागे चलकर वी बड़े आदमियों में गिने जाने लगे। इसके लिये सकहों उदाहरण मिल सकते हूं । इसी भोंति माता कोरां ने भी अवश्य अपने प्रिय पुत्र को धार्मिक शिक्षा दी दोगी। माता को शिक्षा गुरु फी शिक्षा से कीं अधिक प्रभाव-शालिनो दोती है । माता शुरु को भाँति केवल डॉट कर बच्चे को शिक्षा ही नदीं देती चल्कि उसकी शिक्षा में वात्सल्य-भाव मिश्रित दोता है | वह अपने बयों फो किस प्रकार के सोचे में ढालना चाद्दे ढाल सकती है। हद्गीकतराय से धामिऊ शिक्षा तो फिर साता के अतिरिक्त किसी प्रन्य से पाई की
थो। यह बालक तो एक ऐसी पाठशाला में पदता था झड़ों मुसलमान अध्यापक केवल घपरयी. फारसी द्वी पद्ाया सस्ते थे इसको तो दिन्द-बमे से स्थाभाधिझ प्रा थो। पृण्य ट्री नदों घल्ऊ वे दिन्द-धर्म के जानी दस्मन थे। ऐसी परयर्या भें मानना
कर
पड़ेगा कि बालक हकीकत को धानिझ शिक्षा उसझी मादा हे धार
हीहई होगी) परन उस्ती नाता का पद्ाया बदा उगब फापने धरम पर घलिदान होने जा रहा था नो माता मे बश्सग्म्-्धाद रे विभोर धोकर फा। बेटा, गदि गुरूलनास होने से हैटी मान घचतों है तो व् ससक्तमाम ही हो जा। ध्यान माता जागभी ई
न्प् /रै/
कि यदि मेरा बच्चा मुसलमान भी हो जाय तो जोते जो में उसका ९ च्टः दरशशन तो कर सकूँगी।
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नाता की नमता कितनी प्रवल होती है । वह पुत्र-प्रेस के आा धर्म को भी तिल झ्लि दे सकती हैं। पर घर्न-वीर इस समय भाता की ममता की कोई परवाह न ऋरता हुआ उलटा डसे उपदेश देता है-- पूज्य माता जी” जिस धार्निक शिक्षा के द्वारा मेरी आत्मा इतनी शक्ति-शालिनी हुई है वह सच आपकी कृपा है। झाज आप किस मुख से मुझे धर्म त्यागने को कह रहीं. हैं। अब अपने पुत्र की ममता को छोड़ मुझे बलिदान की बेदी पर चढ़ने में आशीर्वाद दें, जिससे तेरा वेंटा हकीकत आखिरी दस तक धर्म से मुख न मोड़े। यद्यपि वह वीर माता ऋदय से तो यह नहीं चाहती थी कि मेरा पुत्र धर्म से विमुख होकर अपने माता पिता का नाम कलछ्वित करे । फिर भी उसने जो भी कंहा, वह पुतन्न- ममता के उद्रेक से उठ्ठेलित होकर ही कहा--
(| |
अस्तु, धर्मवीर हकीकतराय ने अपने उज्ज्वल चरित्र से जहाँ अपना नाम स्वणाक्षरों से अद्धित किया. वहों अपने माता-पिता का नाम भी सदा के लिये अजर-असर कर दिया। इंश्वर की गति वड़ी विचित्र है. कोन जांनता था कि १८वीं सदी-ें ऐसा- बालक पेदा होगा जो अपने त्याग (बलिदान ) से हिन्दु जाति में नव-जीवन को आग फूक देगा। श्मवीं सदी सें पञ्ञाब के. हिन्दुओं की अवस्था - कितनी. -शोचनीय
[ ३ |]
थी. , यह: बात भी वीर हकीकत का 'जीवन-चरित्र पढ़ने से पाठकों को मालूम हो जायगी | लाहोर में जिस स्थान पर इस वीर चालक को मौत की गोद में सुलाया गया था वहां पर झ्ञाज तक भी इसकी दिगार में उसकी समाधि बनी हुई है। लोग इसे हकीकतराय की समाधि के नाम से पुकारते हैं। यह स्थान लाहोर से » मील की दूरी पर है । प्रत्येक बंप बसनन््त पंचमी के शुभ त्योटार पर यहाँ एक बड़ा भारी मेला लगता है। समाधि के चारों आर एक सुन्दर बाय लगा हुआ हैं, जिसका नाम शालामार बस्स है ! यों तो बाग के नज़दीक रहने वाले लाहेर निवासी शाम सेरे इस बाग में सर करने जाते हूं, किन्तु दूर के रहने वाले साल भर में एक वार अवश्य इस पवित्र समाधि के दशन करने पाने हैं। वतेमान समय में समाधि के भवन-की अवस्था जो्ण-शीर्र है। धार्मिक जनता को चाहिए कि ऐसे वीरात्मा के स्मृति-चि6्र को अधिरू से अधिक हृह बनाएँ। जिसने हिन्दू धम के अपने प्राणों को भी निछावर कर दिया। उसके स्मृति-चिद्र रो ऐसी टदृटी-फूटी दशा | चाहिए तो यह था छि सारी दिन््दू जनता उस बीर बालक के पद-चिर्ठा पर चल कर पफ्पने भ्रम यो गच्य
का फरता । फ्ठ री शक हैगकऊ जे [कु ९४ क्वि ४. «७ ०१७८ अर कल ८ पु अफक नत के कुछ भोए इसकी चादए किव्िन बार पृरुसम ने रणश यक'
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फो ऐसा घनाने का प्रयत्न करें| कोई स्मारक प्रन्थावली लिखे
हमें दुख है कि ऐसे धर्म वीर की जीवनी पर लेखकों ने दृष्टि 'नद्ी डाली । यहां छोटे २ साधारण व्यक्तियों की जीवनी पर लेखक संकड़ों प्र रंग'कर' रख देते हैं 'बहां देश, जाति तथा घर्मं पर मिटने वाले वीर हकीकृतराय पर कोई उत्तम पुस्तक-नदीं लिखी गई | वीर हकीकत की जीवनी का छोटे २ बालकों पर जितना भाव'पड़ सकता है उतना जवान,' बूढ़ीं पर नहीं | छोटे घालक-जवब यह पढ़ेंगे कि हम जैसा एक बालक अपने धर्म परः किस-अकार यलिदान द्वो गया । उनकी श्रात्मा भी उसका अनुकरण- करने के लिए तिलमिला उठेगी | हमने इस छोटे से लेख में उस वीरात्मा का- थोड़ा सा दिग्दशेन कराया हैं, किन्तु पाठकों के घोध 'के-लिए फोई भी बात नहीं छोड़ी ।
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महाराजा रणजीताएसेंह
पञ्चाव केसरी महाराजा रणजीतसिंद का नास इनिदास में बड़े गौरव एवं सम्मान से स्वर्णाज्ञरां में लिखा गया है । झाप उद्योगी, साहसी तथा दयालु थे । साहसी होने के साथ-साथ निड इतने थे कि बलवान शत्रु के साथ लोडा लेन में तनिकभी नहीं घबराते थे। आलस्य तो इनको छू तक भीन सछा था। इनकी न्याय-प्रियता जगत-प्रसिद्ध थी। यथा राजा तथा प्रजा! वाली कग्ावत के अनुसार आपके कर्मचारी भी बैसे ही बन गये थ्रे। एक समय एक किसान ने मुलतान के गवनर दीवान मन्न से
किया है । इस बात को सुनकर दीवान ने अपने सब अधिकारियों को बुलाकर किसान से पहचानने के लिए कहा | प्रपराधो दीवान साहव का ही पुत्र निकला । परन्तु दीवान साहब ने अपने पुत्र को भी क्षमा न करते हुए उसे उचित दण्ड दिया। यट सध महाराज रण जोतसिंद का ही प्रभाव था। महाराजा रगशसीन:
बड़े क्षमाशील थे। किसी के साथ भी निदेमता का इंब्यगर मई करते थे। प्पने राज्य-काल में किसी झा भी पग भंग नहां कराया। महाराज्ञ ने राज्य का झार से प्रत्ना झा लिये आतुरालय खोल रखे थे । ग़रीबंकि लिए भोजन नया के
प्रफार के सुभोते फर रखे थे। दीन-प्नास प्रजा के साथ मटा-
रे डे जट हजयास्जवियय
राजा पिता जैसा घताव करते थे. परन्तु दुर्णो तथा गर्यायीरियां से कर यड क्या
हार से पद्म आते थ। टाडे थे सभी प्रसाश मा याद एर
दिपता। देस्म-रख शखना महारात्ा का ग्यस्त सिम दंदभाद सभा। रा $
किक आपका प्रताप सार पद्धात्र रे सश्यय का खुध हये शा पदुाए- न कान छः मान था। कब सके भी मारता पा सास सुंदर दिखाचियां 5;
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के रोंगटे खड़े हो जाते हं। आग्थये तो इस बात काहै कि रणजीतसिंह ने थोड़े ही समय में अपने भुज-चल तथा अद्भुत राजनीति के प्रभाव से सारे पश्ञाब तथा सीमाप्रान्त में अ्रपना राज्य स्थापित कर लिया। पिता था पितामह से इन्हें थोड़ी सी जागीर ओर फुछ एक गांव ही मिले थे
प्रतापी रणजीतर्सिंह का जन्म ई० सन् १७८० को शीतकाल में हुआ था। आपके पृज्य पिता का नाम महासिंदह ओर माता का नाम माई मालन था। भाग्यवश बचपन में ही चेचक के कारण खापकी एक आँख जाती रही। कई वाज़्ारू लड़के इनको काना- काना! कहकर पुकारा करते थे, परन्तु वे उन्हें अपने पास बुलाकर कहते कि एक बार, फिर काना? कहो तो तुमको इनाम दूँगा। यही स्वभाव इनका बड़ी उम्र तक बराबर बना रहा । इनका कद नाटा था, मुँह पर चेवक के दाग़ होने के कारण रूप भी कोई विशेष सुन्दर न था । परन्तु इतने पर भी इनकी बुद्धि बड़ी तीच्ण थी। ऐसे प्रतापी और होनहार वालक के पूर्वजों के सम्बन्ध में लिखना फुछ अनुचित न होगा ।
ईसवीय पन्द्रहवी शताब्दी के लगभग की बात है. कि कालू नाम का एक जाट लाहौर के समीप पिंडीभट्टिया नामक गांव में रहता धा। उस गांव के लोग चोरी डकैती के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। कालू इन्हीं फुकृत्यों के कारण इन लोगों के विरुद्ध था। उनसे अनवन रहने के कारण वह गांव छोड़ कर अमृतसर के निकट जा बसा। कालू की गर्भवती खरी का प्रसव एक लुटेरे सांहसी की मोपड़ी में हुआ । इसलिए उसका नास जदूदू सांहसी (पक्का लुटेरा) पड़ गया । परन्तु सन् १५१४ के लगभग मार-घाड़ में वह मारा गया। उसका पुत्र गलेबमेलस पशुओं को चुराकर व्या-
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७. आय 8 5 पार करता था। उसका पुत्र किदेह बड़े शान्त स्वभाव का था | किद्दोह की थोड़ी-सी गाय भैसे थीं। वह गुजयोंवाला के -मक्दीर
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सकरचक गांव में रूने लगा। इसके दो पुत्र थर्पेण रजादा। सन १६२० के लगभग रजादे का देहान्त हा गया पीर उसके तीन पूर्ना भें से अकेला तख्तमल ही जीवित रहा। तह्तमल ने साहूकारा में खूब रुपया कमाया ओर उससे सुक चक्र की चहुत सी ज़्मीन खरीद ली। इसके दो पुत्र थे बोल, ख्य। बारा। बारा बड़ा चतर था। उसने गांव की श्राधी से भी रा: भूमि पर अपना अधिकार कर लिया। यह गुजर्गोंवाला में एक सिद्ध का चेज्ञा बन गया। वारा ने अपने पुत्र बुडडे ( चुदटामिंद ) फो भी सिक्सख्र धर्स की दीज्ञा लेने की आता दी । पिता की सूत्यु के बाद बड़ा होने पर बड़ढे ने समृतसर में सिक्स है में दीज्ञा ले ली। पिता फी भोंति चनुर पत्र बह ने भी बह उन्नति की और वहू गांव का चोमरी घन गया। एक 'देसी' नाम की चितकवरी घोड़ी इसके पास थी | इस घोही की सटायना से ही ने कई बार लेहलम, चनाव, ओर रावी को पार किया। इसके शरीर पर कई गोलियां फे घाव थे सचझुच ही यह बढ़ा बल- वान था। सन १७१६ में इसका देदालेवओ। इसये साधलिः
पखोर चन्द्रभानमिंद दो प्रत्न थे। पिता की सत्य के बाद सामभिट ने लूट सार के द्वारा बहुत सारी संपत्ति इशट्री ऋर ली । यद एफ प्रसिद्ध डाकू था । राखलपिश्दी तथा समलुत्त के में इसपी धाफझ जम गई। ४७६० में मॉधमिद गुलाचसिंद को लद़फी से घिवाद पार लिया। प्रभाव से बढ़ा संप्तिशाली घन गये | इसझे घटतालिंट, इेहलिह: चैेतमिंए शोर नानूमिंत चार पुद्ठ थे!
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अलग जत्या बनाकर गुजरांवाला के आस पास कई गांवों पर अपना अधिकार कर लिया) चड़तसिंह ने प्रसिद्ध घाड़वी ( लूट मार करने वाला ) अमोरपसिंद से मेल कर लिया। अमीर की मृत्यु के बाद इस दल का मुखिया चड़तसिंह ही चना। समय पाकर चड़तलिह के ऊपर मुसलमान सरदारों ने एक साथ मिलकर आक्रमण किया पर अन्त में वे हार गये । इसी कारण सारे प्रान्त में इसकी धाक जम गई। इसका एक मात्र पुत्र महापिंह था| महासिंद अभी छोटा ही था कि उसके पिता का स्वर्गंचास हो गया। इसकी विधवा माता ने पुत्र के कार्य सें पर्याप्त सहायता दी। १७७४ में महातिंह ने जींद के राजा की लड़की राजकोर से विवाह किया। इसी का नाम साई सालवाइन था जिसके गर्भ से महाराजा रणज्ञीवर्तिंद उत्पन्न हुआ। महासिंह ने जम्मू के राजा को घमेभाई वनाया पर कुछ ही दिनों के वाद उसके गांव लूट लिए। इसके अतिरिक्त कई एक प्रान्तों पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधिकार में कर लिया। सन् १४८७ के उपरान्त इसका देहान्त हो गया ।
पिता की मृत्यु के वाद बालक रणजीतसिंह पर सुकरचकिया मिसल का भार आ पढ़ा । इनका विवाह बचपन में ही सदाकोर की लड़की महतावकौर से हो चुका था। इसके अतिरिक्त सरदार खज़ानसिंह की पुत्री राजकोर से भी इसका विवाह हुआ था। सुकरचकिया की मिसल का आधिपत्य हाथमें लेने के समय लाहौर का राज्य लहनासिंह,गुज्लरसिंदह और सूचासिंह् इन तीन सरदारों के अधिकार में था। लहनासिंह, गुजरसिंह ओर सुचार्सिह के मरे के बाद उनके पुत्र लाहीर पर शासन करते रहे। उन दिनों मियाँ आशिक और मीर मुहकमदीत दोनों ही लाहौर. के चौधरी-सममे
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जाते थे | मियां आशिक के जँवाई बदरइदोन
हिन्दुओं के साथ खटपट थी। फलत: ब्राह्मण तथा ज्ञत्रिय सब्र मिज्ञकर लहनासिंह के पुत्र सरदार चेतसिंद फे पास गये। उसने बदरउद्दीन को काल कोठरो में बन्द्र कर दिया। इस तरद द्विन्द मुसलमानों में बेमनस्य बद गया और गुसलमानों से अपना एफ दूत रणजीतपिंद फे पास भेजा-कि आप यहाँ शा जॉब बाकी प्रबन्ध हम स्वयं कर लेंगे। निमंत्रण पाकर रणजीतर्सिद यान प्रसन्न हुए और पेदल सेना श्लीर फुछ घुड़सवार साथ लेकर बह लादोर के लिए रवाना हुए | शालामार बाग में उसने डेरा डाल दिया। उसी समय भिर्याँ आशिक झौर मीर सुटझमदीन उनसे 'आकर मिले। श्रगले दिन सबेरे आ्राठ बजे शाह झालमो तथा लोद्दारी दरवाज्षे के रास्ते रणजीतसिंद मे ४;जार सिपा- हिर्या के साथ नगर में प्रवेश किया। इधर चेतसिंद दिल्ली दर्वाज्ञ पर लड़ाई के लिये तस्यार था, किन्तु सखकी धोका दिया गया । रणजितर्सिद किले में घसनादी चाहता भा कि चेतसिंद गुकाविले पर शआ्रा उटा । चौबीस घस्टे तक गाली घलती
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वापिस लौट गया और सहानची खो को १४ हज़ार सेना के ' साथ पंजाब में अपना प्रतिनिधि वना कर छोड़ गया। सिक्सखों ने जेहलम तक्र उसका पीछा किया । बाद भें सहानची खाँ भी मारा गया। फिर क्या था उपयुक्त समय जानकर अफ़गानों द्वारा अधिकृत स्थानों पर रणजीततिंह ने अपना अधिकार जमा लिया । राज्य- वृद्धि की ओर ध्यान देते हुए सन् १८०० में रणजीतसिंह ने जम्मृ पर चढ़ाई की पर जम्मू के राजा ने संधि कर ली । फिर उसने इधर उधर के प्रान्तों पर विजय प्राप्त करके लाह्यर को प्रध्थान किया ) १८०१ में रणजोतपसिंह ने लाहौर में एक दरबार कर वैशाखी को हाराजा की पदवी धारण की ओर नानक देव के नाम का सिफा चलाया। महाराजा बनने पर रणजीतसिंद चुप नहीं रहा उसने कई हज़ार सैनिकों सहित गुजरात पर चढ़ाई कर दी । परन्तु अकालगढ़ वाले साहिवर्सिह ओर दलसिंह ने संधि कर ली। फिर कफसूर के नवाब की वारी आई । उसने भी सफेद मंडा दिखाकर संधि कर ली। सन् १८०२ में राजकोर के गर्भ से महाराज के एक पुत्र- रत्न उत्पन्न होने पर बड़ी खुशी मनाई गई। पुत्र का नाम खब्ड- सिंह रखा गया । इन्हीं दिनों अमृतसर के सरदारों ने रणजीतसिंह के विरुद्ध आक्रमण करने का विचार किग्रा, किन्तु समाचार पाकर रणजीत ने अमृतसर पर चढ़ाई कर दी! पर घमासान लड़ाई हुए बिना ही दोनों दलों का आपस में सममीता हो गया। अमृतसर के भंगो ( भाँग पीने वाले ) सरदारों को जागीर दे दी गई और वहाँ सी रणजीतसिंह का" अधिकार हो गया। वहां से उन्हें भद्ञियों की तोप हाथ आई जो कि. आजकल भी लाहीर के अज़ायब घर के पास रखी हुई है। दूरदर्शी. महाराजा ने अपने कुछ वीरों को गुप्त रूप से अंग्रेज़ी,
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भी फरीदकोट पहुँचा ओर उसने महाराजा को एक पन्न लिखा कि सतलुज के प्रदेशों पर आप अधिकार न करें। परन्तु उसकी वात न मानकर रणजीतसिंह अम्बाला की ओर बढ़ता गया । इस प्रकार बढ़ते हुए पंजाब-फेसरी को देखकर अंग्रेज्ञों ने अपने दृत द्वारा हला भेजा कि यमुना और सतुलज का प्रदेश अंग्रेजोंकी संरक्षता अत: विज्ञित प्रदेश लोटाना पड़ेगा । अंग्रेजों न एक रिसाला भी आक्टर लोनी की श्रध्यक्षता में भेज दिया वह बढ़ता हुआ लुधियाना तक जा पहुँचा | वास्तव में रणजीतसिंह भी अंग्रेजों से लड़ना नहीं चाहता था। जिन दिनों मेटकाफ़ अमृतसर में रहता था उसके अंगरक्षक मुसलमानों का ताजिए का घोड़ा शहर में बड़ी धूम-धाम से निकला इस पर अकाली तथा सुसलमानों में परस्पर लड़ाई हो गई | परन्तु रणजीतसिंह ने बीच में पड़कर सममोता करा दिया। अं>ज्ञों को बढ़ने का मोक्रा मिल रहा था किन्तु १४ एप्रिल १८०६ को अंग्रेजों ओर महाराजा में परस्पर संधि हो गई । संधि की शर्तों का आशय यह था कि सतत्ुज् नदी तक सिख राज्य की सीमा समझी जायेगी ओर सतलुज नदी के दूसरी ओर तक अंगरेज्ी सीमा भिश्चित की गई । अनधिकार चेट्टा करने पर संधि भंग समझी जायेगी इत्यादि। सन् १८०६ के द्रम्यान गोरखों ने कांगड़ा पर फिर चढ़ाई कर दी परन्तु महाराजा ने कांगड़े में पहुँच कर राजा संसारचन्द्र की पर्याप्त सहायता की। अन्त में सिक््खों की ही जीत हुई और कांगड़ा का सारा राज्य भी इनके हाथ में आगया । जब कोई जाति ऊपर की ओर उठती है. तो उसे चुप बेठना नसीब नहीं होता | उसे कई मुसीवर्तां का सामना करना पड़ता है। यही हाल रणजीतसिंह का था। कुछ ही दिनों के बाद झुलतान
[ ११ )]
के नवाब ने राज-कर देना बन्द कर दिया। अब उसके साथ ज्ड़ने के लिए रणजीतर्सिद्ध को फिर बाध्य होना पड़ा। इस चार स्वयं मदाराज़ा ने उस पर चढ़ाई की। तुमुल संग्राम के बाद मुलतान का नवाव हार गया ओर मुलतान का प्रान्त भो अपने राज्य में सिला लिया |
राज्य-प्राप्ति के अतिरिक्त महाराजा रणजीतर्सिद को जगस्प्रसिद्ध फोहेनूर होरे की प्राप्ति भी हुदे । यद्यपि उस हीरे के पाने के लिए उनको काश्मीर नरेश से भी लड़ना पढ़ा। मद्दाराजा के प्रखर प्रताप और युद्ध-वीरता के फारण विजय इनको ही प्राप्त हुई । सन १८१२ में शाहज़मान ओर शाहशुजा (काबुल के दो राजा) जब परिवार सद्त लाहोर की झोर आ रहे थे तो अटक फे गवनर ने शाहशुज्ञा को रास्ते में ही कैद करके अपने भाई झत्ता- मुहम्मदसों गवनेर फाश्मोर के पास ,भेज दिया। उसका सारा परिवार दु:खी होकर लाहोर रणजीतसिंद की शरण में शाया, महाराजा ने सत्कार-पूर्वेक इनकी सेवा की । झाहशुला की बेगम ने रणजीतर्सिह के पास कहला भेजा कि यदि आप मेरे पति को छूड़ा दें तो आपको कोहदेनूर नामक हीरा भेंट कहँँगी । इन्हीं दिनों फायुल-नरेश ने भी फाश्मीर गवनेर के चिरुद्ध लड़ने के लिये : महाराजा से सहायता माँगी । शरणशाधियों की रचा तथा फाइल नरेश की प्राथना स्वीकार कर महाराजा रणमीतसित अत्ता- मुहम्मद खा के विरुद्ध लड़ने को तैयार हो गये। सिक्स-सेना काश्मीर फी और घद़ी । छाछुल को सेना ने भो इसके साथ मिल फर शत्तामुश्म्मद का सामना किया। भयंकर संग्राम के प्रधान सिक्खों की जीत हुई, छिले पर उनका अधिफ्ार हो गया। शाद 'शुजा को झारागार से छुड्ा :छिय्ा गग्या। जारीर घाफिस प्रामे पर
.. [ €ए१ |] उसकी वेंगम ने कोहेनूर हीरा महाराज्ञा की सेवा में भेंट करदिया | यह हीरा दिलीपसिंह तक सिक्खों के पास ही रह । फिर सिक्ख- राज्य के डॉँवाडोल होने पर १० मार्च १८४६ को अंगरेशी सरकार के हाथ चला गया। । अफगानिस्तान के लुटेरे पठानों को रोकने के लिये महाराजा ने अटक पर भी अपना अधिकार कर लिया | इस प्रकार दिन प्रति- दिन उनकी राज्य-वृद्धि होती द्वी गई । महाराजा ने सन् १८१६ में वैशाखी के दिन बढ़ी धूम-धाम से राजकुमार खड्गर्सिंद्द को युवराज - बनाया | कुमार खड्गसिंह के युवराज बन जाने पर महाराज को बड़ी सहायता मिल्री। छोटी-मोटी लड़ाइयों में वे प्रायः युवराज को ही भेजा करते। सन् श्प१८ में २४००० सेना-सहित युवराज खड्गसिह ने मुलतान ' के नधाव मुज़प्फ़रखां पर चढ़ाई को | इस युद्ध में अकाली सरदार फूलासिंह ने भी फुमार को बहुत सहायता दी । इधर काश्मीर में भी श्रफ़गान शासक के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे । इसलिये काश्मोर के एक प्रसिद्ध परिडत वीरचर ने किसी तरह लाहोर आकर महाराजा के सामने काश्मीर के अत्याचारों का वणेन किया। सारी , कहानी को-सुनकर'महाराजा ने काश्मीर के अत्याचारी को समूल नए्र करने की प्रतिज्ञा की। उधर जब मुहम्मद अजीमखोाँ को पता लगा कि वीरवर लाहौर गया है तो उसने उसके परिवार को बुरी तरह से तंग करना शुरू कर दिया। परन्तु काश्मीरियों के कष्ट निवारण करने के लिये रणजीतसिंद ने -सन्१८१६ में ३०००० सेना . के साथ काश्मीर की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में राजोदी, पुंछ आदि रियासतों को स्वाधीन करते हुए सिख-सेना के सेनापति सोपियों के केत्र में.जा पहुँचे | काश्मीर-नरेश भी युद्ध. की . तप्बारी
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कर रहा था। फिर कया था ३ जुलाई १८९६ को दोलनों दलों में युद्ध छिड़ गया । आखिर सिक्ख सेना की विजय हुईं। इस यद्ध में कई वीर अफ़गान मारे गये ।. मुहम्मद् जव्यारखों अफगानि- स्तान की ओर भाग गया। ४ जुलाई फो श्रीनगर में सिक्ख-सेना ने प्रवेश कर सारे नगर में घोषणा कर दी कि भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं। सिक््ख-सेना सबके प्रा्शो और धन- सम्पत्ति की रक्षा करेगी । । महाराजा ने काश्मीर का प्रवन्ध करने के लिये प्रथम मोतीराम दीवान को नियुक्त किया, फिर सरदार दरिसिंद नक्षया को। नलवे ने वढड़ी फुशलता से शासन-प्रवन्ध किया | छाश्मीर में इनफे 'ताम का सिद्ध भी चला । अफ़गानों ने काश्मीर फे बहुत से मन्दिर तोड़कर उनकी जगह मसजिदें बना दी थीं। इस दृश्य की देखकर हरिसिंह ने चाहा कि मसजिदों को तोड़कर उनके स्थान पर फिर मन्दिर घनवा दिये जाय॑ । इस लिये उन्दोंन मौलवियों छोर परिइतों की एक सभा बुलाई । परन्तु ररपोक पश्डितां ने नजवा फो ऐसा करने से सना कर दिया । हाराजा रणजीतसिंद का जन्म तो मानो लद़ाइवबों करन फे लिये हो हुआ था। राज्य-विस्तार की लालसा से इन्द्रीनि 'अटफ नदी के आसपास मुंघेर पर भी चढ़ाई झर दी। श्स चढ़ाई में प्रमुख सरदार ये धे--मरदार दलसिंद. सरदार खुशालसिंट दीवानचन्द, रृपाराम मोर दरिर्सिद। चार दिन घमासान युद्ध शुखा। पांच दन प्रिक्सि सना से नगर पर प्रप्ररगर दकुर लिया। उधर फायुल् के नरेश सुदम्मद अज्ञीमया पते पढ़ी दिना हुई जरकि गुलतान, कास्मीर. सुंगेर, इज़रया इसके हाथ म् निकह्ष गया । पसिच्छों से बदला लेने हे फिये गए
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[ एं४ ै सैनिक तथ्यारी करने लंगा और फाबुल से पेशावरं तक पेहुँच गया। इंधर महाराजा ने भी सैनिक तस्यारी कर ली थी। आखिर नौशहरें फे मेदान में युद्ध ठंन गया | हरिसिंह ओर शेरसिंह लड़ाई में पूरी तरद्द से जुटे हुए थे पीछे से २४००० सिख-सेना सद्ायता के लिंये पहुंच गई । ; * तुमुल युद्ध के बाद अक्रगान भाग गये। अजीमंखों ने भी - बड़ी कठिनता से अपनी जान बचाई । इस प्रकार पेशावर के सांरे प्रोन्त पर सिक््खों का अंधिकांर हो गय्या । जो पेशा5र पहले. . पंश्चाव से अलग कंर दिया गया था वह अब फिर पद्चाव में मिला लिया गंगा ओर दंरिंसिंह नलवा को यहाँ का शासके नियुक्त किया गंया । . इधर मदह्दाराजा साहिव अंटंक के पार राज्य-विस्तार में लगे थे । इसलिये उन्दोंने यह उचित संमम्मा कि अफ़गानी प्रदेश पर चढ़ाई करने से पृ अंगरेज्ञों से संधि कर ली जाय । इस उद्देश्य से हंरिंसिंह नलेबा की अध्यक्षता में एक डेपूटेशन ल|डे विलियम घेसिटिड्र के पास शिमला भेजा | »गरेज्ञों ने इनका खूब स्वागत किया। आखिर महाराजा साहिंब से मिलने का वायदा कर लाड ने सिख सरदारों को लाहोर भेज दिया। फिर २४ अक्ट्वर संन् १८४३९ को महांराजा साहिव स्वेयं लाड वित्तियम बेण्टिज्ग से मिलने रोपड़ पहुँचे । इस भेंटमें परस्पर अनेक राजनीतिक सममभोते हंए ऑर एक संधिपत्र भी लिंखा गया जिसमें अंटंक के मार्ग का विशेष उल्लेख था। इसी समये मंदाराजा ने खड़ंगसिंह को अपना उत्तराधिकारो घोपित किया ।. इन्हीं दिनों खड़गसिंह के पुत्र नौनिंदालसिंद की सगाई सरदार श्यांमर्सिहे अटारी वाले की पुत्री कुमारी नानकी देवी से हुई। / ४7
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फुछे माल अमन-चेन के वाद महाराजा के प्रसिद्ध सेनापति सरदार हरिसिंह ने काबुली 'अफ़गानों के आक्रमणों को रोकमे के लिये खबर दरा के निकट जमरोद नामक स्थान पर एक बड़ा भारी : किला बनवाया ओर इज़ारा के सरदार भद्दार्सिंह को इस किले का रक्षक नियुक्त किया । उधर कावुल का शासक्र इस नाकेवंदी को देखकर घवराया और सैनिक तय्यारी छूरके छुछ ही दिनों में वह जमरोद पहँच गया । अफग़ानों की ओर से किले पर गोलियों की चोछार होनी आरम्भ हो गई। फिल्ेदार मद्दार्सिद ने भी अफ़गानी आक्रमण को रोकने के लिये गोलाबृष्टि आरम्भ कर दी | अफ़गानों की संख्या अधिक थी झीर पसिखों की बह कम | अफ़गानों ने किले के बाहर चारों ओर घरा डाल दिया । सरदार महासिंह ने सरदार हरिसिंह के नाम एक पत्र लिखकर उनसे तत्काल ही सहायता मांगी । इस पत्र को पेशाचर तक पहचाने वाली एक चीर स्त्री थी। पत्र पाते ही दरिजिद्द ने सहायता के लिये सेना भेज फर तुरन्त मद्ाराजा के पास भी-खबर भिजवा दी ।
सरदार हरिसिंह इसी युद्धमें वोरगति को प्राप्त हुए। सचमुच हरि पघिंह मद्गाराज का दादिना हाथ था। कहते हैं कि पश्चाव-फेसरी ने जब यह समाचार सुना तो रोते हुए कइने लगे कि सिक्स राज्य फ
न जटसस 2०० अरमथक ना
एक बड़ा भारी स्तम्भ दृट गया। पत्नताताप के वाद महाराज ने सेना- संह्ित पेशावर की ओर प्रस्थान किया, किन्तु उनके वहाँ पहुँचते
पहिले काचुल पर चढ़ाई करने का निरचय फकिया | साथ ही सह भी तय हा कि काइल फे अमीर दोस्तसुहस्द के गंदी से दगार ४. उसके स्थान पर झाहशुजा को कमीर बनाया जाय | निदान परम्पर
(आह
हुई बातचीत के झनुसार छुछ शर्ते सी लिखी गई । सन्धि के अनु॒- सार दोनों दलों ने मिलकर २ जनवरी १८३६ को काबुल की ओर प्रस्थान किया। श्राखिर शाउशुज्ञा को गद्दी पर बिठा ही दिया |- इस तरह कायुल तक महाराजा की थाक जम गई 4
मदाराज़ा रणजीततिंह ने अपने वाह-बल के प्रताप से सारे पत्नाब में ही नदीं चलकर काबुल तक अपना राज्य स्थापित कर लिया । वद्यपि उनके राज्य-काल से पृ भी पशञ्ञाव का अधिकांश भाग सिच्खों के ही हाथ में था ओर उनके १०-१२ जत्थे भी थे। उन जत्यों का प्रथक् २ एक मुखिया होता था । वे लूट-मार कर जो छुछ पाते आपस में बांद लेते थे | परन्तु श्रतापी रणजीत ने अपने भुज-वबल से सब पर अपना एकाधिकार जमा कर एक छत्र राज्य
थधापित फर लिया ! सेना को विशत्ृत रूप देकर उसे डचित सेनिक-
शिक्षा दी गई । महाराजा ने अपने सारे राज्य को लाहोर, मुलतान, काश्मीर, और पेशाबर इन चार प्रान्तों में चाट कर सारे प्रान्तों को भी परगनों में और परगनों को तहसीलों में विभक्त्त कर दिया था। मिससे राज्य का प्रबन्ध उचित रीति से चल सके | किसानों से कर लेने की रोति भी इनकी विलक्षण थी । दीन-अनाथों की तथा विधवाओं की सहायता के लिए राज्य की ओर से सहायक-कोप खुले हुए थे। कोई साहूकार किसी किसान का वेज्न हल तथा खेती करने की वस्तुओं को कुछ नहीं करा सकता था। यदि कोई राज कर्मचारी किसी को अनुचित दुःख देता-तो महाराज भल्नी-भोंति जाँच कर अपराधी को कठोर दण्ड देते थे ! महाराज अपने कर्मचारियों फो अधिक से अधिक वेतन देते थे ताकि उन्हें . प्रजा से घूस खाने की आवश्यकता ही न पड़े ।
अधिकृत प्रदेशों को वश में रखने के लिए स्थान २ पर ५० से
[ एज हें अधिक छावनियाँ स्थापित की । मद्दाराजा पढ़ें-लिखे तो नहीं थे । किन्तु तीचण बुद्धि होने के कारण गूढ़ से गूढ़ विषय को भी तत्ल्श भाँप जाते थे। इनका इतना आतह्ढ था कि बड़े? मंत्री भी इनसे धरर कोंपते थे। इसके श्रतिरिक्त इनकी धर्म पर बड़ी श्रद्धा थी, प्रायः प्रतिदिन ग्रन्थ साहव का पाठ छुना करते थे। तीर्थों, धार्मिक स्थानों ओर साधु महात्माओं का भी बड़ा सम्मान करते थे । रणजीतसिंह में अभिमान तो लेशमात्र को भी न था। ये अपने वचन फे इतमे पक्के थे कि जिस वात को एक बार मुख से कद देते उसे पुरा करने में सिर-धड़ की वाज्ञी लगा देते थे । इन में एक बड़ी भारी विशेषता थी कि यह सभी धर्मा को एक दृष्टि से देखते थे। राज्य के ऊँचे २ पदों पर हिन्दु, मुसलमान और सिक््ख सभी को नियुक्त कर रखा था। छुछ भी हो इतिहास के प्रष्ठों पर मद्गाराजा रणतीतसिद्द फा चरित्र स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है | सन् १-३६ में गवनेर जनरल लाडे आकलेटड मद्दाराजा से मिलने लाहोर आये। मिलने का स्थान शालामारवाण नियत हुआ । कई दिनों तक माच-गान श्र मदिश-पान होता रहा । एक दिन जब दाराजा गवनर जनरल को दशरात्र का प्याडा दे रहे थे तो एकाएक उनका शरी९ कॉरने लगा ओर वे फुरसी से नोचे लुड़क गये. शाँखि पथरा गई और सुँद से काग बहने लगी | तत्कश महाराज फो राज भवन में लाया गय्या। जब उनके जीने की कोई प्राशा न रद्दी तो खट्डसिंह को राज़तिलक दे फर उसे राजा ध्यानसिंद के सुपुदे फर दिया । अन्त में २७ जून १८३६ को महाराजा इस लोक छा छोद फर स्वगे सिधार गये। उस समय उनडी अवस्था 5 घप की थी । उनकी झत्यु के छुछ बषे पश्चान् पात्र का भाग्य-स - भी सदा फे लिए प्यग्त हो गया ।
>ऊ>उापरे 5: द्रलनइ ० # ४,
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[ शैध |
' सद्ाराज्ा की मृत्यु को सुनते हो श्रन्तःपुर में हाहकार मच गया। सह्दाराज की सोलह रानियाँ थीं। उनमें से चार रानियों और सात दासियों ने महाराजा के शव के साथ सती होना निश्चित किया। चड़ी लम्बी चौड़ी एक चन्दन की चिता बनाई गई। महाराज की छाती पर श्रीमद्भगवद्गीता रखी गई । बहुमूल्य वस्ध और आसू- पण गरीबों को वाट कर अमन््त्येष्टिक्रिया विधिवत्त की गई। दो दिन तक चिता जलती रही। तीसरे दिल अस्थियां ( फूल ) चुनकर हरिद्वार भेजी गईं । ु महाराजा के खड़सिंह के अतिरिक्त शेरसिंह. तारासिंह, मुलतानसिंह, काश्मीरासिंह, पिशोीरासिंह ओर दिलीपसिंह नाम के ६ पुत्र थे। महाराजा की मत्यु के बाद खन्नल्षिंह गद्दी पर बैठा किन्तु फुँचर नीनिहालसिंह ने राजा ध्यानसिंह से मिलकर उसे .ज्हर दे दिया ओर ४ नवम्बर सन् १८४० को उसका देहान्त हो-गया। जब अपने पिता का दाह-संस्कार करके नौनिहालसिंह लोट रहा था तो सिर पर दरवाजा गिर जाने से उसकी भी सृत्यु हो गई । सन् १८४१ में शेरसिंह गद्दी पर बैठा, प्रन्तु राजा वध्यानसिंह से अनवन हो जाने पर .इसकी भी हत्या करवा दी गई । बाद ' में राजा ध्यानसिह की भी किसी ने हत्या कर दी। शेरसिंह की सृत्यु के वाद दिलीपसिंह गद्दी पर बेठा परन्तु सिक््खों की दूसरी लड़ाई सन् १८४६ में उसे भी गद्दी से उतार दिया गया | सन् १८४३ में दिलीपसिंह ईसाई हो गया तो एक बे के बाद अंगरेज़ों ने
उसे इंगलैण्ड भेज द्या। महाराजा का भाग्य-सूय जिस प्रकार पञ्ञाव में एकदम >्वमक्रा था उनकी सृत्यु के बाद उसी तरद अस्तःभी हो गया उनके. पुत्रों में
[ ए॑४ +
अपने पिता की सी शक्ति नाम- मात्र को भी न थी। यहां तक क्रि द्लीपसिंह ने तो अपने धर्म को भी तिलाझ्जलि दे दी। जनवरी सन् ९८५७ को जब दिलीपसिंद भारत लोटा तो कलकत्ता के जिस होटल सें वह ठद॒रा वहां उनके दशनाथ सिकखों का बहुत सा जमघट एकत्र हो. गया। क्रान्ति के भय से लाडे केनिद्ध' ने उनको विलायतः चापिस. लौट जाने की आज्ञा दें दी । सन् १८६२ में पैरिस के एक. होटल में द्लीपसिंह का देहान्त हो गया ! इनके कई बेटे बेटियाँ हुईं पर उनका इतिहास सें कोई बिशेष स्थान चहीं। उनकी दो पृत्रियाँ: अभी तक भी जीवित हैँ । जिन्होंने सिख धर्म छोड़ कर ईसाई धर्म स्वीकार क़र लिया हुआ है । यद्यपि महाराजा रणजीतसिंह दी मृत्यु के पश्चात् उनके चंश का नाम नहीं के वरावर ही रहा पर: अकेले हो सदाराजा की कीर्ति द्िग' दिगन्तों तक फेली हुई है | धन्य है वह माता और पिता जिनके घर ऐसा वीर बॉकुरा-लाल चेंदा हुआ ।
इस. प्रकार संक्षेप से पदञ्ञाव-केंसरों महाराजा रणज॑तसिंह फा चरित्र पढ़ने के चाद हम पाठकों का ध्यान महाराजा को छुछ तरिशेरताओं की ओर ले जाना चाहते हैँ। महाराजा रणजीतसिंह. घड़े उद्यमी सदसी निर्भीक, दयालु- दुष्टों के लिए कंठोर और न्याय- - प्रिंग्रथे। इतने बड़े राजा होने पर भी इनका जोवन बहुत सादा था.। . जज्ञेली पशुओं का शिकार खेलने में इन्हें. बड़ा आनन्द आाता- था । यह चोचीसों. घंटे सावधान रहते थे। आलस्य* का- तो इनमें. - नामों निशान तकन था। ये रात को सोत्ते समय तलवार अपने सिर- . इने रखते थे। अपने राज्य की रक्ञा के लिए इतने सतर्क रहते थे कि अपने नीकरों को इनकी ओर से यह आज्ञा थी--एक घढ़िया _ घोझ अतिदित कसा-फलाया हर वक्त रात को भी तयार रहें।
॥ 78% |:
ने जाने कब कैसी आवश्यकता पड़ जाय | इसलिए “मद्दाराजा के- विपय में यह बात प्रसिद्ध है कि-- .. सदा द्वी कमर ऋसी हुई देखी, फभी न सुस्ती मुख पर पेसी | शिक्षित न होने पर भी पढ़े-लिखों की भाँति राजनीति के खमुसार धम-पुश्रेंक शासन-कार्य वर्षातक चलाते रहे । लेफ्टिनेंट . प्रिंस ने महाराज्ञा के विपय में यों लिखा हैं-' महाराजा से मिलनेके थाद मेरी यह भावना निश्चित हुई की वह सचमुच ही ऊँचे विचारों फा मनुष्य है| वह अशिक्षित होने पर भी राज-काज बड़ी योग्यता से करता है। आजतक ऐसा कोई भारतीय राजा मैने नहीं देखा। महा राजाने जय यह देखा कि बिना ड्रिल् के सेना भली-भाँति नहीं लड़ सकती तो फ्रांसीसियाँ को नोकर रखकर अपनी सेना को ड़िल में सिद्ध-दस्त बना दिया । इसी से उसकी सेना अन्य भारतीय सेनाओं से श्रच्छी है ।” रणजीतसिंह धार्मिक बातों में बहुत उद्गर . था। हिन्दू मुसलमानों से समानता का बताव करता था। सबसे बड़ो विशेयता इसमें यह थी कि यह मनुष्यों को परख भली-भाँति करना जानता था । कौनसा व्यक्ति किस काम के योग्य हैं तथा क्रित्त काम को करने में किस की सामर्थ है। जिस समय रणजीत : सममभते कि यह काम मुझ से न हो सकेगा तो वहाँ वह ऐसा कदम न उठाते जिससे उन्हें द्वार खानी पड़े।जब वह सतलुज नदी के पार अपना राज्य बढ़ाना चाहता था तो उन्होंने इस बात को कटसे भाप लिया कि सतल्ुजके पार के राजा अंगरेजेंके मित्र 9 । इसलिये गवर्नर जनरल से रणजीतसिंद् ने संधि कर ली श्रीर जीवन पर्यन्त उस संधि को निभाया । : महाराजा रणजीतसिंह कण ओर बिके समान दानी थे। यहां तझ कि अधिक दान-शीक्ष होने के कारण इनको लोग
[ २१ ।ै
पारसमणि कहने लगे थे। एक समय की बात ६ कि जब महाराज
रणजीतसिंद लाव्ोर की ओर जा रदे थे तो एक बूढ़ी झो जिसके हाथ में एक लोहे का तवा था भीड़ को चीरती हुई आये घदी। सिपाहियों ने उसे बहुत रोका, परन्तु वह महाराज फे पास जाकर दी रुकी | महाराना ने पूछा, माई ? तू कदों दोड़ी जा रदी हू ? वृद्धा ने उत्तर दिया--महाराज में गराब स्री हैं। मेरे पास खाने को कुछ नहीं है। मैने सना है श्राप पारसमग्यि हूँ आपके साथ छू जाने से लोहा सोना ट्रोजाता है। इसलिए में अपने ला का तचा आपसे छुवा रही हूँ । महाराज रणजीत बढ़े उद्यार-हृदय व्यक्त थे। उन्होंने उसे तवे के बराघर का सोना अपने फोप से शिलवा दिया। श्स प्रकार दान-एणग्य करने में भी वे घहत पटे-चद़े थे। लाख दी लाख को तो बात दी नहीं, फभोी कभी फराशं तक
दान कर देते थे। ऐसी फिंवदन्ती है कि इन्दींने मत्यू गे दिन
लगभग एक अव रुपया तक दान फर डाला था। मदाराज्षा रखऊन सिंह अपने समय में भारतवबपष झा सघसे पड़ा राजा *: तो था। इसके जन्म-काल से पहले पंजाव में ऋराजफता फंडी हट भी ।
लाग आपस में लड़ रष्ट थे। रणतीवसिह् ने घहुत से छोट-सांड
रजवाड़ी को संदाक करके एक राज्य बनाया। ऊपनी झूसा की नियमपृदक यद्ध-शिक्षा दी। विक्टर जेकक््यूमारट नासके हरा याटी लिखता है--रणजीत के प्रसाधारण व्यक्ति था छोदे पंभाद
पर हम इसे बोनापार्ट कर सदते है। सवतोगुसी प्र-दना, धाविछ न्ध
हर] और शदभन सदिध्गिता तथा शासन फे
5
अकबर के उमान था। उनका टील-डॉल छाटा हो घाव ऋपने के शा ऋ का शक हु पहनने के बर्स्चआं पर थे विशेष ध्यान नहों देते थे | उतमे घरश पर ब्ध शक #-
है स्क्यिं 28] उन्>>बन-कनक का कहे ँ॥3 #झ किम कआ “न शत पसद्ध फ्र & 7३४०० जे उन््स की सईरय। तथा चघचछ हू. एाट ये। परन््टु इतने परे का इसने पच्ा
इतना अधिक था कि सारे दरबारी थर-थर कॉपते थे। रणजीत- सिंह किसानों से उतना कर लेता था जितना कि आसानी से वे दे सके । इसके राज्यकाल से पहिले लूटमार,मारधाड़ का बहुत जोर था। पर इसने अपने वाहु-वल से लूटमारकों पूणुरूप से दवा दिया। किसान ओर मज़दर सदेव उनसे प्रसन्न रहते थे। इसमें एक घड़ी विशेषता यह थी कि राज्य के छोटे-बड़े सारे कार्यो की अपनी आँखों से देख-रेख करता । अपने राज्य के कमचारियों पर बड़ी कड़ी निगाह रखना इसके राज्य-प्रवन््ध का एक आवश्यक श्रद्ध था | यदि कोई अधिकारी प्रजा-को दुखी करता तो उसकी लगें द्ार्थों यह खूब खबर लेता था। यदि दुर्भाग्य-बश - अकाल पड़े जाता तो वह फिसानों से कर लेना वन्द कर देता था। अपने अज्ञन-भण्डार से ग़रीबों को छन्न बॉटता था ।” .. इसके दरवार में जातीय पक्तपातव न था। यह दिन्दू- मुसल्न- मान, सिक्ख़ सभी का उचित सम्मान करता था | न्याय-प्रिय राजा सब का श्रद्धा-भाजन होता है । यह अपनी न्याय की तलवार से चढ़े-बड़ों को परास्त कर देते था । अपने घनिष्ठ मित्रां द्वारा किये गये अन्याय को सी यह सहन नहीं करता था । सरदार हुकुमसिंह चिमनी महाराजा के घनिष्ठ मित्र थे। उसने अपने व्यक्तिगत देष के कारण सैयद्खों नामक एक व्यक्ति को जान से सरवा डाला। महाराजा रणज़ोतर्सिह को जब इस बात का पता चला कि सेयद्खों की मृत्यु व्यक्तिगत विहवेप के कारण हुई है तो उन्होंने एक लाख पश्चीस हज़ार रुपया जुर्माना हुकुससिंह से लेकर सैयद्खों के परिवार वालों को दिलवा दिया ओर हुकुम- सिंह को सेनापति के पद से, च्युत कर दिया । सभी जाति के ज्ोगों को वे एक दृष्टि से देखते,थे | हिन्दू-सुसलमानों का भेद्-
»र श्ए |
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भाव तो मार्नों यंह जानते ही न थे । ह इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक हिन्दू राजा होते हुए भी इनका प्रधान मंत्री बुखारा-नियासी फकीर अज़ीजुद्दीय था। सभी महत््व-पूर अवसरों पर महाराजा उसकी सलाद लिया करते थे | अ्जीजुद्दीन सफो संप्रदाय की मानमे बाला धआगबी फारसी का एक बड़ा भारी विद्वान था और साथ ही एक अद्वितीय चिकित्सक भी । इसलिए उसकी प्रेरणा से महाराजा न सरकारी खर्च पर एक बढ़ा भारी चिकित्सालय तथा उसकी छोटी छोटी शाखाय बड़े-बड़े नगरों में स्थापित फरवा दी थीं | इनमें रोगिय की चिडित्सा बिना पँस के होनी थी। इन चिकित्सालय के प्रचन््ध वे; लिए हकीम नृरदीन शोर डाक्टर इनह्ग वगर नियुक्त किये हुए थे। इस प्रतापी एवं प्रज्ञा- हितैपी राजा ने अपनी प्रज्ञा के लिए जितना दो सका संस पटचाने का प्रयत्न किया । इन्होंने अपने बाहुबल से ही इतना घटा राज्य स्थापित किया। क्योंकि इनके पिता के श्ाथीन तो थोरहे से ही गांव थे । इन्हींने उत्तर में तिब्बत उत्तर पश्चिम से टिन्दुएुडा, दशिश पश्चिममें शिक्रारपुर सिंध आर पूर्व मं सतलुज्ञ तक अपने राज्य पा विस्तार किया । इनके राषध्य का त्षेत्रसतत लगभग ए ६ लाख पैनाल्लीस हज़ार चगेमील था। तथा बार्पिक आमदनी तीन करोड दो लाख पिचतरद हजार के लगभग थी। ऋपन जीवन में शननी 5 अन्य फिसी राज्ाने नहीं षी। घटी २ फटित समस्थात्रों मे सुलमाना इनके बांयें हाथ फा खेल था । पेचों फो ्ाजडल फे घहें-बे उपाधि-धारों भी एल नी पर ृः रे
के ७. सर्वशारी का मेंसुलमा देते ये । सर्वशशिमान रोने एफ भी ये यदे एमाइाल ये ञ्् का स् *
जा
कक. + कनबेकओंतज सिर व ० कल पके २ ८2% १३... कहा. ५२२६: ६ आठ ककेनक कक राम कर ४ ५2२४० २ +कब कक, कै" कह. ४: आओ जप जे. “जजों: नर
(६, 280 5] बड़े-बड़े अ्पराधियां का सी कभी अठ-भदह्त नहीं करवाते थे | हाँ अधिक से अधिक अत्याचार करने वाले को मृत्य दण्ड दे देते थ | सद्दराज़ा रणजीतसिंद इस वात को भली-भान्ति जानते थे कि दरवारी लोग किसी सावारण व्यक्ति को राज-दरवार में प्रविष्ट नहीं होने देते । इसलिए इन्होंने अपनी प्रजा की वास्तविक अ्रवस्था को ज्ञानने के लिए अपने महल के आगे एक सनन््दृक रखवा रक्खा था. लोग अपने कष्ठों की वात लिखकर उस सन्दूक में डाल देते थे। महाराजा उस सन्दक को अपने सामने स्वयं खलवबाते और सब प्रार्थनापत्रों को निकलवा कर फिर बन्द करवा देते | फिर सब प्रार्थियों को घुलाकर न्याव-पृ्वंक उनके कष्टों को दूर करते । समय मिलने पर अपने घसे-प्रन्थ 'गुरु अन््ध साहब! का पाठ सुना करते ओर गुरुद्वारों की सहायता! के लिये पर्याप्त मात्रा में घन भी दिया करते थे। दिन्द राजा होने के नाते उन्दोंने हिन्दुओं की सभ्यता तथा संस्कृति का बहुत संरक्षण किया। दरणागत-वत्सनता इनसे अधिर साज्नासें पाई जाती है। इन्होंने जब काश्मीर के अत्याचारों का वणुन सुन। तो इनकी आँखों से ओंसुओं की धारा वह निक्ल्ली। तत्काल ही अपने दरवारिद्रों से परामशे करके काश्मीर-विजय करनेक्े लिये चल पढ़े | महाराजा तो मागेमें रहे किन्तु इनके वीर सेनानी हरिसिंद नलवा ने काश्मीर में विज्ञय प्राप्त करली | महाराजा को इस बात की बड़ी प्रसन्नता हुई की श्रत्याचारी मुग़लों के चंगुल से काश्मीरी श्रजा का छुटकारा हो गया । इस खुशी के उपलक्षमें वे गुरु-नगरी अमृतसर जापहुँचे। वहां इन्होंने अकाल पुरुष के चरणों में सिर कुछाया. और -सवा लाख रुपया दरवार साहब के भेंट किया | ये सदा द्वी इश्वर में आस्तिक भावना रखते थे । .हिल्दू तीथों और साधु महात्माओ्ं पर भी इन
[ २४ ]
की बढ़ी आस्था थी। वे कई बार हिन्दुओं के पचिन्न तीथ हरिद्वर में गंयाजी का स्नान करने के लिए भी गये । उन्होंने वहाँ कई साधु- सन््तों के दशन किये तथा उनकी यथोचित पूजा की ।
यद्यपि सिकक्ख जाति में कई वर्षो से वीरता के लक्षस मिलते थे किन्तु मवात्मा बन्दा की जीवन-लीला समाप्त होते ही सिक्मों ने लड़ने की नीति अलग रीति से अपना ली थी। वे सामने धर लड़ना पसन्द नहीं करते थे । जब कोड अवल शत्रु उन पर आक्र- मण करता तो वे इधर-उधर पव॑तां और बीहड़ बनों में ज़ाफर छिप जाते | जब शत्रु बढ़ता हुआ ऐसे स्थान पर पहुँच जाता जद्दां उसे घेर कर मारना सरल होता तो वे पश्तों और बना से मिक्ल कर छापा मारते ओरोर उसक्रा सब माल-असबाब लृट ले जाते । परन्तु यह् तरीका सिकक्ख्रों की उन्नति में वाधक था। इसलिये धीरे-धीरे वे निस्तेज ओर निनेल होते गये । चंदा बैरागी की मृत्यु के पश्चात् और महाराजा रणजीतसिंह से पूर्व सिफ्नब जाति नष्ट प्रायः हो चुकी थी। बादशाह फररुखतियर (यीर बरामी को मरवाने वाला ) ने सिक््खों के सबे-नाश के लिए यह घोषणा कर रखी थी कि जो एक सिक्ल का सिर काद् कर लाबेगा उसको दस रुपये इनाम दिये जायेगे। इस तरह सिक्न्यों झे मस्तक सस्ते मूल्य पर कटने लगे। जिन सिक्तयों को देखर मुसलमान घर्सा
र में घुत जाते थे । झाज उनका इस प्रकार बंध किया जाने लूगा। किन्तु समय सदा एक सा नहीं रहता। पश्काब में सथ हो भांति महाराजा रणजीवसिंह झा जन्म हुआ। इसका गे मिंद सलया जैसा वीर सेनानी मिल गया । उस दीर ने मरार,वा ता अपना नेता मानकर समस्त पश्वाब की भूमि फो झुलिस स्मसन से झद कर दिया। या तो रणहीममिंद हा ही याए प्रताप था लि स्सस
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सारे पंजाब में अपना एक छत्न शासन स्थापित करःलिया, किन्तु इनकी विजय में हरिसिंह नलवे का सबसे अधिक हाथ था। रणजीतसिंह में प्राकृत्तिक युद्ध-कोशल भी श्रत्यधिक था। जिन. दिनों इन्होंने रामनगर में अपनी राजधानी स्थापित को तो एक दिन की घात है कि जब वह शिकार खेलने जन्नज्ञ में: गये: तो” : शिकार के पीछे दोड़ते २ अपने साथियों से अलग- होगये:। दैवयोग से हृशमतखाँ चड॒ढ़ा नामक एक मुसलमान सरदार भी वहाँ शआा निकला । रणजीतंसिंह को अकेला देख कर उसने गोली चला दी भाग्य-वश गोली का निशाना चूक गया । फिर क्या था, रख- जीतसिंह ने बिजली को तरह कपट कर उस.पर तलवार से ऐसा. बार किया कि.एक हो प्रहार में उस हत्यारे. का काम:तमाम-कर दिया । यह देख उसके अन्य साथी भाग गये। वास्तव-में बात.यह:. थी कि महासिंह .ने हशमतखाँ का प्रदेश छीन लिया था । इसलियेः वह अब बदला लेने की. ताक में था | अरब. मोका:.पाक़र उसने उन के पुत्र रणजीतसिद पर आक्रमण कर दिया ).
युद्ध-च्षेत्र में घीरता दिखलाने के अतिरिक्त सन्धि कराने. में. भी रणजीतसिंह घड़े निपुण थे।
एक बार.-पटियाला के राजा साहिबसिंह और उनकी सनी आसवनेर में परस्पर झगड़ा होगया। रानी चाहती थी कि मेरा पुत्र: छुंचर कर्मसिंह गद्दी पर बेठे, परन्तु राजा अपने जीते जी ऐसा. करने को तय्यार न था-। इस ग्रृह-कलह ने बड़ा बिकट रूप- धारण कर लिया । दरवार के कुछ कमचारी राजा के पक्ष में:हो- गये तो कुछ रानो के । महाराजा रणजीतसिंहःको पद्च-बनाया. गया । इन्होंने यह निणुय किया कि गद्दी पर- तो राजा -साहिब ही- बैठे), किल्तु छुँव्रर, कम्रेसिंह को , ५०: हज़ारःकी.:-ज़ाग़्ीर- दे। दी जाय:
[ सके ॥
ओर रानी आमकोर पुत्र के सांथ जांगीर में हो रहे । इस निर्णय
से दोनों पक्त सन्तुष्ट हो गये । भद्दाराजा रणजीतर्सिद ज़ब पटि-
याला से वापिस लौटने लगे तो राजा साहिवर्सिह ने उन्हें एक हार
सेंट किया जिसका मूल्य लगभग अस्सो दृज्ञार रुपया या। इतनेर्मे
फुँचर कर्मसिंह वहां आकर भद्दाराज्ञा की गोद में वेठ गया पर कहने लगा | महाराज ! यह हार तो मेरा है । इतनी घात सनफर उदार-हृदय महाराजा ने वह हार उसके गले में पटना दिया और कहा यदि तेरा है तो तेरा ही रहे ।
राजा साहिवर्सिह उस हार को 'फर म.राजा को दी देना चाहते थे किन्तु उन्दोंने लेने से इनकार कर दिया ।
यह इनके उदार छदय की एक मोंकी है। इससे यद अनुमान सहज में ही लग सकता है कि उदार-हृदय के साथ र थे स्थाभि मानी भी थे | घन की अपेक्षा इन्हें मान अधिक प्रिय था। जब ये किसी राजा महाराजा से मिलते तो घड़े ठाठ-घराट के साथ मिलते थे। परन्तु जब इनसे कोई राजा मिलने छाता तो उप्तका भी ये बड़ा आदर स्वागत करते | पटियाला के राजा साहिबर्सिह यद्यपि इनके आधीन थे | फिर भी इनकी प्रापस में चनिए मित्रता थी शोर इसी मिन्नता भें ग्गाजीवर्सिट ने साहिपर्सिह से पगड़ी बदल ली थी। महाराजा गगाजीगलिंद जतनादो राष्य अपने अधिरर में रखना चादते थे जितना कि इनसे भमली-भांति सम्भाला जा सकझे। यहीं कारण है कि इनका राष्य-प्रधर शाजारं की अपेज्ञा घात उत्तम था। इसोलिए उन्होंने छपने स्थरे राज्य में झच्छे योग्य अपधिकारिया को नियफ फरा शग्ग धा। प्रत्येक पान्त के अधिकारी की माशिम सथाम गवनर फटा ऊयावा थे।। उसके वो सीन कारदार हाहि मे! फ््येद साझावे में व्ययाः्य-
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फतानुसार ताल्लुकेदार और, उसके- सद्दायक, , कानूनगो,- पंच-और:- पटबारी, चोकीदार आदि नियुक्त किये हुये थे।
दीवानो: महकमे के- अतिरिक्त फोजदारी प्रवन्धः कारदार की : सद्रायता के लिए कोतवाल और अदालती काम के लिए: मुतसही : श्रोर धार्मिक कामों के लिए काज़ी, मुफती, प्रन्थी और परिडितं. नियुक्त, थे. प्रत्येक ताल्लुकेदार और कारदार के साथ एक: खज़ानची रहता था । कर लेने का तरीका भी बहुत उत्तमः था। जब फसल पक कर तैयार हो जाती: तो कानूनग़ों किसानों. के. सामने खेत- की. लम्बाई चौड़ाई नाप कर. बीघे बना सरकारी रजिस्टर में लिख लेता। फिर एक दिन गाँव के चौधरियों और अन्य कमचारियों को: इकट्ठा करके कारदार उनकी सम्मति से खेत का सरकारी भाग नियत करता । यह भाग निश्चित समय तक रुपये या अनाज के रूप में प्राप्त कर लिया जाता। आपाढ़ी फसल का लगान आपाद़ू मास तक और साबन्ी का मांगशीष के श्न्त तक देना पड़ता था । इस रीति से किसानों को बड़ा लाभ होता था| कारदार या अन्य अधिकारी किसी भी फसल: का लगान बिना सुखियाँ की सम्मति से नहीं ले सकता था। आजकल के कई ऐतिहासिकों ने तथा अन्वेषकों ने इस वात की, खोज निकाली है कि महाराजा रणजीतसिंह-ने अपने अधिका-: रियों को इस. बात की आज्ञा दे रखी थी कि गाँव के -चोधरियों. ओर मुखियों की सम्मति-के बिना उपज का लगान न वसूलः किया जाय । इसके साथ-ही,वे घार २ अपने कमेचारियों को:
(यत देते. रहते थे कि. “प्रजा की सुख-समृद्धि और सरकारी आय, की. वृद्धि का. पूरा. ध्यान रक््खा जाए।” यदि क्रिसी साल, फसक, भच्छी:न होती. तो-कर भाफ़:करते:फे,इलावा -सस्कारी कोष...
[ *६ ;ै
से किसानों की सद्दावता भी की जाती थी । फलतः कोई भी अधिकारी प्रजा के साथ अनुचित व्यवद्वार नहीं कर सकता था। इनके राज्य-प्रवन्ध में विशेषता यही थी कि पूस या रिश्वत्त का कहीं नामों-निशान तक न था |
कोई भी अ्रधिकारी घृस-रिश्वत्त तब्र लेता है जब कि इसको अपनी आजीबिका के लिए पूरा वेतन न मभिल्ते । मद्ाराज्ा रणजीतसिंद अपने फमचारियों को तथा श्रन्ध प्रधिक्ारियां को इतना अधिक वेतन देते थे कि वही उनसे नहीं स्राया जाता था । हरिसिंद नज्ञवा का वेतन एक लाख रुपया था. पेशावर के अधि- फारी अवूतवेज्ञ को इकतालीस हज़ार रुपया और मुलतान के अपि- कारी सखदयाल को छत्तीस हज़ार रुपया वारपिक पेनन मिलता था । इस अधिकारियां का जब इतना अधिक चेतन था ता ये भी अनथक परिश्रम से राज्य की देसख-रेख किया करते | संक्तेपत उचित प्रबन्ध की यही एक घड़ी पहिचान है कि इनके राग्य शो प्रश्षा सुखमय जीवन व्यतीत करती थी । इसका कथन विदेशी विद्धार्नो ने भी मक्त-कण्ठ से किया है। लेफ्टिनेंट फनेल मेलझम ने एक स्थान पर लिखा है कि “रणगतीदर्सिद झा राज्य-प्रन्न्ध पंज्ञाय पे लोगों की प्रकृति के बहुत ही अनुकूल था! । |
जब कोई विजेता किसी प्रान्त पर फपना अधिकार कर लेता है तो कभी २ इस प्रान्त के वासियों में अथान्वि की छोर दीड़े रहती दे । किन्तु रण तीतलिंट से जिन प्रार्न्ती का अपने झा
मत अपने ऋाधषियार हे कि
| भें किया इससें कमी अन्तर्वित्रोद नहीं हुआ। इससे नी या स्प
है छि प्रजा इनडे शासन-सृत्र छूट फ्पत फापर। पर भा लगनेग ४० ०३४ 3-व दा पु दिज्टार खा्ी सानतों रही। सारे पंज्ञाव से लेगनन #० फशशी कापानया
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थीं। इनमे पईरदार पंदल सना: इदलपदार फरार रलडा पा
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/भारी तोपें, कल्दके और युद्ध सम्बधी अन्य सामान अधिक मात्रा में विद्यमान रहता था । हज
,.. इतना सत्र कुछ होने पर भी महाराजा रणजीतसिंद्ध इस-वात से सदा सतके रहते थे कि कोई यों न कह्टे कि तुम्दारा राज्य- :प्रचन्ध ठीक नहीं । इसलिये जब कोई विदेशी यात्री उनसे मिलता सो वे उससे उस देश की प्रथा, शासन-पद्धति, जनसंख्या, उपज व्यापार और कर आदि के विपय में अवश्य पूछते । यदि किसी यात को वे अच्छी समझकते तो उसको अपने शासन में प्रचलित करने का पूरा प्रयत्न करते । महाराजा का दसरों से पूछने का ढंग भी बड़ा विचित्र था । वे ऐसे ढंग से सारी बातें पूछ लेते कि बताने वाला अपने सनमें छुछ ब॒रा अनुभव नदीं करता । साथ द्वी विदेशी यात्रियों का ग्रादर-सत्कार अच्छी प्रकार करते | इस प्रकार. अपने बुद्धि-वल से दूसरे के छृदव की बात जान लेने पर भी अपना रहस्य प्रकट नहीं करते थे ।
शरणागत की रक्षा करना तथा अपडी प्रतिज्ञा का पूरी त्रहसे पालन करना इनमें यह एक स्वाभायिक गुण था। जो वात एक बार मुख से निकल जाती उसको तन, मन, धन से पूरा करते । काँगड़ा के राजा संसारचन्द्र ने एक बार महाराजा रणजीतसिंह से सहायता मोाँगी, क्योंकि नेपाल फे राजा अमंरसिंह थापा ने काँगड़ा पर चढ़ाई करदी थी। संसारचन्द्र की सद्दायता के लिये सेनासहित महाराजा ने स्वयं काँगड़े की ओर प्रस्धान किया। इतने में अमर- सिंह ने भी वहुत सी भेंट दे कर अपना दूत रणजीतसिंह के पास भेजा । इन्द्रीने दूत द्वारा कहा भेजा कि में संसारचन्द्र को सहा-
यता.का पचन दे चुका हूँ अ्रतः आपकी सद्दायता नहीं कर: सकता
६ 5 |
:३- फरवरी १८६० को कावुल-नरेश शाहशुज्ञा काइल से भाग ःकर पंजाब आ गया। महाराजा रणजीतर्सिंद इस समय खुशाव में थे । शाहशुज्ञा के दत इनके पास आये ओर शरण देने की आथेना की । महाराजा ने शाहशुज्ञा को खुशाव इलाया शरीर डसका खूब आतिथ्य-सन्कार किया। इतना ही नहीं बल्फक इसके रहने के लिए रावलपिण्डी में उचित प्रबन्ध कर दिय यद्यपि हिन्दू मुसलमानों को ये समान-भाव से देखते थे फिर सी जो मुसलमान अधिकारी हिन्दुओं को घृणा की दृष्टि से देखता या हिन्दुओं के साथ अत्याचार करता | उसकी बुरी तरद से सथर ' लेते । बद्ावलपुर के अन्तगत उच के शीलानी भर वखारी सैयद अपने प्रदेश के रहन वाले टिन्दर्ओं पर बहत हब््पयायार करते रे क्योंकि वे बड़े धर्मान्ध और पक्तपाती थे। थे हिन्दुओं से इतनी पूरा करते थे कि यदि कोई हिन्दू इनके सामसे श्रा जाता तो ये अपने मुख पर कपड़ा डाल लेते अथवा हिन्दू के मुख पर थृक देते धे। इनका आतंक सारे प्रान्त मे छाथा हम्रा था। जब थे चादने दिन दहाड़े लूटमार कर लत घ। फिसी की इनके विरोध का
सासस ने हाता था । सहाराज्ञ रणता तर्तिंद मे जद्र यह बात सुनी तो उन्हें सन्माग पर लाने के लिए पपने दर गे (हि नलबा और दलसिदध को बहों भेज्ञा। महाराजा की घोर से + हव्य फ्री ० कीट.» धथीकिद ४: कक सा भय मिस जा झाशा मिलने फी देरी थी कि दोनों सरदार एक गिजये सेना लेडर उच्च जा पहचे। सेयद मुग़ल-फाशोन बादशार्प के शाधीन सी सनी यीरार
नरदे थे फिए एक दिन्दू राजा के आधभीन रहना ने क्रिस से
कुकर *]. हक यइ३ 8 कप हण
करते | इसलिए वे भी दल-धल सटित लट़ने के लिए यह- घन से ४
हा
डटे। दरिसिंद जैसे वीर सेनानी फे द्ाथ में कमान थी । पद में संयदां का झर खाना पट । प्घ ता व इसे मग्ग सर
[ १२ |]
आखिर उन्हें आधीनता स्वीकार करनी पढ़ी । हरिसिंद्द ने उनसे एक प्रतिज्ञापन्न लिखवाया जिसके फल्लस्वरूप भविष्य में ऐपता न॑ करने का ग्रण किया था। सरदार हरिसिंह नलवा ने इस समर में जो वीरता दिखलाई थी उससे प्रभावित होकर मद्दाराजा ने उसे मिद्ठा टिवाना का सारा प्रदेश पुरस्कार रूप में दे दिया।
पंजाब प्रान्त में एक छत्न राज्य स्थापित दह्वो जाने पर भी दूर-दर्शी महाराजा रणजीतसिह ने अंगरेज्ञों से सन्धि कर ली। बहू इस बात को अच्छी -तरह सममते थे कि अंगरेज़ों ने भारत बप के अधिक से अधिक भाग पर अपना अधिकार कर लिया है इसलिए इनसे सन्धि करना ही उचित है । परस्पर सन्धि 'की ३-४ शर्त निम्न प्रकार से थीं--
बंटिश सरकार ओर लादहदीर राज्य की आपस में मिन्नता रहेगी, बटिश गवनमेंट लाहौर राज्य को सम्मान की दृष्टि से देखेगी। सतलुञ नदी के उत्तर प्रदेश तथा वहां की प्रजा से क्षटिश सरकार का कोई संधन्ध न होगा। इधर मंहाराजा संतलुज के बाँए तट पर अधिक सेना नहीं रख सकेगा। अपने प्रबन्ध के लिए जितनी सेना की आवश्यकता दो उतनी सेना रखना मिन्नता-पूर्ण व्यवद्वार समझा जायेगा अपने पड़ोसी राजाओं के साथ अनधिकार चेष्टा न करनी होगी । इन शर्तों में से किसी एक के भंग हो जाने पर अथवा किसी एक की ओर से मित्रता न निभाने पर यह सन्धि संग सममी जांएगी। इस सन्धि के बांद॑ मद्ाराजा रणजीतसिंद ने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से शिक्षित करने के लिए ४०-४० यूरोपियन अफसरों को नियुक्त किया । 'चैदल सेना' के सेनापति बिंखुरा को मद्दाराजा ने झड़ाई जार
३३४ ॥
रुपया मासिक वेतन पर नियुक्त किया था। यह नेपोलियन ' थोनापार्ट की सेना-- में कई चपे तक कनेल - रह चुका था। छुछ समय तक यह इंरान के युवराज अब्बास मिरझा के पास भी सेना-संचालन का कार्य करता रद्ा। फिर लाहौर में महाराजा ' के पास चला आया । जनरल प्रिंचुरा स्वयं भी बढ़ा वीर पीर युद्ध-विद्या में फुशल था। सीमान्त के पठानों अर 'फग्ानों: से लड़ने के लिए कई बार महाराजा ने इसे सीमान्त अदेश को ओर भेजा । यहाँ इसने श्रपना जीहर खूब दिखाया । ऐलिद्वासिकर ; का कहना है. कि सीमान्त की लड़ाइर्या में विजय पाता विंचुरा जैसे कुशल सेनापति का ही काम था। घदसवार सेसा को सुशिक्षित करने के लिए जनरल एलई को रक्ला गया। यद एक फ्रेंच युवक था और मेपोलियन की सेना में किसी ऊँचे पद पर रह चुका था। नेपोलियन की पराजय के बाद यह भी भारतवर्ष चला आया झार मसथराजा की सनामे काये करन लगा ! यह सेना का प्रबन्ध बढ़ी चतुराई से करता था। 'फंगरेज्ा में भी इसके प्रवन्ध-कीशल को देखऋर इसकी मसुगफठ से प्रशंसा की । महाराजा भी इसको खूब चाहते थे !
बरना छाद्य वो पन्द्रति इस बात फो आाद समझते पहों तोर्पा का अवन्य भी चूगोपियन ढंस से दाना था हू
जनरल कोट को तोपखाने का श्फलर नियुद्ध दिया सया। या
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[ ३ ) आखिर उन्हें आधीनता स्वीकार करनो पड़ी । हरिसिंद ने उनसे एक प्रतिज्ञापन्न लिखवाया जिसके फन्नस्वरूप सविष्य में एप्ता न करते का प्रण किया था। सरदार हरिसिंह नलवा ने इस समर में जो बोरता दिखलाई थी उससे अ्भावित होकर मद्दाराजा ने उसे मिदट्ठा . टिवाना का सारा प्रदेश पुरस्कार रूप में दे दिया।
पंजाव प्रान्त में एक छत्र राज्य स्थापित हो जाने पर भी दर-दर्शी महाराजा रणजीतसिह ने अंगरेज्ञों से सन्धि कर ली। बहू इस बात को अच्छी -तरह सममते थे कि अंगरेज़ों से भारत वप के अधिक से अधिक भाग पर अपना अधिकार कर लिया है इसलिए इनसे सन्धि करना ही उचित है । परस्पर सन्धि 'की ३-४ शर्त निम्न प्रकार से थीं--
बटिश सरकार झौर लाहौर राज्य की आपस में मित्रत्ता रहेगी, दृटिश गवनेमेंट लाहौर राज्य को सम्मान की दृष्टि से देखेगी। सतलुन नदी के उत्तर प्रदेश तथा वहां की प्रज्ञा से बृटिश सरकार का कोई संवन्ध न होगा। इधर मंहाराजा संतलुज्ञ के बोए तट पर अधिक सेना नहीं रख सकेगा। अपमे प्रबन्ध के लिए जितनी सेना की आवश्यकता हो उतदो सेना रखना मित्रता-पूर्ण व्यवह्यर समझा जायेगा अपने पड़ोसी राजाओं के साथ अनधिकार चेष्टा न करनी होगी। इन शर्तों में से किसी एक के भंग हो जाने पर अथवा किसी एक की ओर से मित्रता तन निभाने पर यह सन्धि संग ससमझी जाएगी। इस सन्धि के बाद॑ सद्याराज्ा रणजीतसिंह ने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से शिक्षित करने के लिए ४०-४० यूरोपियचन अफसरों को नियुक्त किया । ल् वेदल सेना के सेन[पदि दिंचुरा को महाराजा ने ऊठाई हज़ार
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[| ३४ ]
रुपया सासिक वेतन पर निया किया था। शाह भेपोश्ियम योनापा्ट की सेना में कई वर्ष समक्ष कल रह चुका था। कए समय तक यह इरान के यबराज अच्चास मिझे के पास भी
चर, .
सेचा-सचालन का काय करता रहा । फिर लाइ।र में महाराजा के पास चला आया। जनरल पिंचरा स्वर्ग थी घदा शीर ीर युद्ध-विदा में फुशल था। सोमास्त के पढानों 'धीर धम्गानों से लड़ने के लिए कई थार मदाराजा ने इसे सीमान्त प्रदेश ए घोर भेजा । यहां इसने अपना जौहर खूब दिखाया। पेलिटासियों का फह्ना है. कि सीमान्त को लड्ाहर्था में विजय पाना थशिधुरा जैसे कुशल सेनापति झा ही फाम था। घइसवार सेसा थों सुशिक्षित करने परे लिए जनरल एलटे को रफ्या गया। यह थी एक फ्रेच युवक था ब्लौर नेपेलियन की सेमा मे शिसी केसे
पट दा कह ९७५ न ०० के श् भ््ट पद पर रह घांका भा । सपपॉयन मंते प्रशाज़य के धाश माए् भा भारतवप चला ला दावा फार संदाराजा को सनाने बाय बरन शगा ।
8५ बह सना का प्रवस्ध बढ़ा खतुराश से परनाशा। आयरणफ नह
४) पैशन व, ४ कही इसक प्रचन्य-काराल को दर इसठय इंहनमद भर पशरा
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एचेटाहाइल भी इनकी सेना को एक सुयोग्य अफर्सर था। इसका जन्म-स्थान इटली था! छुछ दिनों त्क काम करने के बाद: दाराज़ा ने इसको पेशावर का गवनेर वनाया। इसमें यह: खूबी थी कि अशान्ति के दिनों में यह घड़ी कठोरता से दमन करता आर शान्ति के दिनों बड़ी उद्यरता से प्रजा का शासन करता था। यह राज्ञों महाराजाओं की भाँति बड़े ठाठ-वाट से रहता था| महाराजा की मृत्यु के बाद भी यह चार पाँच वर्ष तक लाहौर के दरवार में काये करता रहा। महाराजा के तोपखाने में कनेल गाडनर नामक एक अमेरिकन भीथा! वह भी कुछ चर तक महाराजा के द्रवार में काम करता रहा, परन्तु वाद में राजा ध्यानसिंह के तोपखाने का अफ़सर बंन गया। यह अंगरेज्ञी का वड़ा विद्वान था। इसने कई एक पुस्तकें लिखीं। उप- रोक्त प्रधान अफसरों के अतिरिक्ति अन्य छोटे-सोटे कहे अंगरेज्' कर्मचारी महागजा छी सेना में काय करते थे। इन सैनिकों में विशेषता यह थी कि ये बड़े परिश्रम तथा बुद्धिमत्ता-पूवेक कारये करते थे। किन्तु गुण-प्राही रणजीतसिंद जिस किसी भी विदेशी सैनिक को अपने यहाँ रखते उससे पहिले कुछ शर्तें भी लिखवा लेते थे जिससे भविष्य में वह कहीं अन्त्विद्रोह न कर दे। यूरोपिग्रन लोगों से वे सदा सत्तक रहते थे तथा उनके लिये एक विशेष शर्ते भी रखी थी कि--यदि कभी किसी यूरोपीयन शक्ति से सिक््खों को लड़ना पड़े ,तो ठुम्हें सिक्ख राज्य का स्वामि-भक्त कर्मचारी बन कर उसके साथ लड़ना पड़ेगा। लाहीर राज्य 'की आज्ञा के बिना तुम किसी यूरोपीयन शक्ति से सीधा पत्नज्यवहयर नहीं कर सकोगे। गो-मांस का भक्षण नहीं करना होगा -+ ... -:- अद्यपि ये नियम :स्वतंत्रता-प्रिय यूरोपियनों फे लिए. अधिक
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[ ३५ )]
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दिकर उन्हान ये दाते सदप स्थाकार दर शस्यो था। इसने ह्ादारएः
भारतीय कमंचारों, जिनका दग्यार में ई
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अ्रपना राज-काज सेनिक-संगठन इस ढंग से किया हुआ था कि इन की मृत्यु के समय पचास हज़ार सुशिक्षित सिपाही, पचास हज़ार सुसज्जित घुड़सवार और तीन से तोएऐ थीं। इनकी असाधारण बुद्धि को देखकर ही लाडे आ्राकलेण्ड की पुत्री मिस ईडन ने महाराजा के विपय में लिखा है कि-- उन्होंने अपने पराक्रम से अपने आप को एक्र वड़ा राजा बना लिया । वे बढ़े ही न््याय-प्रिय थे, कभी ही किसी को प्राणदग्ड.- देते हैं । उनकी प्रजा उनपर वहुत्त प्रेम रखती है ।7?
इनका प्रभाव इतना श्रधिक था कि एक बार गर्बननर जनरल मे फकीर अज़ीजुद्दीन से पूछा कि महाराजा की कौन सी आँख फानी है. तो उसने उत्तर दिया कि--''भमहाराजा के मख-मण्डल पर इतना प्रचण्ड तेज्ञ हैं कि आज तक मुझे उनकी ओर आँग्च उठा कर देखने का साहस ही नहीं हुआ |"
महाराजा का क़द सादा ओर चेटरा छुरूप था। बचपन में चैचक के कारण इनकी वांई आऑँस्व जाती रही थ्री। फिर भी एक दाहिनी आँख का ही इतना तेज़ था कि किसी को साहस न होता था जो थोड़ी देर के लिये भी इनसे आऑँग्च्र मिला सके | सुख पर शीतला के गहरे और घने दाग थे । नाक छोटी पर मोटी थी । गेल छोटी किन्तु मोटी | इसीलिये ने आसानी से इधर-उधर अपनी गदंन को न घ॒मा सकते थे। पतली टांगे तथा छोटे २ हाथ, आय: दूसरों की अपेक्षा शारीरिक बनावट अच्छी न होने पर भी वृद्धि के अ्रताप से अपना नाम अजर और अमर कर गये।
मृत्यु के समय अपनी रुग्णावस्था में महाराजा ने साधु, संतों फ़कीरों, मन्दिरों और मसजिदों के वास्ते पश्चीस लाख रुपये की संपत्ति और बाईस लाख नक़द दान दिये। श्रढ़ाई सी मन थी
[ ४७3 )
ज्वालामुखी को भजा। एतिहासि्ा का कथन कि मदाराल श्रपते कोट्टेनूर हीरा फो भी श्मृतसर के स्थगा मन्दिर में घद्ामा
0“ कक शी न के व _ कक चाहते धे, फिनन्तु कोप के झ्ध्यक्ष मिश्र बलोराम ने देसे
इनफार कर दिया। इसका कथन था कि यह हीरा राज्य दो संप्ति
47
हैं नक्ि महाराजा झकी निजी। छझदि याद हीरा हस्निनदिर में चढ़ा दिया जाता तो भारतवप दस अमूल्य हीरे छा अ्गी गया २0
स्थासी बना रहता। परस्तु ईश्वर फा यही स्वीझार था हि बड़ विदेशियों के हाथ चला जाये । महाराजा रंगजीवसिंट ने किस दिलि मंगाराजा को उशधि धारण की थी उसी दिन से उन््हींने अपना सिक्का भी चलाया था। सकी धा्मिक्ता का सथा प्रमाग उसी दिन प्रश्न होगया थे बकि सिय्के के उपर क्षपना लाभ था दित्च मे देकर शुर सासए- देव का साम लिखा इशा था। इसझा सास भी सारपशाही रए5।
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५ 0 क हीधबहे ने थे किन्ते. धरदुस सार्गा के करत सरेताई पा लादिदीय १ | बा कि १६
प्रतापी महाराजा थ। या इस चिषय मे ही सही का. आा रगाार
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( २ )
मुग्ध हो कर रद्द जाता था । इसे अपने गुण ओर वीरता दिखाने का उचित आश्रय मद्दाराजा रणभीतसिध मिल गया। फिर क्या था ्रीष्छ ऋतु को पा कर मध्याह्र-कालीन सूर्य श्रतापी ओर असहाय बन गया । घास्तव में महाराजा को तो एक वीर सेनापति ओर दृरिसिंद 'को गुण प्रकाशित करने का उचित स्थान मिल्ल गया | परस्पर एक दूसरे के प्रभाव से दोनों चमक उठे । कहते हैं कि महाराजा रणजीतर्सिह प्रतिवप वसन्त- पद्चमी के दिन एक दरचार बुलाया करते थे । जिश्षमें श्स्त भर के नवयुवक अपने २ शारीरिक वल ओर युद्ध-फोशल दिखाया करते थे। दरवार को ओर से वीर युवकों को पारितोषिक दिया ज्ञाता था | सम्बत १८६३ बि० फो जब घतिवर्ष की भांति दरबार लगा तो एक नव्युवक्र जोकि डील- . डोल तथा शारीरिऋ एवं वोद्धिक वल में अद्विनीय था वश अपने वाहुब॒ल को दिखलाने आया। उसके शारीरिक करतबों को देख कर लचब चकित रह् गये । महाराजा ने प्रसल्त हो कर उस को अपना अद्गवर ज्ञ॒क बना लिया यही दीर नवयुवक सरदार हरिसिह था। एक दि्त महाराजा के साथ जब है हरिसिंह शिकार खेलने गये तो एक बाघ ने हरिसिह्ठ परं आक्रमण कर दिया पर इस वीर ने बाघ के जबड़ीं को पकड़ कर उसकी गदेन मरोड़ डाली ओर झट से क्ृपाणा-निद्याल कर ऐसा वोर किया छवि उसका सुण्ड धड़ से ' अलग हो गया । उसकी अदूसुत वीरता को देख कर मद्दाशजा रणजीतर्सिहद हैरान हो गये ओर उसी समय से इन को 'सिंह-हृद्य! नामक सेना का. सेनापति बता दिया गया। यद्वां सं इन का असली सेनिक जीवन शुरु होता है. । .उन दिनों सरदार हरिसिंह- को अधिकठर नल्वा :ह कर पुकारते थे। . इसका मुख्य कारण यही था कि उन्होंने बाघ की
(६ ३ ।॥
सबसे बन्धुभाव रखते थे । होड़े से छीटे सिपाही दे साथ भी इमइर्दों से पत्त आते थे। सिपाही भी इन को पिता ऐे समान सममझते से :
सन् १८०७ में फसूर आर मुलतान फे सवाद मिल कर सिकाए पर चहाई फरने फी सोचो रहे थे कि महाराजा स्खगृहीनसिंट में सरदार एरिसिंद को सेनापति घना कर मुलतान पर 'ावमंगा फरने के लिए नोसंदूरा नाम स्थान पर मेनन दिया रालसा फप की रोकने के लिए
कपूर फे शासक नवाय फुतयुद्दीन २४ इमार सेना लि पर मदन में दा
, डटा | परस्पर महान युद्ध छिह गया। फिर क्या था नोर्पो पा दोएी में 2२० सवारों फा घुड़खवारों से बन्द झवियों का बन्दू % पालों से कोर पे हल ससि श- हियों फा पेदल सेनिकों से यद्ध हो गया। दोनो हली मे से एप करन मप दिस का भी फदम पद नी हटा, पररत अस्त में दिन हेलसेही संशय थे संगम
दुग मे बाविस लोट णाई ।
(४)
सम्मिलित फर लिया गया। भव मुलतान फे नवाब फी बारी आई । नवाब ने कसूर फे नवाब की सहायता फी थी, इस लिये अब रणन्नीतर्सिह मुलतान को भी अपने अधिकार में करना चोहते थे । आखिर १४५ फरवरी १८५० को एक बड़ी भारी सना ओर तोपखाने के साथ महाराजा र्णजीसिंह ' अपने वीर सेनापति हरिसिह् नलवो के साथ मुलतान की ओर चलन पड़े । ' नवाब ने जब नम्नता फे स्थान पर धू्तता दिखाई तो खालसा फौज ने बिना युद्ध किये ही नगर पर अपना अधिकार कर लिया। परन्तु किले के चारों ओर उन्हें कई दिनो तक घेरा डाले (हना पड़ा। जब लड़ाई लम्बी हो गई तो महाराजा ने अपने सारेसिपाहियां फ्री सम्बोधित करते हुए व हा, मेरे वीर _खालसा सिपादियों ! मैं इस लड़ाई में शीघ्र सफलता प्राप्त करना चाहता हू' । इस लिए इस महान कार्य के लिए मुझे कुछ ऐसे निडर योद्धाओं की आवश्यकता है जो अपने प्राणों की ममता छोड़ कर अपना सीस बलिदान कर सक्रें । मद्दाराज के उपरोक्त चचनों को सुन कर जिन वीर योद्धाओं ने अपने आप को पेश किया चममें सर्व-प्रथम हरिसिंह नत्वा ही थे । आखिर मद्दाराजा स्वयं भी वीर सेनिकों फे साथ सुरंगे' विछाने गये ! किल्ले से गोलियों फी वर्षा हा रही थी, फिर भी देश-प्रेम के मतवाले वीर बड़ी कठिनाई से किसी न किसी प्रकार किले के नीचे पहुँच ही गये | निदान किले की दीवार में कई सुरंगे| बिछा दी गई' ओर उनमें बारूत् भर दया । श्राग के लगते ही बड़ा भारी घमाफ़ा हुआ ओर दीवार की इंटे हरिसिंह नलवा, निहालसिंह ओर अत्तरसिह पर आ गिरीं। ये तीनों दीर बुरी तरह से घायल हुए। एक राल की जद ली हुई हांडी इनके ऊपर शप्रुओं द्वारा फेंकी गई । हरिसिंह नलवा के दर कपडे जल गये, किन्तु
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की यातनायें भी उसका मुकाबिला नहीं कर सकतो थीं । चलते-चलते किसी की हृत्या कर देना अफगारनों के लिये मामुली सी बात थी | ब्राह्मणों पर अधिक अत्याचार करने के जिये राज-दरबार की ओर से कई. व्यभिचारियी स्त्रियां रखी गई थीं । वे सुन्दर रूपवती बहु-बेटियों को सीधे दरबार में सेज दिया करती थीं । इस दःख से दखी हो कर एक धत्ती-मानों परिडत बीरवर .ने अपने पुत्र सहित किसी प्रकार राज्य सीमा से बाहर हो कर लाहर की ओर प्रस्थान किया । उसने लाडोर पहुँच कर रणतीतसिंह के दरबार में तत्कालीम अत्याचारी शासक पधअतामुहम्मदख्ां झौर अजीमखां के रोमाश्वकारी कृत्यों का वर्णन किया । उधर उन दुष्टों ने पण्डित वीरवर का घर-बार लूट कर स्त्रियों का सतीत्व भट्ट करना चाहा | इसी दुःख फे कारण वीरवर की ुत्नो ने तो आत्म- हत्या कर ली, परन्तु उन दुष्टों ने उसकी पुत्रवधू को मुसलसान बना कर काचुल भेज दिया।
काश्मीरी प्रज्ञा का कष्ट दर करने के लिये २० जनवरी १८१६ को ३०००० सेना लेकर वीरशिगोसणि सरदार हरिसिंह नलवा अकाली . नेता सरदार फूलासिंदह तथा अन्य गण्य-मान्य वीरों सहित महाराजा रणजीतसिह काश्मीर की ओर रवाना हुए | वज्ञीराबाद के पास स्वयं तो . १०००० सैनिकों फे साथ रुक गये और वीर सेनानी हरिसिंद को कश्मीर पर चढ़ाई करने फे लिए भेज दिया | सरदार साहिब रास्ते में राजोड़ी, पुंच्छ आदि कई रियास््तों को दस्तगत करते हुए सोपियां के सेदान सें पहुंच गये जवारखाँ भी युद्धकी तेयारी कर रद्दा था। फिर कया था-रे जुलाई १८१६ को सवेरे ही दरिसिंद के सैनिकों ने.धावा बोल. दिया । दिन भर दोनों दलों
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( १२ )
बेगस जब जहांगीर फे साथ यहां आई तो उसने वहां के सारे पत्थर उखड़वा कर अपनी यादगार म अपनी एक ससजिद बनवा दी थी । इस प्रकार अनेकों रोमावचकारी दृश्य जब सरदार हरितसिह ने अपनी शआंखों देखे तो उन्होंने सोचा कि जब तक ये हृदय-विद्ारक दृश्य दृष्टि-गोचर होते रहे गे त तक हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के प्रति घृणा फे भाव बने ही रहेंगे इससे हिन्दु सुसलसानों का परस्पर प्रेम होता असम्भव हैं। इसपर विचार करने के लिये सरदार साहिय ने प्रप्तिद्ध परिडतों और सोौलवियों की एक सभा में यद्द घोषणा की, कि प्रत्येक ज्ञाति को अपने पूज्ञा-स्थानों पर पूजा करने फा अधिकार है । धर्मस्थानों की रक्षा करना राज्य का कतेव्य है। _स बात को सुनकर हिन्दुओं ने विनती की, कि महाराज इन मस्ज़िदों को ज्गों की त्यों ही रहने दे । इसको तुड़वा देने पर मुसलसान हमारे ' श्र बन जायेंगे ओर हम लोगों का यहाँ रहनो भी कठिन हो ज्ञायेगा। नलवा फे वहुत समभाने पर भी जूब वे न माने तो उनको अपना विचार ; वदल देना पड़ा । काश्मीर राज्य के खालसा राज्य अन्दर्गंत हो जाने पर हिन्दुओं का बड़ा भारी उपकार हुआ | मुसलमानी राज्य में चिरकाल त # हिन्दुओं को नंगो सिर तथा नंगे पाँच रहना पड़ना था। दिल्दू लोग घोड़े . की सवारी भी नहीं कर सकते थे | नलवा ने इन बातों को समूल॑ रूप से समाप्त कर दिया । यवरनों के राज्य से पूर्व सारे काश्मीर में हिन्दुओं की संख्या अ्रधिक थी पर कई एक कारणों से ६३ प्रतिशत हिल्दू मुसलमान बन चुके थे, अतः खालसा सरकार ने थह्द भी घोषणा करदी कि जो हिल्दू सुललमान बना हुआ फिर से हिन्दु धर्म अहण करना चाद्टे वह खुशी से कर सकता है । राज्-कमेचारी रिश्वत न लें इसलिये सबको उचित -वेतन दिया
( ह$४;॥ ) जाने लगा। स्थोग-धरन्धों की और अधिक ध्यान दिया गया। सारे प्रान्त में अमन-चेन स्थापित हो गया। हघर प्रहाराज्ा स्यान्ीनिद ने भथ देखा कि अच काश्मीर की व्यवस्था ठी क हो गई? अतः यदि ऋग् सात व्या सा शासक सी वहाँ भेत्त दिया ज्ञाय नो दाय सचारू रूप से भले सप्ता है | इसलिए २ वर्ष तक[सरदार हरिसिह ही सापनेर रखने के परचम 'फर दोदान मोतीराम को गवर्नर धना कर भेजा गया । क्याकि बीरशरोमशों सरदार हरिसिंद से अमी तफ बहुत सा कास लेने शेप थे ६ पेश्चासर का प्रान्त तथा अटक का ४लाकफा खलासा राज्य मे सास्मलत फरता धडच
रवाता हां पड़े । काश्मीरी ६नता ने बड़े दुस से ६ नपम्मर लग ट८म९ एग आप फ्री विदा छिया
॥ सरदार हदृरिक्ति अप परापिस हट रहे थे वे अभी सकज़फराबाद में गहि।बीवल्जा फे पास दी पोचे होंगे
हु कि के का ् ट & कि उन्हें पता पाला कि एहज़ारा थे; भपुन पार सनाझ थे भेता मार व है, ्ज के. #| सेफे खड़ी हें | इनहां ने फवल गांम्दा मांगने ८ लिए ही प्पने (श्यग्थ डर क््छ जिक दर | रो कं. हन्द तथा मुसलमान दनां को पस ४. पास भह्ा, किस्ठ छह ने एक छः ५ 3770 २. ९ की कं हा किक बसी के से सानी । ध्ाखिर सिकरों से रास्ता निहाहने हे शिए इसपर छागा थाह ् नी च्ञा की दिया सका का कोटा ग्रामाटय था, विरोवी इल मे भगन्दीाए कन ४झ़ | ड़ ऊू मर ऊ हा फर क्या था मांगली पर सिर्फ्सा पा धमिदार दी गया । हद हार च्मः छह
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चली ने संधि फर भी । उन से युद्ध फा एर्जाना किया रया । दी होम दिन पे;
बाद सरदारहरिल+िए सुधाय पदाव पर सारा मे छिवमाल ॥ सागिश!
सादिय ने सरदार जी का बहा सम्मान दिया। फिर हाटर प्रण्त पर वहां
भरने का प्रस्ताव पडा साया । परन्त पहाड़ी भूरे धर हो धावमरए
( ६४)
करने का निश्चय हुआ | क्योंकि यह शधिक सम्पन्न प्रान्त था। उसका शासक हाफि ज अहमदरवां बड़ा वीर योद्धा था । ख्स् के पास २४००० ये. लग-भग सेना थी। दूसरा यहां चढ़ाई करने में कठिनाई यहद्द थी कि अुधरे रेतीला पान्त था। अतः पानी की बड़ी दिकक्त थी। फिर भी पञ्माब के प्रतापी महाराज्ञा ने हरिसिंदद जेसे वीर सरदार को पाकर चुप रहना अच्छा नहीं समझा ओर ३०००० सेनिक्रों को लेकर मुँधरे की ओर प्रस्थान किया । सेना तीन भागों में विभक्त की गई। सरदार हरिसिंह की-टुकड़ी ने रास्तों के किलों को फतह करते हुए मुँधरे पर अक्रमण कर दिया | तलवार से तलवार बजने लगीं। चार दिन तऋ तो बड़ा घमासान युद्ध हुआ । पाँचवें दिन नगर के अन्दर फोज प्रविष्ट हो गई । वड़े २ घीर-सेनिकों सहित नवाव क्रिले की रखवाली कर रहा था, परन्तु खलासा फोन ने तोपों द्वारा एक्र ही दिन में किले की दीवार गिरा दी । नवाब ने बड़ा मुकाबिला किया, किन्तु सरदार की पमचमाती तलवार को देख कर उस के पाँव उखड़ गये | वह अन्तः पुर में जा कर छिप गया । फिर क्या था अन्न्त:पुर फे चारों ओर सिक्षखों का कड़ा पहरा क्ञग गया । नवाब ने जब आधीनता स्वीकार ऋरली तो उसे सहराज्ा के पास भिजवा दिया गया | महराज्ा ने उसे प्राण-दान देने . के झतिरक्ति डेरा इस्माईलखां में एक बड़ी जागीर भी दे दी । इस प्रान्त का गवनेर सरदार अमरसिंह को. बना कर नल्नवा सरदार सहित 'महराजा रजघानी में वापिस लौट आए । जब लाहौर में विज्ञय के उप-. :लक्ष में खुशियां मनाई जा रहीं थीं ती हजारा से .बिद्रोह का समाचार आप्त हुआ । महराज ने हज़ारा का विद्रोह शान््त करने फे लिए .सरदार
( १४५ ) नलवा को वहां का गव नर बनता कर सेज्ना | ऐसे जिकर काय के लिए हरिसिंद नलवा से बढ़कर मदहराजा फो अन्य फोई वीर उपयुक्त मास्टग न॑ पड़वा था। यही कारण है छि सरदार हरिसिंद सितय राप्य का विम्तर फरने में दूसरा र्णज्ञीतर्सि्ट साना जाना £ै । मिश्ख राज्य का एक स््तम्म यदि स्खूनितर्लिह था खो दूसरा हरिण्हि नया |
ख्ाखिर पंज्नाब फेसरी को ब्यापा से नलवा सरदार सन ४८मम पे हज़ार में पहुँच गये ओर उन्होंने शाशमर्ख हरा फे प्रदेश पर शआराक्रमण कर दिया | हाप्तमखाँ फो बंदी ना सिंह जो कि उस प्रान्त फा गबनर पा मे हत्य हत्यारों को आम ज्ञनदा के सम्मुख तोपों से धड़ाया गया। पस्य भी लितनी लड़ाकू जातियाँ थी नलवा ने एक एक फरएे सभी फघार रपट) ज़िला इज्ञाय छ मैंदानी आात्त को आधोन करने के इपरस्स अदुन
तिनावली आर सोकली भाभनि फे पहाड़ी प्रान्ता दा भी इन्हींने «पे खधमिकार में ;र लिया। सरदार साहिद को एशारा को शासन: प्रसाद
फरते हुए प्यनी शक साह्न भी नहीं हुआ था कि सहारा रतन ने उन्हें! लाहौर वापिस घुला लिया घर इस्दें झाइुल हो गुल गफगे मे
घ् ड कर त्नीम ४ अजब अथ 25 ४५ * परिझित ऋराया कि मसहम्द कक्ञीमर्शा सिकायो मे साहा सता
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( .१६ )
चिन्तित था । अतः अब उसकी यह प्रबल इच्छा थी कि तुमुल युद्ध करफे पघ्िक्सखों का परास्त किया जाय । इसी उदेश्य से उसने फरवरी १८२३ में काबुल से कूच किया। पेशापर पहुँचते ही. मुदृस्द्खां ने भी हस्तामी प्रदेशों में मुसलसानों को सिक््खों के विरुद्ध खूब भड़काया । इससे इस्लाम धम के पक्तपाती 'असंख्य कट्टर मुखलमान युद्ध फे लिए तय्यार हो गये | अब फे संप्राम-क्षेत्र नोशहरा बना। मुहस्पद्खाँ ने कछ सेनिकों को पटक की ओर सिक््ख सेना को रोकने के लिए भेज्न दिया। सिक्खों की सेना से मुहम्मद को सेना संख्या में बहुत अधिक थी ! इसलिए अटक नदी के पुल को यवन-सेनिकरों ने तोड़ दिया। अब सिक््ख 'सपाहियों को खाद्य-सामप्री मिलनी भी कठिन हो गई । यह समाचार जब पशञ्चाव-फेसरी को मिल्षा तो उन्दोंने अकाली फूलासिह को -- अपने साथ लेकर सिंधु नदी की ओर कूच क्रिया ओर पुत्र फे हूटे जाने से उन्होंने अ4ना घोड़ा नदी में डाल दिया। उनकी देखा-देखी सभी स्क्ख सरदारों ने नदी में अपने २ घोड़े डाल दिये ओर कुशल-पूर्वक पार ज्ञा उतरे । महाराजा के पहुँचते द्वी शत्र -सेना में भग-दौड़ सच गई ओर संरदार साहिब ने जहांगीरा दुर्ग पर अपनी विजय-पताका फहरा- दी। कुछ दिन विश्वास करने के बाद १४ सार्च फो खातसा फोज ने नोशहरे के मेदान में अज्जीसखां की सेना पर-भी धावा बोल दिया । दोनों दल बड़ी वीरता सेल । अन्त में सररार हरिसिह ने उनका बहुत सा युद्ध-सम्बन्धी सामान छीन लिया | १४ बड़ी ओर १८ छोटी तोपें भी सिक्खों के द्वाथ लगीं । अज़ीमखां भाय गया ओर :सिक््खों की व्रिजय हुई। सरदार हरिसिंदह की देख-रेख में यारमुहम्मद्खां को पेशावर, का अस्थायी
(१७ )
शासक बना दिया गया। इधर दज़ारा के तारीन' ओर तोरखेल लोग
, अंन््धार पर्वत की गुफाओं ओर घाटियों से निकल कर मुहम्मदर्खाँ तारीन
के नेतृत्व में आस-पास के गांवों में लूट-मार किया करते थे, अतः नत्नवा सरदार उनका दमन करने के लिए वीर सेनिकों के साथ स्वयं वहां गये किंतु नाड़' ग्राम के पास शत्रुओं ने सुरंगे विछा रखी थी। सिक्ख सरदार को पास पहुँचा देख सुरंगों को शत्रुओं ने आग लगा दी जिससे चड़े धमाके के साथ पत्थरलुढ़कने लगे । सरदार हरिसिद्द भी घायल हो गये । सरदार मोहनसिंह ने उनकी सहायता की ओर उन्हे अपने डेरे पर मभिजवा दिया। स्वस्थ हो जाने पर खेद्राबाद में सेयद् अद्दमद् से उन्हें चुमुल युद्ध करना पड़ा । अन्त में विजय दरिसिंह नलवा की हुई । महाराजा रणजीतसिंह सारे अफगाती प्रदेश को अपने राज्य में मिलाना चाहते थे किंतु पू्र में इनको अंगरेज़ों की ओर से भी खतरा था इसलिए इन्होंने यही उचित समझा कि पहिले अंगरेज्ञों से सं।ध की बात- चीत की जाय | इस कार्य फे लिए मद्दाराज्ा ने नलवा सरदार को नियुक्त
, किया ओर सहायक रूप में दीवान मोतीराम, तथा फ्रक्कोर श्रभीजुद्दीन,
सरदार अजीतसिंह ओर लहनासिंह आदि भी उनके स्तथ मेजे गये | यह डिपु- टेशन लुधियाना होता हुआ शिमला पहुँच गया | अंगरेज़ों को ओर से इनका स्वागत अच्छी प्रकार से किया गया । मुलकात का दिन भी नियत हो गया अंगरेज्ञी फोज ने सरदार साहव का बड़ा द्वी सम्मान किया। बड़े बड़े अंगरेम अफसर उन्हें मिलने आए | आखिर ग्रवनर जनरल ला विलियम वेस्टिछू से भी मुलाकात हुई ।कुशल-:शन के बाद दोनों ओर से अंट (उपहार) दिये गये ओर झअंगरेज़ी सरकार की पज्ञावी सरकार से
( ९८ )
पक्की मित्रता दो गई | गवेनर जनरल भी वीर सिक्खों से मिले रहना ही उचित समभझ्तता था | इस लिये महारात के प्रतिनिधियों से मिल कर वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। अंत में प्रतिनिधियों को विदा करके ग्वेनर जनरल ने महाराजा से मुजल्ञाकात करने के लिए रोपड़ नामक स्थान निर्धारित किया । ह
वीर सेनानी सरदार हरिसिंह का सारा जीवन लड़ाई और मार-काट में ही बीना । लड़ाई से छुट्टी पाई तो झट उन्हें शासन-प्रबंध सोप दिया ज्ञात सींमा प्रांत का बहुत सारा भाग स्वाधीन कर लेने पर भी खेवर के दरें से काबुल के आक्रमण का भय सरदार साहिव को सदा बना रहता था ! इसलिए उन्होंने कादु ली पठानों को रोकने फे लिए खेबर के समीप जमरोद नामक स्थान ५र एक बड़ा सज,बूत किला बनाना झुरू किया । इसकी दीवारे' चार गज चौड़ी ओर १२ गज डँची थीं। उसमें युद्ध- सामग्री भी अधिक मात्रा में रख दी गईं। किले में पानी का प्रबंध नहर द्वारा किया गया । सरदार महासिंहद को किले का रक्षक .नियत किया : गया । उधर काबुल के शासक ने जब यह समाचार सुना तो वह बहुत घब- राया, किंतु इस्लाम फे नास पर काफिरों से युद्ध करने फे लिए उसने यवनों को खूब भड़काया । इस प्रकार सिक्खों से लड़ने वाले मुसलमान इस्लाम की रक्षा्थे अधिक से अधिक संख्या में इकट्र हो गये | अब काबुल के शासक दोस्तमुहम्मद्खाँ ने अपने एक विश्वस्त सेनापति. के साथ: -१५ अग्रेल १८३१७ को एक बड़ी भारी सेना सीसा प्रांत की ओर, रवाना. की अफगानों की सेना जमरोद आ पहुँची, किन्तु सिक्खों की ओर से कोई तय्यारी नथी । क्योंकि इधर कुँवर नोनिद्वांलसिंह का विवाह था
( १६ )
राज्ञा महाराजा, नवाब आंर अंगरेज़ों के सेनापति आदि बढ़ेश्लोग ला
आये हुए थे | महाराजा ने अपनी सारा सेना ल्ञाहार बुला रखी थी । जप- रोद के किले पर अफगानां ने अक्रामण कर दिया। २००० सिक््ख सेना ३०००० अफगानों का भला केसे सामना कर सकती थी | आखिर किला घेरे में आ गया । खाने-पीने का सारा प्रबन्ध टूट गया | सिक्ख-सेना अब भूखों मरने लगी । रात को महा्तिह ने एक सभा बुलाई और सरदार हरिसिंद को साहयता के लिए एक पत्र लिखा | पत्र-बाहक कोन बनते चारोंओर दुश्मनों का घेरा पड़ा था तिल-भर जगह भी खाली न थी । इतने में एक्र वीराह्नना रसोई-घर से निकली और उस ने पेशावर पत्र पहुँचाने का भार अपने ऊपर ले लिया । उस ने पोष्तीन इल्टा कर पहन ली ओर वह कुत्ते की भांति चलने लगी। इस प्रकार वह बीर रमणी पेशावर पहुँचीं गई | उस संभय सरदार हरिशिदह्द बीमार अवस्था में लेटे पड़े थे। कुधल पत्र-पढ़ते ही दस दृज॥र सेना को जमरोजद जाने की आज्ञा दे दो | स्त्रय॑े भी सरदार हरिसिंद सूर्योदय से पहले ही जमरोद जा पहुँचे । भेड़िये क्री भांति नलवा सरदार अफगानों पर टूट पड़ा। बड़ा भयंकर संग्राम हुआ । जब पढठानों को इस बात का पता चला कि हरिलिह इस लड़ाई में स्वयं लड़ रद्द हेंतोवे भागने लगे। भगदोंड़ का पीछा सरदार निधानसिंह ने किया | पीछा करते २ खबर के दर्रा तह जा पहुँचे । हरिसिह को भी साथ जाना पड़ा । इतने में पठानों की एक ताज्षा ” दम सेना आगई ओर फिर नये सिरे से लड़ाई शुरू दो गई । गुफा में पठारना ने हरिसिंद पर गोली चला दी। एक गोली पेट में ओर एक
( २० ) पांवों में लगने से वे घायल्न हो गये, किन्तु घोड़े को दौड़ा कर वे ढुगे में ज्ञा पहँचे | परन्तु उनकी हालत विगड़ती ही गई। उन्तके शरीर से खून का फञ्वारा छूट रहा था। उनको ऐली दशा देख कर सारी सिख-सेना शोक-सागर में छूब गई । महाराणा प्रताप की भांति मृत्यु-शय्या पर लेटे हुए सरदार हरिसिंह नल्वा ने सिक्ख सरेदारों को चीरता-पूरवंक लड़ने की वधाई दी ओर उन्त से कहा कि अब मेरी आत्मा इस शरीर से निक्रलना चाहती हे। आप लोग विजय- | पताका को शान तत्र तक रखें रहना जबतक कि महराजा सादिच यहां स्वयं न पहुँचा जायें । सरदार साहिब इन उपदेशों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए | यह सन् १८३६ का समय था जब कि पंज्ञात्र को ऐसे वीर से हाथ धोन पड़ा । महाराजा को जब यह समाचार मिला तो वे. कुछ देर तक चिन्ता-सागर में डूबे रहे तथा उंन के आंखों में आंसूओं की अविरल धारा वह निकली । सरदार हरिसिंह नलवा वास्तव में ही एक . अद्वितीय वीर थे । उनका मुख सूर्य-मण्डल की भांति चमकता था। उन के नाम में ही इतना तेज था कि कोई भी शत्र् उन्तके आगे न टिक्र सकता था | उन का शरीर लम्बा-चोड़ा और सुन्दर था। पठानों फे लिये तो मानो वे होआ ही थे | अभी तक पठान ख्ियाँ रोते हुए बच्चों को चुप कराने के. लिए 'हरिया आया, हरिया आया, कह कर के चुप कराती हैं । वे शस्त्र-विद्या में बड़े निषुण थे। युद्ध-भूमि में उनके सामने बलवान से बलवान शन्नु का भी खड़े रहना असम्भव
था । यदि हमसे कोई पूछे कि संसार में सफल सेनापति- कोन है ? बिना मिकक के हम तो यही कहेंगे कि हरिसिंह - नलवा। यद्॒पि इस
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प्रश्त का उत्तर हमारे फ्रांसीसी भाई यदू देंगे कि नेपोलियन दी सब से बड़ा विजेता था | कुछ लोग माशेज्न हिन्डन वर्ग, ला किचनर, जनरत करेवजे, उयूक आफ वर्लिद्नटन, हलाऊू खां, चढ्लेज़खाँ रिचर्ड ओर इल्ला- उद्दीन आदि का नाम लेंगे, परन्तु मेरी अपनी धारणा है कि यूरोप में इस मद्दात ओर सफल सेना-नायऋ ह्रिसिंद नलवा का नाम तक भी कोई न लेगा परन्तु, जो लोग भारतवर्ष के इतिद्दास से भल्ी-भांति परिचित हैं वे इस अद्वितीय सेनापति का नाम खूब जानते हें ।
यद्यपि इनके विषय में किसी ऐतिहासिक ने कुछ लिखा नहीं है फिर भी जहाँ तक मेरा अध्ययन है ओर मेंरा विश्वास है कि संसार भर में सबसे बड़ा सेनापंति नलवा ही हुआ है । उसने थोड़ी सी सेना से जिस प्रकार अफिगानिस्तान ज॑ से प्रान््त को पराजित किया ओर फिर पठनों पर अपनी सामरिक योग्यता की ज्ञो छाप ज्गाई वह उसकी महत्ता का प्रत्यक्ष प्रमाण है । अफगानिस्तान वही देश है जिस में अद्गरेज्ञी सेना का तीन बार संद्ाार हुआ। यदि अर गरेजो सेना ओर उसका महान कोप हरि- सिंह नलवा के पास होता तो शायद् वह कुछ साल में हो समूचे एशिया ओर सारे यूरोप पर भी अपना अधिकार जमा लेता । चाहे दरि्सिद् नलवा को महायुद्ध ओर वाटरलू जेसी लड़ाइयों में भाग लेने का श्रवरुर नहीं मिला पर उसक्री प्रारम्भिक जीतें ओर उसकी युद्ध-नीति अपना उदाहरण आप ही थी। जो लोग ज्ञाति ओर धर्म की मर्यादा पालन करने के लिए वीर सैनिक बनना चाहते हैं उनको चाहिए कि वीर सेनानी हरिसिंद नलवा के चरित्र को अवश्य पढ़ें तथा इसका अनुकरगा करें। सेना-संगठन ओर सेना-संचालन के ज्ञो गुण इनमें पाये जाते हैं वे अन्यत्र दुलेभ हें।
सरदार साहिब का व्यक्तिगत चरित्र बहुत उच्च था। संसार में ऐसे गिने-चुने ही व्यक्ति हुए हैं जो अपनी पूर्व अवस्था में साधारण कोटि को होने
बम
हि ।
( रर२ ) पर भी अपने अचत्तीय वाहु-चल और अलौकिक बुद्धिबल. से भिन््होंने अमर कीर्ति प्राप्त की है| प्राय: ज्ञो साधारण स्थति से उठकर किसी चपद पर पहुँच जाता है उसके चरित्र मअझनेक दोप आ जाते हैं। चह-कई प्रकार के दुब्येसनों में फंस जाता हैं। परन्तु ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित होने 7२ भी नलवा सरदार बड़ी सादगी, ओर सदाचार से रहता था। इसका जेस चरित्र निर्मल था वैसे ही स्वासाव गा बड़ा सघुर और लोकन-ंप्रय था। इसडी महत्ता का सब से बड़ा प्रमाण यही हैं कि शत्रओं ने भी इसफे गुणणों की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा को है । सरदार साहिब सचाई की ओर अधिक ध्यान देते थे | विजेता प्राय: विजत जातियों पर कठोरता का व्यवहार करते हैं, किन्तु नलवा सरदार बिना किसी विशेष कारण फे किसी पर भी रुख्ती नहीं करता था। इनकी उन््तति का एक "विशेष कारण यह भी था कि ये अपनी लगन के पक्के थे । जिस काये के पीछे पड़ जाते उम्ते पूरा करके ही छोड़ते थे | जमरोद् की लड़ाई का समाचार जब हरिसिंह ने सुना तो उस समय वे- बहुत तीत्र ज्वर से पीड़ित थे | फिर भी दस हजार सेना के साथ रातों-रात पेशावर से जमरोद की ओर रवाता हो गये | नलवा सरदार यदि चाहते तो कोई ओर अपना प्रतिनिधि सेज कर स्वयं विश्वाम करते, परन्तु उन्हें तो इस बात की लगन थी कि वे युद्ध-क्षेत्र को कमान स्वयं अपने हाथ स॑ ही रखें । ज्वर-पी डित होने पर भी नज्वा सरदार शेर की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़ा । पहिले दो आक्रमणों में तो पठान सेनिक ज्यों के त्यों खड़े रहे परन्तु सरदार साहिब ने जब पूरे जोर से तीसरा आक्रमण किया तो पठानों में भगदौड़ सच गई । भागते हुए पढठानों का. पीछा करता उन्होंने उचित नहों समझा, पर भगोड़ों का पीछा करने वाले सरदार नवानाद का साथ देना भो जुहूरी समक खेर के दर्रे तेक जा निकले । यदपि इस यद्ध में इनको विज्रय के साथ २ अपने प्राणों से भी वियुक्त
( २३ )
होना पड़ा, इस प्रकार की वीरता के साथ इनकी अटूट लगन-शीलता का पूर्ण-रूप से पता चलता है । जो लोग किसी वीरता में आगे बढ़े हुए होते हैं उनका हृदय भी बड़ा उदार होता है । एक समग्र की बात है कि हरिसिंह अपने सेनिकों के साथ ज॑गल्त में डेरा डाले हुए थे कि इतने में एक हिन्दू ने हअकर प्राथेता की--महाराज ! मैं एक अच्छे वंश का हिन्दू नवयुवक्त हूँ यहां से थोड़ी दूर पर मेरा विवाह हुआ था | कल हम लोग बड़ी धूम-धाम से लोट रहे थे वो किसी ने मिचनी के सरदार खान को सूचित कर दिया .कि एक हिन्दू सुन्द्र स्त्री तथा बहुत सा रूपया लेकर आ रहा है । उस मे उसी समय एक घुड़सवार वीर को हसारे पास सेज् कर कहला भेजा कि नववधू ओर घन-दोलत को मिचनी के खान के पास भेन्न दो | आखिर वह मेरी नवव्रधू को जुबदंस्ती घोड़े पर बिठा ऋर ले वाया । हम लोग सब फे सब बाराती खान से प्रार्थना करने के लिए गये, परन्तु बहुत कुछ कहने-सुनसे पर भी उसने कुछ भी वापिस नहीं किया, पत्युत लूटकर हमें भी बन्दरी बना लिया । सें किसी प्रकार से छुटकारा पा कर आपकी सेवा में आया हूँ, आप कृपा करके हमारो सहायता करें । उच्त नवयुवक के साथ खान का एक गुप्तचर भी हिन्दू बन कर झआाया था | सरदार साहिब नोति-निपुण थे, वे समझ गये कि इस गुप्तचर के सामने केसी बातें करनी चाद्विए । सरदार साहिब उलल््टे उस हिन्दू को डॉँटते हुए कहने लगे--अधिक ' वक-बक मत करो | जेंसे आये हो बसे ही वापिस चले जाओ | में पाँच हजार सेना के स्वामी खान से लड़ाई मोल लेना नहीं चाहता । इन बातों को सुनकर गुप्तचर पर ऐसा. प्रभाव पड़ा कि उसने मिचनी के खान को पूरी तरह से विश्वास दिला दिया कि सरकार आप से तो हरिसिद नल्वा भी डरता है। इस समाचार से खान तो निश्चित दो गया, परन्तु ह्विन्दू ज्ञाति फा रक्षक्त वीर सेनानी
( रह.)
इस बात फो केसे सदन कर सकता था | उसके तन-अदन में आग सी लग रही थी | कुछ सोच-विचार कर सरदार सादित्र ने रात को महारसिह को बुलाकर कह्दा कि श्रभी सारी सेना को मिचनी पर श्क्रमण करने के लिये तथ्यार करो | मिचनी के पास पहुँच कर नलवा सरदार ने एक दूत खान के पास भेज कर कह्दला भेजा कि उस ग्रीव हिन्दू की स्री को सकुशल वाषिप्त लोटा दो, नहीं तो सारी मिचनी नष्ट-श्रष्ट कर दी जायगी | पहिले तो खान दरिसिंह का नाम सुनकर डर गया, किन्तु स्री को वापिस न देने की जिद में पाँच सां 4निकों सहित लड़ाई के मंदान में आ डटा । धमासान युद्ध हुआ, सिक्खों की तीखी तलवार के अरे विज्ञासी मुसलमान भला केसे टिक सकते थे | सरदार साहिब ने - अपनी तलवार से खान के दो टुकड़े कर डाले ओर उस हिन्दू अवला - का उद्धार किया। इस घटना से सरदार साहिब की शरणागंत सम्बेदना . भन्नकती है। महराजा रण जीत जत्र स्वयं शरणागत की रक्षा करते थे तो उनके प्रधान सेनापति नलबा सरदार का ऐसा होना स्वाभाविक ही था | यह हम पहिन ही कह झाये हैं कि नलवा सरदार साधारण परिवार के पुरुष थे ओर उच्च पद पर प्रतिष्ठित हो जाने पर भी वे अपनी पूर्वावस्था को नहीं भूले थे । जिस समग्र उन्होंने ठल हिन्दू युवक की आते पुकार सुनी तो वे मन में इस वात का अनुभव कर रहे थे क यदि इत युवक्र के समान मेरी अवस्था होती तो मुझ पर क्या गुजरती । प्याज ईश्वर की कृपा से यदपि में बड़ा आदमी वन गया हूं तो भी मुझे अपनी पूवेवस्था को भूलना नहीं चाहिए | पाठकों को यहद्द बात स्मरण रखनी चाहिए कि ऐसे उच्च विचार किसी विरले मनुष्य के ही होती है ।.
सीमा प्रान््त के अफगान तथा पठान इक्के-हुक्के हमले करके आज भी वहाँ के हिन्दुओं को सताते रहते हैं । मद्दाराजा रणजींतर्सिद के
न्ड
नर ).
राज्य-काल से पृवे वो इनके अत्याचारों की पराकाष्ठा थी । हरिपुर हजारा को स्गाधीन करने के पश्चात् वहाँ की शासन-व्यवस्था ठीक करने के लिए सरद्.र नलवा को नियुक्त क्रिया गया । कुछ दिलों के पश्चात् भह्दरात्रा रणजीतर्तिह का आज्ञा-पत्र सरदार साहिब की मिला फ़ि डेरा गाजी- खाँ ओर डेरा इस्माईलखाँ से राजस्व प्राप्त किया जाय | सरदार साहिब डेरागाज्ञी खाँ की ओर प्रस्थान करने को द्वी थे कि पठानों ने हिन्दुओं को सताना प्रारम्भ कर दिया | उन्होंने कई हिन्दू स्लियों को पकड़ लिया | सरदार साहिब को जब यद्द समाचार मिल्षा तो उन्होंने लोटते ही अत्या- सारी पठानों को आ घेरा ओर उन्हें परास्त कर इनकी एक हज़ार के करीब ज्यों ओर बच्चों को बन्दी बना पढानों को कहला भेजा कि यदि तुम हिन्दू स्त्रियों को छोड़ दोगे तब हम भी ठुम्हारी मख्तरियों को बालकों सहित छोड़ देंगे । उधर मुसलमानों ने सारी हिन्दू स्त्रियों को छोड़ दिया ओर इघर नलवा सरदार ने बड़े आदर के साथ ख््ियों को उनके अपने-अपने घरों पर पहुँचा दिया । झ्राक्रमणकारी पठान हिन्दू झ्लियों का सतीत्व नष्ट करने के लिये उनका अपहरण करते थे, परंतु नलवा सरदार ने तो ऐसा नहीं करना था, उन्होंने हिन्दु खतरियों का परित्राणु करने के लिए ही उन यवनियों को बनन््दी बनाया था। किसी भी सिक्स सिपाही ने यव्रन-श्तियों के साथ बुरा व्यवहार नहीं दिया। यह सब नलवा समदार की सच्चगिच्रता दी थी | बोर सेनिक को इन्द्रिय- दमन की बड़ी आवश्यकता होटी है ।नल्वा सरदार तथा उसके संनिर्कों में यह विशेषता पूर्णा-रूप से विद्यमान थी । ये ल्ञोग प्राचीन हिन्दू संस्कृति के रपासक तथा संरक्षक थे ।
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खालसा राज्य फा प्रधान सेनापति होने से सरदार साहिब को यय्पि इधर उधर जाने फा समय कम मिलता था | किर भी मद्दारात्ना रण त्ीत- सिद्र की गवनेर जनरल से मुलाकात हो जाने के बाद सरदार साहिब कुछ दिनों के लिए तीथ्थ-यात्रा के बहाने काशी चर गये | उच दिनों अमृतसर की एम रत्री भी तीर्थ-यात्रा के लिये यहां आई हुई थी। देवयोग से वहीं दस एक छोटा सा लड़ छा मर गया | जत्र वह अच्ला उस बालक को जज्ञाने के लिए मुर्दा-घाट पर पहुँची तो मुर्दा वाट के संर- - कज्षक ने सवा रुपया टेक्स मांगा, किंतु बद वेचारो निर्धनस्रो कहां से देती। उसके पास तो एक कोड़ी तक भी न थी। निदान ज्ोटकर वह अबला नक्तवा सरदार के पास आईं, दुखिया को बान सुनकर सरदार सादिय का करुणा-पूर्ण हृदय उमड़ आया | इउन्हों ने अपने नोकरों को भेजकर विधिक्त् मृत वालक का दाह संस्कार कराया ओर मुर्दाघाट के ठेकेदार को घुल्ञाकर कह्ा-आज से लेकर ज्ञात्री मुर्दे को वित्ता ठेके जलाने की आज्ञा दे दिया करो | इसके बदले में जिवना रुपया लेना हो बह मुझ से 'माज ही ले लो। ठेकेदार ने कह्दा, यह भूमि बड़ी कीमती हैं, परंतु यदि आप इसे खरीदना द्वी चाहते हैं तो जितना टुकड़ा आपने लेना द्वो उतने पर रुपयों का फशे विछावा दो इतना कर देने पर मुझे लाभ हो या दानि आप को अवश्य उतनी भूमि दे दूँगा । प्रत्क्षा के अनुसार दोनों ने अपना-अकना कार्य किया । परिणाम स्वरूप आज्ञ तक भी पंन्नावी मुर्दा काशी में बिना टेक्स के ही जलाया जाता हैं | सरदार साहिव को अपने श्रांत से कितना श्रेम था - इस घटना से पाठक स्त्रयं ही सम गये होंगे । इसके अतिरिक्त वे दान-
द्र्धि
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पुण्य भी बहुत अधिक किया करते थे | ये जेसे शक्तिशाली और बहादुर थे उससे भी कहीं अधिक उदार-हृदय भी थे | इनकी महत्ता की स्वयं सद्दाराजा रणजीतर्सिह मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा क्रिया करते थे | तत्कालीन अंगरेज़ लोग भी इनका कम आदर नहीं करते थे। जिस समय महाराजा रणजीतसिंह ने हरिसिंह नलवा को अपता राजदूत बनाकर गवर्नर जनरल से मिलने के लिए भेजा उस सभय की सज्ञघन्न एक अनुपम सहत्व रखती थी | महाराजा ने सज्ञावट के लिए सोने के साञ् से सजा हुआ एक हाथी ओर चांदी के साज सदह्दित एक सुन्दर घोड़ा भी इन के साथ फर दिया। नालागढ़ से होते हुए जब वे सपादु को भी लॉँघ गये तो शिमले के निकट अंगरेजों ने इनका बड़ा स्वागत किय। अढाई हजार रुपया ओर ६४५ थाल भोजन के रूप में सरदार जी को प्रतिदिन अंगरे + की ओर से सिलने लगे। सरदार साहिब किस कोटि के आदमी हैं इस बात को चतुर अंगरेज खूब जानते थे। अन्यथा साधारण दूत की तरह ही इनका भी स्वागत करते । इतना ही नहीं सरदार साहिब को निवास-स्थान से लेकर मिलने के निश्चित स्थान तक दोनों ओर अंगरेज़ी सेना स्वागत के लिए खड़ी कर दी गई। सरदार साहिब को लेने के लिए बड़े-बड़े अंगरेज़ हाथों में पुप्पमालाएँ लिये रास्ते में ही प्रतीक्षा फरते रहे तथा गवनर जनरल का चीफ संक्रेटरी उन्हें बड़े आदर से मित्रा | गवनर जनरल ने उनका इतना सम्मान किया कि अन्य किसी राजदूत को ऐसा सम्मान शायद ही कभी प्राप्त हुआ हो । सरदार साहिव की सदा यही भावना रहती थी कि यदि भिन्रता से
कार्य चल जाय तो व्यथ में ही रक्तपात क्यों किया जाय।जा इनपखोी
( र८ ) वीरता फो अच्छी तरइसे जान जाता वद इनसे टक्कर छेने की कभी नहीं : सोचता था। अंगरेजों फरो श्रपनी वाक-चातुरो से नल्वा सरदार ने ऐसा प्रभावित कर दिया कि अंगरेजों को खालसा राज्य से कभी भी लड़ने - की आतव्रश्यक्रता नहीं पड़ी ।
दूत के कार्य में भी वीर सेनानी पूर्ण-रूप से सफल हुए । इससे उन की विलक्षण प्रतिम; का पता चलता है। यथपि बाद में सद्वाराजा भी गवनेर जनरल से मिले ओर परस्पर संधि की तीन शर्तें भी तय हुई'। ' फिर भो अंगरेजों फो खालसा राज्य के प्रति मिन्रता-पूर्ण ध्यवहार कराने का ओय नलवा सरदार को ही है । झुँधरे की लड़ाई में खालसा सेना को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था | सरदार हरितिंह की सेना तीन दिन के घोर संग्राम के | बाद रास्ते में अनेकों दुगों को जीतती हुई चोथे दिन आतःकाल मुँधरे पर चढ़ आई । पठान लोग भी सामने आ डटे, तलवार से तलवार बजने लगी ओर तोपें आग उगलने लगीं । सारे आकाश में बारूद का घुँआ ही धुँआ छा रहा था । नवाब हाफिज अहसदुखां के किले के चारों ओर घेरा डाल दिया गया | दोनों ओर से गोली ब(सने लगी । पठान लोग मन में भयभीत हो रण छोड़कर भागने लगे, कई तो खालसा फोञ में ही आ मिले। दुर्ग के एक भाग के घराधायी 'दहो जाने पर सरदार : घाहिब २००० सेनिकों सद्दित किले फ्े अन्द्र घुस आये। नवाब भागकर : अन्त:पुर में ज्ञाछ्िषा । ऐसे समय पर यदि कोई मुसलमान आक्रमणकारी ' गैता तो वह अन््तः पुर में अवश्य धावा बोल देता, किन्तु ये तो धर्म-युद्ध : + पक्तपाती थे। भागते हुए शन्र् को पीछा करना ये पाप सममते थे-। इसी
कै
€ २६ )
'कारणा रन्हों ने अपने सेनिकों को यह आज्ञा दी कि अन््तःपुर पर कोई “आक्रमया न करे । नवाब को जब बचाव का कोई उपाय न सूमा तो अपने विश्वस्त कर्मचारियों काजी गुलमुदम्मद ओर आलीजाद सिफन्द्रख; को हरिसिंह के पास सेज्ञ कर यह प्रार्थना की कि मुझे अपनी करनी का 'फल्न मिल चुका है अतः अब मुझे प्राण-दान दिया जाय, साथ ही मुझे अपने कर्मचारियों तथा बेगसमों के साथ सकुशल बाहर निकलने दिया जाय। उदार-हृदय नलवा सरदार ने हाफिज॒णां को केवल प्राण-दान ही नहीं दिया बल्कि महाराजा के पास श्रपनी ओर से उस की सिपारिश भी लिख दी। परिणाम-स्वरूप नलवा सरदार की कृपा से नवाब को : डेरा इस्माईलखां में एक बहुत बड़ी ज्ञागीर मिल गई । कहने का सारांश; यह है कि जब कभी शत्रु भी इन के आगे प्रार्थना करने आया और शरण, मांगी तो उन्हों ने उस के साथ भी बड़ी उदारता का व्यवाहार किया । |; खालसा राज्य को शक्तिशाली ओर विस्प्रत बनाने के लिये जहां कहीं भी नलवा सरदार लड़ने फे लिये जाते पहले तो वे शांति से अपने: प्रतिद्वन्दी को सममाने की चेष्टा करते, परन्तु जब वह नहीं मानता तब विवश होकर उस के साथ संघंष करते। युद्ध-छन्न में कभी भी इन की पराजय नहीं हुई, प्रत्येक युद्ध में अपने शत्र् आ पर इन्हों ने ऐसा
' सिक्का जमाया कि आज्ञ तक भी उनकी सन््तान हंरिसिंह का नाम सुन कर कांपने लगती हैं । विशेष कर सीमा प्रांत काबुल, कधार श्रौर अफगानिस्तान के निवासियों पर हरिसिंह फे नाम का एफ हीजझओा सर बैठा हुआ था । जिन बेर पढठानों का भय दिंदु जाति का स्वप्न में सुखी नहीं रद्दने देता था दथा सदियों से जिन पढ़ानों क. अत्याचारों क
( ३० )
हिन्दू जनता चुप-चाप सहनी चरी आ रही थो । उन्हीं पढ़ानों को वीरवर नलवबा सरदार ने इस प्रकार पछाड़ा कि आज्ञ भी पठान-स्त्रियां अपने बर्च्चो को चुप कराने के लिये “हरिया आया” कह कर उरांती हैं । मिन पठानों के आगे अंँगरेजी सेना भी अपने प्राण बचाकर भाग निकली सिक्खों की खालसा फोज ने नलवा सरदार के नेतृत्व में उनकी सारी छेझड़ो मिद्ठों में मिल्ला दो । नोशहरा, मुँधरे, अटरः तथा जमरोंद की लड़ाइयां इस बात को द्योवक् हैं कि नलवा सरदार क्रितना पराक्रमी ओर उत्साही दीर था। यदि पंजाब फेसरी महाराजा रण ज्रीत- घछिद को नलवा सरदार करा सहयोग न मिला होता तो सब्भव्र है कि वे एक छोटे से प्रांत के ही राजा वने रहते । इस लिये निःसंकोच यह मानना पड़ेगा कि खालसा राज्य की बृद्धि का सुख्य कारण . सरदार हरिसिंह नलवा ही था । बास्तव में उतका बड़ा अभाव-शाल्ी व्यक्तित्व था | उत्त के मुख पर मध्याह को सूर्य के समान अलोकिक तेज्ञ था-। युद्ध-्षेत्र में तो.बड़े २ लड़ाकू भी इन से हार खा जाते थे । राजनीति के विषय में भी इनके सामने इस समय का कोई भी राजनी ठिज्ञ. नहीं ठिकता था । ज्ञो भी इनसे ; धातचीत करने आता वही इन की हाँ में हाँ मित्रा देता था । ईश्वर ने यदि ; इनको वल बुद्धि दी थी तो शरीर की बनावट तथा रह्ञ-रूप में भी ये किसी : से कम न थे । ये दीर्घकाय एवं लम्बी सुज्ञाओं वाले वीर तेजस्वी पुरुष थे । / देपट-पुष्ठ अब्नों के साथ २ चुस्ती मानों इनसे गठ-नोड़ किये चेंठी थी। ;होर का आँखा के सामने भला किस की आँखें ठइर सकती. हैं । सरदार हे साहिन भी जिस से एक वार आँखे मिलाते वह अपने तन-बंदन की सुध-
सु
( र९ १
चुध भूले विना न रद्वता । इन में सब्न से बड़ी विशेषता यह थी कि ये जिप्त काम में हाथ डाज्ते इस को अधूरा कभी नहीं छोड़ते थे । आयु-भर शत्रुओं के साथ पूरे मनोवेग से लड़ते रछें। अपने सिपाहियों के खान-पान का तथा उनकी आवश्यकताशों का यह सदा ध्यान रखते थे। यही कारण था कि इनके दल के सिपाही बड़ी वीरता से जी तोड़ कर लड़ते थे » इनकी सेना में हिन्दु मुसलमान आदि सभी जातियों के ज्ञोग थे । इसी लिए नज्श सरदार ने धार्मिक पक्तपात का प्रश्न अपनी सेना में कभी भी न पनपने दिया। या तो सभी स्थानों पर इल्हों मुसलमानों से लड़ना पड़ा, डिन्तु इसहा यह अर्थ नहीं कि नलवा सरदार सुसलसानों के विरोधी थे या उनसे शबन्नुता रखते थे। प्रत्युत वे अत्याचारी पापी ओर प्रज्ञा-पीड़कों को कठोर दण्ड देते थे । चाह्टे बह मुसलमान हो; चाहे सिक्ख या हिन्दू । जो मुसलमान शासक अपनी प्रजा से अच्छा व्यवहार करते थे उन्तको नलवा प्तरदार ने कभी भूल कर भी दुःख नहीं दिया, बल्कि महाराजा से कह-सुन कर उन्हें बड़ी २ जञागोरें दिलवा दी | अते-तंहकाल वाला अवांबष मुहम्मद्खों अपनी प्रशा से पिता-पु। जला व्यवहार करता था। नल्नवा सरदार ने महाराजा से कह सुन कर उसे ६०००० फ्री जागीर दिला दी थी। इसी तरह अन्य कई भले मुसलमानों ही आपने मान बृद्धि की । नलवा सरदार के बड़े २ ऋम चारी समीर, मुंशी, आर पेशकार आदि भी कई एक मुसलमान हो थे । इनकी ददा- रता का सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कवि इन्होंने ४२००० की अपनी ज्ञागीर का प्रबंध-कर्ता फतेखां टिवाणा मुसलमान फो ही इनाया हुआ था ! यदि वे क्यों के सुरुद्वारे, तथा दिंदु-संदिर झा धन की स्ट्रायता देसे तो मुसलमानों ही मस्जिदों को भी आर्थिक सहायता से वस्चित न रखने थे ! हरिपुर में तेलियाँ को मुइल्ले की मस्जिद तथा गुमरांगला में वागवाली मस्न्िद इन्हीं क्री बनवाई हुई है । इन्हें घोड़े पालने का बढ़ा शाँद्ध था
( ह४ )
ओर स्वयं भी ये अच्छे घुड़सवार थे । युद्ध फे मद्दान में तो ये लगातार दो- दो दिन तक घोड़े की पीठ पर सवार रहते थे । ये स्वावश्म्त्री व्यक्ति थे बचपन से ही ये अपने बुद्धिवज तथा अपने शारीरिक बल से इतने उच्च पद् पर प्रतिष्ठित हो गये कि जिसकी कल्पना वे स्वयं भी न कर सझफते थे | अपनी योग्यता ओर कार्ये-कहुशलता से इन्दोंने मद्ाराजा रण भोत- सिंह को प्मपना बना लिया हुआ था । यही कारणा है क्रि मद्वाराजा साहिब हरिसिंदद नलवा को एक राजा के समान द्वो-समझते थे। इसी लिए तो - उन्होंने इनको दो प्रांतों काश्मीर ओर पेशावर में अपने नाम का सिक्का चलाने तक को भी श्ाज्ञा दे दी थी। इनकी वार्षिक आय ए१०-० रुपया के लग-भग थी। एक साधारण व्यक्ति को इतने उच्च पद पर पहुँच ज्ञाना इनकी महत्ता का जीता-जागता. उदाहरण है | इतने घनी-मानी होने पर भी सदा तितिक्षा से अपना जीवन व्यतीत करते थे। इतना होने पर भी ये आवश्यकता से अधिक नहीं बोलते थे। महापुरुषों का लक्षण हैं कि वे स्वभाव से ही मितभाषी दोते हैं। अपने राज्य के अतिरिक्त अन्य देशों की राजनीति से भी ये भत्ती भांति परिचित थे | ला विलियम वेंटिड्न ने इनकी दूरदर्शिता वथा गहन राजनीतिज्ञता की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की थी। इश्वरद्त्त प्रतिभा के कारण नलवा अपने हुगो का स्वयं ही निर्माण कराते थे | इससे इनकी वास्तु विद्या का ज्ञानकार होना भी जलिद्ध दोता हैं । इनको सिकक््ख घर्म , पर बड़ो “आस्था थी । गुरु ग्रन्थ छाहब के कई एक स्थल्ल तो इनको कण्ठस्थ हो गये हुए थे । प्रतिदिन अ्न्थ साहब के. पद् बोलने तथा नित्य नेमितिक क्रिया से निदृत्त हो कर सनिक-संगठन में ज्ञग जाते थे।
इतिद्दाध के प्रृष्टों पर अन्न कभी मह्दाराजा रण॒जीसिंह तथा खालसा राज्य का वर्णन आयेगा वहां कोई भी ऐतिहासिक इस वीर सेनानी को न भुज्ञा सके गा, क्योंकि खालसा राज्य के यह एक मूल स्तम्म था।
अनीनतत+नन क्रम
वेदान्त-केसरी स्वामी रामतीर्थ
संसार में आत्मा परमात्मा को एक मानकर मुक्ति फा संदेश देने वाला एक्रमात्न वेदान्य .शासत्र है। स्न्य देशों की अपेक्ता पुण्यभूमि. भारतवपे में अखंख्य विद्वान् भह्दात्मा कई सदियों से इस पवित्र शा की चर्चा करते चले प्य। रहे हैं। यद्यपि वेदों में भी इस शाजत्र को सत्ता विद्यमान है, परन्तु स्वामी शंकराचार्य ने ही वेदान्त का विकसित रूप विद्वानों के 'समक्ष रखा । उनका ,मुख्य सिद्धान्त यह था कि ज्ञीव और प्रद्य एक ह। -माया का पर्दा जब तक्र रहता है त्तब्र तक ये दोनों भिन्न २ दिखाई पढ़ते हैं. और इस पर्दे फे हट-जाने पर सीन ब्रह्म से भिन्न नहीं। इस , सिद्धात्त को उनहों ने अ्रद्वतवाद फे नाम से प्रचलित किया। स्वामी शंक्राघाय के बाद कई. विद्वानों ने तथा महात्माओों ने इस वेदाल्त का अध्ययन अध्यापन कर अपनी 'आत्मा को शान्ति प्रदान को। आत्मा को शान्ति प्रदान करने वाले इसी वेदाल्त शास्त्र का प्रभाव रामनीथ जी पर भो पड़ा | यों ठो ऋई विद्वान ओर उच्च कोटि फे भद्ात्मा अपनो आत्मा का उद्दार कर चुरू हैं पर अपनो आत्मा की शान्ति के बाद दूसरों की आत्मा हो मी संधार फी टुःसह आग से बचाता रंदामी रामतीथे का ही काम था। इनक समक्रोट्टि के महात्मा स्व्रामी विवेकानन्द जी भी हो चुके दे । उनसझा काये भी सराहनीय है। इन दोनों महापुरुषों ने अन्य दिद्वाम उदात्माओं ही भाँति केवल भारत में असिद्धि नहीं पाई
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बल्कि यूरोप, झमरीका तथा एंशिया मद्दाद्दीप में भी अपनी फ्ोर्टि-
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पताका फद्दराई। यह उनकी प्रतिभा का ही प्रभाव था हो विदेशियोंक्रो भी अपनी विद्या से प्रभावित कर सके। जहाँ ये महात्मा अ्रंप्रे जी के धुरंबर विद्वान थे । वहाँ भारतीय दर्शन-शास्त्रों के भी पूर्या ज्ञावा थे। यही एक विशेषता है कि अपनी भाषा, संल्कृति, सभ्यता का विदेशी भाषा, संघ्कृति, सभ्यता के साथ समन्वय फरना इन दोनों महात्माओं फी असाधारण शक्ति का परिचायक है। यहाँ पर हम फेवल स्वामी रामतीथे की जीवनी तथा उनके कायों क्रा उल्लेख करेंगे ।
ओऔ स्वामी रासतीथ का जन्म फाज् अक्ट्वर सन् १८७३ ईसवी है | आपकी जन्मभूमि पत्लाब प्रान््त के अन््तगर्त शुजरांवाज्ञा जिला का मराज्ी वाज्ा नामक ग्राम है। आप के पिता का नाम हीरानन्द और दादा का नाम रामकाल था। किंवदस्ती के अनुसार गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म इन्हीं के पृवेन्नों फे वश में हुआ था। सुना जाता है कि स्वप्मी राम का जन्म ऐसे समय में हुआ था कि या तो चालक स्वयं मर लाताया माता पिता इन दोनों में से एक की मस॒त्यु होनी अवश्य थी। ईश्वर की कुछ ऐसी इच्छा हुईं कि कुछ दिनों बाद सचमुच ही उनकी माता का देद्वान्त होगया ओर बालक बच गया। यह बात उन्तके दादा पं० रामत्ाक़् ने ही कही थी, क्योंकि वे ज्योतिष के प्रकाए्ड विद्वान थे। ज्योतिष शास्त्र के बन्न पर रामलांज् जी ने यह भी बतल्ला दिया था कि भविष्य में यह एक बड़ा भारी महात्मा द्ोगा । माता कीः झृत्यु के पश्चातू इनका लाज्षन-पालन इनडी फूफो (पिता की बहिन ) ने किया। शिश्षुविज्ञान वेत्ताओं ने यद्द बात स्पष्ट कर दा है कि माता का प्रभाव वाक्षक पर शत
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प्रतिशत पड़ता है। छुछ बातें माता खिखातों है ओर घहुत सी चातें माता के स्वभाव से|प्रभावित हो कर बच्चा स्त्रयं ही सोख जाता है | अब माता का काययेभर इनकी फूफी पर ही या और वह एक बड़ी घर्म-क्मेफरने वाली स्त्री थी। वह अपना समय अधि ऋतर देवता मो के पूजन ओर तीर्थां की यात्रा तथा साधु-संतों के दर्शनों में विताया करती । इसका प्रभाव बालक पर भी पड़ा। उसी ने ही इनका नाम तीर्थराम' रक््खा | वह जब भन्नन करने लगतो तो बालक तीथरास भी उसक्रा अनुकरण करता । इनको भन्नन फरने से बड़ा आनन्द मिज्रता था। आननद-प्राप्ति फे लिए ही इस संमार में बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी प्राणो प्रयत्त करते हैं ओर यह आनन्द बाज्क राम को फेवर मात्र भजम से हो मिलने लगा था। यहू विशेषकर अरिम! शब्द का उच्चारण करते थे। इिन्दू-प्रथा फे अनुपार पाँच वर्ष की श्ायु में इन हो स्कूल में प्रविष्ट किया गया | गांव फे पास ही एक प्राइमरी स्कूत्त था जिफयें उदूँ तथा फारणी पढ़ाई ज्ञाती थी | अ्साघाग्या बुद्धि होने के कारण तोरथराम ने ६ व ही छोटी आयु में ही इस स्कूल की पढ़ाई समाप्र कर लीं ओर दसमें वर्य में गुमरावाला फे मिशन हाई छ्कूज्ञ में प्रवेश क्रिया। यहाँ एक भक्त धन्नाराध ज्ञी रहा करते थे। उनकी देख-रेख में बालछ मीथंगाम शी पढ़ाई फा प्रवम्ध किया गया। ईश्वर का कैसा विचित्र नियम है कि पुरुष को जैसा बनता होता है उसछों बसे हो सद्दायरू मिल कर जाते हैं.।. धन्नाराम भी उच छोटो के भक्त तया चेड्ान्त शास्त्र के ह्वाता थे। जप ये लोगों को वेदान्त थी पुम्त रा का:पाठ सुनावा फरते तो राम भो बढ़े ध्यान से उनके उपदेश को सुनता । खत्तंगति: कथय किस्म करोनि पुप्ताम! बढ ऋष्ठादन इस याद 'ो
आर,
प्रत्यक्ष प्रमाण है. कि ज्ञीवन पर सत्रसे श्रधिह्र प्रभात्र सत्संगति का ही पड़ता है [बालक राम फे हृदय में यंह इच्छा प्रवज हो चुी थी कि में भी एक दि्त इसी प्रकार वेदान्त के उपदेश सुनाया ऋरूँगा.। इसी लिए वे भक्त जी की बड़ो-सेवा करते | साथ हो स्कृत् की पढ़ाई का भी पूरा ध्यान रखते | अत्येछ श्रेणी में सत्र-प्रथम रहना इनका एक साधारण काम था। १४ वर्ष की अव्रस्था में इन्द्रनि मेट्रिक परीक्षा पास कर लीं। सारी युनिवर्थिटी में ये सवे-प्रथम रहे। बाकफ राम फा उत्पाद बढ़ गया वह आगे पढ़ना चाहता था किन्तु उसके पिता फोई विशेष घनवान् न -थे, उनकी इच्छा थी कि यह अब कोई नोकरी कर ले जिससे घर वाल्नों का 'निर्वाद् चले। आखिर अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध राम:आगे पढ़ने के लिए ज्लाहोर के फोरमेन क्रिश्चियन कालेज -में प्रव्निष्ट डोगाये। पिता फी ओर से इनको कोई सद्दाग्रता नडों मिज्ञती थी। मेट्रिक में स्वे-प्रथम रहने के कारण यूनिवर्लिटी से इनको छात्र-बृत्ति मिज्ञा करती थी। उससे ही वे-फोस तथा पुस्तकों का प्रबन्ध करते थे और इधर उधर ट्यूशन करके अपनी रोटी का खर्चा निकाला करते थे। धन्ना भक्त यद्यपि आर्थिक सहायता यो से करते पर समय समय पर पत्र लिखऋूर उन्हें उत्साहित अवश्य करते रहते थे | वींथराम साधारण वेष-भूषा में ही रद्दा करते थे | सादगी से रहना इन में स्वाभाषिकर गुण था। यह बात संघार में बहुधा देखने में आतो है कि ज़ब कोई पुरुष किसी सनन््मांगे पर चलता है तो उसके राश्ते में कई बाधाएँ 'आश्षट्री दोदी हैं |: यही बात इनके साथ हुई |. एक्र तो पिता इनको खर्चा न देता था दूसरे इनका बचपन से विवाह भी कर दिया था। स्त्री का भार विद्यार्थी के लिए कितना कठिन ओर'
( ५ ) प्रसहनीय होता है यह सभी जानते हैं। विवाहित राम की पत्नी को भी पिता ने घर पंरं न रख कर लाहौर ही पहुँचा दियो । इससे राम के सिरं पर. कित्तना भार पड़े होगों इसको पाठक स्वयं ही समस्य संऊते हें। फिर भी थीर सनस्दी राम ने इस वात की तनिक्र भी चिन्ता नहीं की । अपना ओर अपनी स्प्री का सारा रूच उस्डोंने विंद्यार्थी अवस्था में भी स्तर ही चंलाया। इतनो होने पर भी एफ. ए. की परीक्षा में फिर सर्ब-प्रयंम रहे | ईश्वर सब ही सहायतां ऋरता है। किन्तु अपने पांच पर स्वयें खड़े होने वाले उद्योगी मनुष्यों की तो अवश्य सहायता करता है। इस बार ए फ, ए. में स्वे-प्रथम आने पर .फिर यूनित्रिटी की छओर से इन्हें छात्रवृत्ति मिक्ने लगी । इमसे इनका निर्वाह पू्वेदत् होने लगा | राम का शरीर दुबल्ा-पतला था फिर भी अपने शंरीर को स्वस्थ बनाने के लिए प्रतिदित ज्यायाम क्रिया करते थे। समय-तिभाग के अनुसार पढ़ने फे समय पढ़ते आर धूमने के समय घूमते ओर खाने के समय खाना खाते | यह् अपना कोमती समय व्यथ क्रभी नहों विताया करते थे। प्रतित्तण छिसी न छिउ्ती कार्य में व्यए्त रहते | व्ोगी तीथंराभ ने अपनी दितचर्या का वर्णन भक्त धन्न:राम को भेजे गये पत्र में स्वयं क्रियां-- में प्रतिदिन प्रातः:काल ५ बजे घोकर उठता हैं, दा घस्टे पढने के बाद स्नोन से निश्वत्त होकर व्यायाम फरता हूँ फिर' रोटी खाकर कालेज पढने चत्षा जाता हूँ। राघ्ते में भी पटता रहता हूं। कालेज से लाठते समय रास्ते में दूध पीता हूं । घर पटुँ श॒ कर नदी के फ्िनारे घूमने चला जाता हूँ। इन खब बाहों से पता चल्लता हे कि वे समय को दितनी कदर शियां करते थे। अब सीर्घधम बी० ए० की हयी में पढ़ने लगे। प्राइमरो
_>-ज-मण पु सपा अवनननमित कमी अकी लात शीजग के
जाल डे अनार
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से ही इन्होंने. फारसी पढ़ी थी इस लिए अब भो इनका विषय फारसी ही था | एक दिन सहपाठी छात्रों फे कहने पर छि-- 'महाशय भी आपने ब्राह्मण कुत्त में जन्म लिया है तो पंस्कत छोड़कर फारसी क्यों पढ़ते हो। बस फिर क्या था नीर्थराम फारसी फे स्थान पर संस्कृत पढ़ने के लिये उद्यत हो गये, परन्तु चतुर ओर परिश्रवो विद्यार्यी शो प्रत्येछ भोफेपर चाहता हे एत: एवं फारसी फे प्रोफेतर भी तीर्थराम से प्रखन्न रहते थे, किन्तु अब फारसी छोड़ने पर वे इन से बहुत द्वी अग्रप्तन्न हुए। साथ ही संस्कृत के प्रोफेसर ने भी इस बात पर असर्मथता प्रकट की क्रि तुमने एफ, ए. तह तो संस्कृत नहीं ली अब वी० ए० में लेकर कैसे सफल हो सझोगे। तीरथराम द्वारा बार बार विनय करने पर भी संस्कृत प्रोफेसर ने अखिपक से शिकायत की, परन्तु तीथे- राम फे संस्कृत पढ़ने के विचार को न छोड़ने के कारण सारा भार संस्कृत फे प्रोफेसर को सहन करना द्वो पड़ा ।
ज्गन-शील विद्यार्थी क्या कुछ नहीं कर सहझता | फिर यदि उत्तमें प्रतिभा भी हो तो सोने में सुगन्ध बन णाती है। लगन ओोर प्रतिभा इनके असाधारण गुण थे । घर पर ही इस लगन-शील विद्यार्थी ने संस्कृत पढ़ना शुरू किया ओर कुछ ही दिलों के बाद संस्कृत अध्यापक को आज्ञा से श्रेणी में निय्यासतत रूप से पढ़ने लगे। कभी २ किसी प्रतिज्ञा का फल्न अन्त में बुरा भी. निकल्न आया करता है। इन्होंने प्रतिज्ञा तो कर ली कि मैं उंस्क्रत ही पढ़ैँगा भोर पढ़ी भी, किन्तु एक विषय पर अधिक स््यान देने से अन्य विषय कम्ज्ञोर. रह गये। संघ्कृत में तो इनकों सफतन्नता सित्ती पर अंग्रे ज्नी का विषय उतना अच्छा तख्पार न् हुआ जितना कि एक परीक्षार्थी फे ज्िए होना अनिवाये है।
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परीक्षा तो दे दी साग्यवश अंग्रेज्ञी का पेपर कठिन आया और परिश्रमी तीथेराम केघल चार अट्टों फे लिये वी० ए० में फेनन हो गये। यह समाचार उनके लिए कितना दुखद था इसक्रो सहदय पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं। फेल हो जाने फे कारणा छात्र चृत्ति मिल्ननी भी बल हो गई अब परिवार का खर्चा कैसे चलाया
ज्ञाय यही एफ मात्र चिन्ता उनको प्रतित्तण घेरे रहती थी। घर से तो पद्ििले ही सहायता न मिलती थी भ्रत्र तो वे इनसे और भी
असंतुष्ट हो गये। आधिक समस्या सबसे कठिन होती हें।
मनुष्य इस फे आगे कुक जाता है। पेट का प्रश्न सबसे मुख्य है। फिर अकेले होते तो फिपो प्रकार संतोष भी किया नाता
. पर खाथ में स्त्री का पालन ओर पढ़ाई ये दो विरोधी बातें
कैसे सुलक सकती हैं। संध्कृत लेने के कारण वे फेल दो गये।
नहीं तो वे कमी भो फेल न होते | यद्यपि ऐसी कठिन समस्या में वे साधारण व्यक्ति के भाँति घवराये तो नहीं पर श्रात्मा में शान्ति भी तो न थो। ईखर की प्रा्ना के अतिरिक्त अब
ओर फोई दूसरा उपाय न रद्दा। तीथेराम रातदिन चिन्तित रहने
लगे कोई उपाय नज़र न आता था | भारतीय शाप्व्रों का कयन है
कि जब मनुष्य एकाग्रचित्त होकर हश्वर को शरण में चला जाता
है तो वह दयालु परमात्मा किसी न किसी प्रकार से अपने शरणार्थी की सद्दायता करता है ।
मंभधार में डूबती हुई नोका को पार लगाने वाले पतवार की भांति
रुूमको मोसा का एक पत्र मिलां जिसमें २०) रुपया मासिफ सहायता देना लिखा था। दथेराम को मोसाने लिखा कि पढ़ाई झारी रकसो इस संसार में सफलता-असफल्ञता दोनों का चक्र भरुष्य के भाग्य
फे साथ घूमा करता है इत्साइ न छोड़ो और पद्ाई फरते ज्यतो
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अचानक मिली इस सद्ायता ने-इन का फिर उत्साह दगना कर दिया । फिर बी० ए० की परीक्षा दी और सारी यूनिवर्सिटी में सब-प्रथम आये-। अप ६०) रुण मालिक छात्र-म् त्ति मिलने लगी | उत्स्ाही छात्र फो आगे पढने का सुश्रतसर. मिज्रा ओर सत्र कृद्ध सोच-समझ कर ये क्रिश्वियन फालेज्न छोड़कर गवनेमेण्ट कालेज में श्रविष्ट हो गये । इन को बचपन से ही. गणिस से विशेष प्रेम. था। इसलिए . एम० ए० में इन्द्रने गणित लिया । अपने सहपाठियों को तरिना फिसी फीस के गयित पढ़ते । २२ बष की अवस्था में ये एम० ए० परीक्षा में भी सब-प्र थम रहे । विद्यार्थी-जीवन में स्कूत तथा कालेज की पढ़ाई के अतिरिक्त इनका अधिक समय अध्यात्म चिन्तन में व्यतीत होता था। अस्तु तीथराम जी का जिद्यार्थी- जीवन समाप्त हो गया । कुछ लोगों का विचार था कि 'रेड्नलरः फी परीक्षा देंने फे लिए आप विलायत जायेंगे नहीं तो 'सिक्लि सर्विषत! की परीक्षा ही दे देंगे, किन्तु किन््हीं कारणों से इन्दोतों दोनों विचारों में से कोई भी स्त्रीकार न किया । परीक्षा-परिणाम. उत्तम रहने तथा प्रतिभाशाज्ञी होने के कारण लादौर के गवनेमेंट कालेन में इनको गणित पढ़ाने के लिए प्रोफेघरी मिल. गई। क्रिश्चियन कालेज में भी इन्दोंने अध्ययन, का -कार्ये, किया, परन्तु धाद में स्यालकोट में एक हाई स्कूल के छ्ेड मास्टर जम गये | यह. सारा कार्यक्रम दो साल में ही समाप्त हो गया | हम पहिले लिख चुके-हैं. कि घन्ना भक्त का प्रभाव वीथराम के जीवन पर.बड़ा गददरा पड़ा। भक्त जी विशेष पढ़े -लिखे व्यक्ति न थे, परन्तु पविन्नात्मा और वेदान्त के यूढ़ तत्वों के ज्ञाता अकश्य थे.। आस पास के गाँवों की जनता इन पर बड़ी श्रद्धा रखतीं थीं। उन्तके उपदेशों फो श्रद्धालु ल्ञोंग बड़ी. उत्सुक्तता से सुनते थे।.
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तीथेराम ज्ञी को भी जब कभी समय मित्रता भगत ज्ञी के पाप ज्ञाया करते ओर उनके उपदेशों को बड़े ध्यान से सुनते तथा इन पर विचार करते थे। यदि तीथराम को धघन्ना भगत का सत्संग न मिला होता तो तीथराम जापान तथा अमेरिका में वेदान्त का मंडा फदरा सकते या नहीं इसमें सनन््देह था । छात्रावध्था में भी तीथराम ओर धल्ना भगत में परर्पर पत्नञ्यवद्वार होता रहा। एक पत्र में वे धन्तरा भगत को लिखते हैं क्रि-- “परमेश्वर मुझे बड़ा द्वी प्यारा ज्ञगता है? सभी को उससे प्रेम रखना चाहिए। संसार का एक विनक्राभी बिना उसझी इच्छा के नहीं दिल सकता । जब तक नचाने वाला न हो कठपुतलियाँ नाच नहीं सकतीं। विना वजाने वाले के बाँसुरी कभी वज नहीं सकती । इसी प्रशर संसार के सब काम उसी एकर सत्ता की प्रेरणा से द्वोते है” इन दो चार लाइनों से पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि तीर्थराम को विद्यार्थी-जीवन में ही कितना गृह ज्ञान प्रपप्त हो गया था | आखिर २६ अक्टूबर १८६७ ई० को इन्होंने एक पत्र अपने पिचा जी को लिखा--जो कि बड़ा आश्चयोत्पादक्क है । पाठ्का के हिलाथ हस उसका उद्धरण ज्यों का त्यों नीचे लिखते ए-- श्रीसान् परम पूज्य पिता जी प्रयाम। .
आपका कृपा-पतन्न पढ़ कर बड़ा 'आनन्द्र प्राप्त हुआ | ऋापके पुञ्न--ती धराम का शरीर विक्र गया, बिफ गया; तब राम! अपना ओर पराया इसमें कुछ भी मेद नहीं समझता । दीपादज्ञी फे दिन मैंने अपना शरीर श्रीकृष्ण भगवान् को अपण फर इन्हें जीत लिया है। अब ज्ञाप जो कुछ चाहे मेरे मालिक से मांग लें । ये आपकी अदृश्य देंगे। एक वार निश्चय फरके मांगिये ठो सही। मान
|. १७४८)
कोई १६-२० दिन हो गये, वे घड़ी सावधानी से मेरा काम ऋर रहे हैं फिर भला आपका क्यों नहीं करेंगे। घबराना अच्छा नहीं | उनकी अआज्ञानुसा। ही सारा काम हुआ करेगा। श्रीकृष्णा ही हम गुसाइया का धन है--अपना सच्चा धन छोड़ कर संसार की भूठी कोड़ियोँ के पीछे पड़ना उचित नहीं ओर उन कोड़ियों फेन मिलने पर दुख करना तो बड़ी क्षज्भा फी बात हैं। अपने भुख्य धन फे आनन्द को एक बार अनुभव तो कीजिए ” इस पत्र को पढ़कर सारा परिवार सुन्न द्वो गया पर क्या हो सकता था । महात्मा बुद्ध को गृहस्थ में रखने फे लिए पिता शुद्धोधन ने कितने प्रयत्त किये पर एक दिन सोते हुए सारे परिवार को छोड़कर बुद्ध प्रसिद्ध महात्मा बन गये | इसी भांति तीथेराम ने बिल्लखती हुई प्राण-प्रिया श्री, अपने छोटे बच्चों तथा वृद्ध पिता का त्याग क्रिया । गृह-त्याग करते समय इनकी आयु फेवल २६ वर्ष की थी । उन्होंने अपना नाम चीथराम से रामतोरथ रक्खा । स्व्राभी रामतीथे ने सन््यास धारण कर जिप्त समय घर छोड़ा था उस समय उनके पिता, पत्नी, पुत्र, मित्र आदि सबको सानप्चिक वेदना बहुत उसड़ी हुई थी, २६ वर्ष री अवस्था सनन््यास घारण करने योग्य तो नहीं थी । क्योंकि अभी तक उन्होंने संखार में किसी प्रकार का सुख भोगा ही नहीं था | परन्ठु जिम्तका चित्त संसार से पराडः मुख हो चुका हो उसके लिए कोई भी समय सन््यास लेने का हो सकता है। विषय-निवृत्त व्य क्ते के आगे कोई भी वस्तु रुकावट नहीं डाल सकती । घीर, मनस्वी राम . ने परिधार के कष्टों की परवाद्द न करके निश्चित सन््मार्ग की ओर कदम बढ़ायो था। उसी तरह माता पिता री आदि के भोह को तृबणत् समझकर मद्दात्मा रामतीथ एक कठिन
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हरत पालन करने में तत्पर हुए। संघार से विरक्त होकर स्वामी जीने अधकतर समय मद्दात्माओं की संगति में हो विताया। इधर-उधर घूमते-फिरते स्वामी रामतीर्थ हरिद्वार जा पहुँचे | कुछ द्निवहां रह कर ऋषिक्षेश ले गय ओर ऋषीकेश से ञआगे त्रह्मपुरो में उन्हेंने अपना आसन जमाया | पास मे गंगा माई बहती थां । प्राकृतिक दृश्य तथा पतित-पावनी भागीरथी का इनक हृदय पर ऐस्रा प्रभाव पड़ा कि आँखों से आँसुओं की अविरल घारा बहने लगी ओर वे प्राथेना करने लगे हि हे माता ! या तो ब्रह्मनन्द का अनुमव ऋरूँगा या तुममें अपने शरीर को अपंण कर दूँगा। शढ़-प्रतिज्ञ राम को निरन्तर उपनिपर्दों का मनन करने से ज्ञान का प्रकार हुआ । सह्सा इसका सन फिर इचचाट हुआ और इनकी इच्छा घूमने फिरने की हुई। इस श्रमया में इनकी नारायणा स्वामी से सेंट हुई। बीच में ए5 वार ये अधिक बीमार भी हो गये थे, ऊिन्तु ईश्वर की कृपा से घ्वस्थ थो गये पौर इप्तके बाद इन्होंने श्रत्ोिक्त नाम की उदूं की मासिक पत्रिका निकाली, भिसमें प्राय: वेदान्त के उपदेर्शा के लेख निकला करते थे। स्वामी राम अत्यधिक प्रसिद्धि को प्राप्त कर चुके थे। इसी सथ् १६०१ में मथुरा में एक धर्मात्सव हुआ सब लागोंने स्वामी राम को समापति चुना | बड़े २ विद्वान स्वामों राप्र का भाषण सुनने, आये थे, किन्तु व्याख्यान-दाताओं फी अधिकता के कारणुसभा का समय समाप्त दो गया। इसलिए स्वामी ही ने धठ कर कद्ठा--सभा फा नियत समय बीत चुका है अत: व्याख्यान देना नियम फे विरुद्ध होगा । इसलिए गम यमुना फे किनारे ध्याख्यान देगा | यदि आप सुनना चाहते हूँ .तो वहां घलिये। भनता स्वाप्ती के च्पदेशामृदा फो झुनने के लिए राठ फे काठ
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यजे तर जमुना के किनारे वेठी रही। इसके अनन्तर मथुरा को पवित्र भूमि में चार सदिने तक एक्रास्त-वास करके अ्ग्रेल सत् १६०२ मेँ हरिद्वार लॉट आये। स्त्रामी ज्ञी पंद्ल याआ करते आर रास्ते में श्रद्धालु भर्कां को उपदेश दिया ऋरते थ्रे। कुछ दिन हरिद्वार रहने के पश्चात् स्वामी जी नारायण स्वामी को साथ लेकर टिद्वरी रियासत में गये। यहां पहुँचकर इनकी महा- राजा कीर्तिशाह् से मेंट हुई। प्रथम मिल्लाप में ही मदाराजा साहिबय इनसे ऐसे प्रभावित हुए कि समीप ही गंगा किसारे इनके लिए एक पर्ग[-कुट्टी बनवा दी ओर स्वयं महाराजा पंदल चलकर “घंटों? तक इनके उपदेशों को सुना करते। इन्हीं दिनों जापान क्री राजवानी टोकियों में एक रूवेधर्म-सम्मेलन दोने वाला था। समाचार-पत्रों द्वारा यद् बाय चारों और फेल गई। धर्मात्ःण महाराजा फीतिंशाड ने सोचा कि यदि ऐसे स्-धर्स सम्मेलन में भारत का कोई उच्च क्रोटिका विद्वान न पहुँचे तो बड़ी लक्जा की धात होगी श्रत: इस कार्य के निए उन्होंने स्वामी राम को अधिक उपयुक्त समझा | आखिर महाराजा फकीर्तिशाह्द की प्रार्थना से स्वामीराम को जाने के लिए तथ्यार' द्ोना पड़ा। स्त्रामी जी को भी विदेश ज्ञामे का यद्द स्त्र्ण अवधघर मिल गया। नारायण स्वामी को साथ लेकर स्व्रामी राम कलकत्ता द्ोते हुए जापांन पहुँचे | टोकियो विश्वविद्यालय में आपका स्रे-अरथंम व्याख्यान हुआ बाद में व्याख्यानों की धूम सी मच गई। विदेशी जनता ने. इनके उपदेशों से अपूर्व शान्ति प्राप्त की। खारी की सासे जनता [इनसे प्रभावित होकर इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा ऋरने लगी |
जापान-में-द्वी स्वामी जी की इच्छा हुई कि अमरीका की भी
यात्रा की जाय | एक दिन वे अकेले ही अमरीका के लिए रवाना हो
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गये । स्त्रामी जो के पास एक भी पेघा ने था जव भद्गज्ञ अमनैका पहुँचा तो सत्र लोग बड़ी उमंग से आगे बढ़ ऋर अपने २ मित्रों से मिले। ये चुपचाप एक्र कोने में बंठे रहे। एकाएक एक अमेरिकन की दृष्टि इन पर पड़ी वह एक समाचार पत्र का सम्ताददाता था। उलतने इन से बातचीत की । वह भी चड्ढा गुण-प्राही था। उसने स्वामी रामकी पूरी सहायता की। अमेरिका वासियों ने आपका बड़ा स्थगत किया। वहां फे निवासी इनके व्याख्यानों को बड़े चाव से सुनते थे | अमेरिका का प्रेजिडएट भी इनको मिलने लिए दो बार झाया। उसने इनसे , आथेना की कि “यदि आपको किसी चीज़ की श्ावश्यकता हो तो क्पया चतल) दीजिए”? । स्वामी जो ने वेदान्त फे अनुसार अपनी आत्मा की सच्ची प्रेरणा से कद्दा कि दुनियां फी सारी वस््तुयें राम की.हैं। उसे किसो वस्तु की आवश्यक्रता नहों, राम वादशाहों का बादशाह है उसमे रुपयों फे लिए सत्यास
रख नही किया | अमरीका के सभी रुप्री परप राम सेप्रम फरने लगे थे। एक अमेरिकन महिला इनकी इसनी सेविका वन राई थी क्रि वह भारत में आई ओर उसने स्वामी ज्ञी फे घर, परिवार, स्त्री पुत्रों पा दर्शन किया | इस्र तरह ऋरोब दो-अठई वप तक स्वामी ज्ञी अमेरिका सें रहे । वहां वे अपने द्वाथ से खाना बनाते सब लकड़ी चुनकर सिर पर उठाऋर जाते अ्विर्त समय अमेधि सा निवासियों को वेदान्त पढ़ाने तथा स्वर्य॑ अमेरिका द्विध्पिक ग्रन्धों फो पढने में विताते। अय स्वामी जी ने यहां छा फाय समाप्त किया ओर पहाँ से भारत के लिए वापिस लाड | रास्ते में मिश्र देशवासियां ने भी आपका बढ़ा सम्मान किया। बड़:
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एक मस्जिद में फारखी भाषा में व्याख्यान दिया | फिर सन् १६०४ में स्वामी जी भारत में वापिस लोट आये। यहाँ आऋर फिर त्ञारायण स्वामी क्रो लेकर उत्तराखंड री यात्रा को चल दिये। रास्ते में टिहरी नरेश से मिले, मद्दाराजा ने बड़ी प्रसत्तता प्रच्ट व्रीओर उनके अनुगेव में दो वशिस्ाश्रम में रहफर भजन करने लगे । नारायण स्वामी ने भो आपकी बड़ो सेवा फो | टिहरी दरचार से भोजन आदि का समुचित प्रचन्ध रिया गया था। इसमे इनकी क्िसो प्रदार का कष्ट तो नहीं हुआ पर स्वामी जी का स्वरात्थ्य अच्छा ना रहा वे बीमार हां गये। इस लिये उन्हें स्थान परिवर्तत करना पडा। आत्म- जानी पुरुषों को अपनी मृत्यु का पहिले द्वी पता वक्ष जाता है । स्वामी राम तो उच्चकोटि के शआात्मज्ञानी थे। इसलिये इन्होंने एक दिन अपने सहूचारो सेवक नारायण स्व्रामो क्रो कहा कि “बेटा १ रास बहुत जल्दी अपना शरीर छोड़ने वाला है, उसकी त्व!यत संखार से बिलकुल ऊच गई है | तुम गुफा में बैठ कर अपने स्वरूप का चिन्तन करना और राम का तरह प्रम्नन्न रहना? इस बात +ो सुनझर नारायण. स्वान्नी के आँयों से अविरल पअ्श्रधारा बहने लगी।
ये पुरुषों की बागी कभी असत्य न में होता। राम का झत्यु समय समीप आरा गया। दिगलो का पत्र था १७ अक्टूबर १६०६ "गे स्थामी ज्ञी इस अस्तार संसार को छोड़ भोत्ू-घधास को प्राप्त हुए । इस समय आपको आयु ३३ वर्ष को थी। स्वासी जी ने गंगा माता की गोद में अपना शरीर प्रवाहित किया । लोगों द र। जब यट्ट खबर सुनी वो द्रबार में भी-खलयली सच गई | महाराज्ञा ने लाश की तालाश करवाई | जब लाश
[कं
मिली तो स्वासी रास पद्मयासन लगाये हुए थे मृत शरीर को ु फिर एक काठ के सनन््दू+ में वर करके गंगा जी की धारा में प्रचादित कर दिया |
यह बात प्रसिद्र है कि स्वामी जी ने मरने से फुछ दिन प्ले एक लेख लिखा, जिस में मृत्यु फे लिये अआहान था | /ह मृत्यु तु श्रा, बड़ी खुशी से भा | याद रख, मुझे इस शरीर की किग्वन्मात्र भी परवाद्् नहीं | मेरे पास तो वह शरीर है जिससे मेश व्यवद्टार रुक नहीं सकता ) में वो घन्द्रमा फी किरणों में ,रूपहले तार धारण कर जीवन व्यतीत कर सकता हूँ | पद्दाड़ नदी-नालों फे वेश में सस्त रह सकता हूँ ।ऐ मृत्यु नहीं जानती में समुद्र को लह्वरों फे साथ नाचता फिह्ँगा। में अनेक रूप हैं | इस रुप में पर्वव घिखरों से डबरा, कुम्हलाए पोर्धो को हरा-भरा किया, स्ुमर्नों को दँसाया, चुलबुलों को रुल्ाया सो्तों को जगाया, खड़ों को घढ़ाया, इसे छेड़, उसे, छेड़, तुमे छेड़, यह भावा, बह गया, न कु साथ रक््खा, न किसी को ध्वाथ लगाया” इत्यादि। इस पत्र से स्पष्ट होता है कि वे सच्चे जीवन-मुफ़ थे । जीवन-मुक्त पुरुष एक २ अग॒ में अपनी आत्मा का प्रतिविस्ध देखते हूं। उनको इृष्टि में भेद-भाव नहीं रहता । शत्न भमेत्र, सान अपगान, राग हुप, जय पराजय द्वानि-लाभ, सुख दुख आदि संसार फे इन्ड्ों को एक दृष्टि से देखना भोर अनुकूल दोने पर सुख, प्रतिक्षल दोने पर दुख का अनुभव न करना ही जीवन-मुक्त का क्षण ऐ प्राय: छानी पुरुष शुप्क निःस्पह होते है, किन्तु स्वासी रास ररि
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जीवन शान्ति आर प्रेम से भरा हन्ा प्राऊविक सॉन्ट्रद से
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पक सरस राग था | उन्होंने मनुष्यों को धृ अिक से शांति का का 2 उनके की के मे और बुद
9 88 ढ़ व्याख्यान बड़े सरस ओर भाव-पूणा ते थे | व्याख्यान देते समय वे स्वय भी रो पड़ते सा स्वामी राम अपने को राम बादशाह कहा करते' थे । उन्तक उपदेश राम बादशाह के हुक्मनामे” नाम से प्रसिद्ध हैं। उनका अन््यात्म चिन्तन इतना प्रवल था कि येसहीनों तक तक सौनत्रत घारण करलेते थे । बहते हुए जल भर स्वच्छ नीलाकाश को देखकर उन्हें चहुत आनन्द होता था और शान्ति मिलती थी | स्वामी जी के उपरेश पुस्तकों के रूप में मिलते हैं। यों तो भारत में सृत्यु-प्योन््त उन्होंने उपदेश दिये परच्तु जितनी तनन््मयता वया सरवता श्रप्रेरिका में दिये गये उपदेशों हारा मिलती है उतनी अन्यत्र नहीं ।एक समय आपने उपदेश दिया कि इस संसार में उत्तति का ए+ सात्र साधन कर्मा है। प्रतिक्षय कर्म करने से ही सफलता मिलती हैं । पूर्ण ज्ञानी होते हुए भी स्वामी राम कर्मा का उपदेश फरते थे 4 आय: देखा गया है कि ज्ञानी लोग कम का :खंडन ह्वी करते हैं.। किन्तु स्वामी जी कम की अ्रधानता मानते शे, वास्तम में सत्य भी हैं कि मनुष्य कम-योगी बनने से ही ज्ञान-योगी - बन सकता है | आगे चलकर वे कद्ते हैं कि--कर्मा करते. २ आप अपने शरीर को भूल-जाबो | शरीर और मनको एक साथ लगा जो | कवि उसी समय कविता करता है जब वह यह भूल ज्ञाता है कि में कविता कर रहा हूँ । वेदान्त इस बात का उपदेश करता है कि सच्चे कम द्वारा अपने आप को भूल जाओ जीवन की बातों को उस मसह्दान शंक्तित पर छोड़ दो / जिसे परमेश्वर फे नाम से पुकारते हैं | योग ओर तपस्या की चन्नाय ,
( *७ )
अपने आप को कम में क्षञोन कर देना ही आत्म-साधंना है | ज्ञव तक प्राणों इस शरीर को कम-हूपी आग में वरि-बार नहीं गलाता तत्र तक आत्मा का ग्रक्राश नचढीं हो सकता। दीपक यदि तेल ओर बत्ती को न जल्ाये वो उसकझ्ो प्रक्ाध् कफे' स्थान पर अन्वयक्ार की ही प्राप्ति होगी | यदि दीपक को सफलता भाप्त करनो है तो उसको जलना पड़ेगा ओर तेल तथा बसी की चिन्ता छोड़नी पढ़ेगी। इसी भाँति यदि मनुष्य चाहता हू कि मुझे सफलता मिले, मेरी उन्नति हो तो कठिन कमों द्वारा अपने शरीर को कर्म की आग में भस्म कर डाले | सोते-ज्ञागते उठते-बठते फेघल कम करने की घुन में ही लगा रहे । सघलता के शिखर पर दम तभी चढ़ सकते हैं जय कि हम अपने आप को भूल कर कर्मश्य बन जायें | पाठकों को यद्द बात भूलनी नहीं चाहिए कि चेदान्त शास्त्र के ज्ञाता स्वामी राम किस प्रकार कम का उपदेश कर रहे हैं। इतना दी नहीं घल्कि उन्हों ने तो यहां तक फट्द दिया है कि किसी भी काय की सफलता के लिए अपने धन मन को बलिदान कर दो | काय करने में संलग्न रहो निरन्दर परिश्रम फरने दिन सोक्ञष-प्राप्ति का अनुभव स्वयं होने जगेगा । छुम परिश्रम की सूली पर जब अपने अ्मापको चढ़ांदोगे वो सिद्धयां अपने आप पीछे २ दही चली झावमी | दोनों जब तक खाक के साथ घुल-मिल नहों ज्ञाता ठतव तक उम्तम 'लझुर नष्ठी मिकलतवा | अंकर निकलना ही उसकी सफलता हैं | नहीं तो वह मिट्टी में मिला &ी क्यों था । गीता में भगवान_ ऋृष्ण यहाँ कर्म तथा कमयोग फा- उपदेश अज्जु न को 'यों दिया ऐ “थत्सांख्यै: प्राप्पते स्थान तद योगेरपि गम्यते/ कष्ट फ़र
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दोनों की मंजिक एक ही चताई है, वहाँ इस बात का भी स्पष्टो- करया कर दिया है कि वह्दी कर्म मुक्ति के धास तक पहुँचा सकता है जो निष्काम (स्वार्थ रहित ) दो | यही बात स्वामी राम भी फट्दते हैं कि कम के साथ त्याग की बढ़ी आवश्यकता है | फम करन' पर फल न चाहना यद्द क्रितनी फठिन तपस्या है | में काम कर रहा हूं इसका फन्त मुमे अवश्य मिलेगा यद्द भावना त्याग देना हो-सवश्रेष्ठ त्याग है | थोड़ी देर फो मान लिया ज्ञाय कि कम-कर्ता मनुष्य यदि फन्न की भी इच्छा कर ले तो क्या द्वानि है. परन्तु विचार-दृष्टि से देवा जाय तो सफलता न टोने पर उसे महान. मानसिक कए होता है । यदि पहले से ही , यह भावना €ढ़ बना ज्ञी जाय कि कर्म करना मेग द्वी कर्तव्य है फल ईश्वर के अधीन हैं | उसकी इच्छा है दे न दे, तो फिर कम-कर्ता को फज्ञ मिलने या न मिल्ञने पर नतो हपेद्दोता है और न दी कष्ट इन दोनों बातों के साथ ही स्वामी राम का फथन है कि मनुष्य मात्र को चाहिए कि प्रत्येक प्राणी से प्रेम करे | सदभावना बहुत उत्तम बस्तु है। इस गुण में इतना जादू भरा है कि प्रत्येक को मोद्दित किये बिना नहीं रहता | प्रेम छी एक ऐसी वस्तु है ज्ञो सारे संसार को अपनी मघुर-धारा से सींचतीं चल्ली आ रहो है | प्रेम का जन्म झ्ात्मा से होता है | जो प्राणी दूंसरे श्राणी से सच्चा प्रेम करता है वह ईश्वर से प्रेम करता है | किन्तु यहां पर त्याग की बड़ी आवश्यकता है, स्वार्थ प्रेम-झासनो में बदल जाता है। वासना-मय “म'स्थिर नहीं रह सकता | अपने व्याख्यानों में स्वामी जी ने यह भी--बतला दिया कि ईश्वर-प्राप्ति या लोक में उन्नति के लिए मन की प्रसन्ततां भी ज़रूरी है । सदा प्रसन्त रहो, शीत--
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चित्त रहो ! इच्छाओं फे आधीन न इोकर ,रुन्हें झपने मन फे आधीन रखो । चेदान्त शास्त्र का संत है कि जो समय वीत चुका है या अभी नहीं आया इसकी चिन्ता न करो वर्तमान समय को हँसते २ ब्यत्तीत करों | अपने मन की प्रसन्तता से सारा संसार प्रसन्न ओर उसके दुखी दवोने से टुखी | हम संसार को सुखी या दुखी इसी लिए ऋहते हैं कि हम स्वय॑ पुख-दुख का अनुभव करते हैं | मनुष्य की उल्नति इसी में है कि बह आत्मविश्वासी दो। वेदास्त शास्त्र का कथन है कि तुम अपने आपको तुच्छ ओर निक्षम्मा मत समम्तो चल्कि अपने आपको शुद्ध सब्चिदानन्द् पर त्रद्म का ही स्वरूप ज्ञानो । जिस समय मनुष्य ने श्रात्मा का विश्वास छोड़कर शरीर को ही सब छुछ समझा बह्टं उसकी द्वार हुई । संसार में जब हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं तो प्रत्येक वल्छु चलो छाती ह ओर जब हम फेवल अपनी झात्मा पर हो मिश्वास करते हैं तो प्रत्येक वस्तु श्राप से आप मिन्र ज्ञाती है छभी भी अपने को तुन्छ ले ससको । जसा सोचोगे बेसा ही बन क्ाओरगे | यदि तुम सोचते दो कि इम परमात्मा का ही रूप ई तो तुम्हारे परमात्मा रूप होने में किब्िन्मात्र सन्देद्द नदीं। आत्म- विश्वास ही सव-श्रेष्ठ पस्तु है । स्वामी ज्ञी कट्दते हे द्धि ऐ संसार फे मनुष्यों ! तुम लोग बाहरी कीवि, घन, दौलत, छमीन आदि पर भरोसा रखते दो, किन्तु ये शुक्षिय दने बाल नहीं हैं। इसलिए सावधान हो ज्ञाझो ।! प्रकृति का नियम कि जब मलुप्य वाहिरी पदार्थों पर भरोसा करने रूगता ई सी उसका पतन हो ज्ञाता है ओर जब मनुष्य वदिसुख शनि
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हटकर अन्तमुंख टृत्ति दो ज्ञावा है तो शान का प्रयाश उस
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“राम नहीं चाहता है कि पादरियों फे हंग फे मनुष्य अमेरिका से भारतवर्ष भ्रॉँय जो कि बड़े बड़े शानदार बे गलों में रहते हैं. ओर गाड़ियों पर चलते फिरते हैं । राम चाहता है कि भारतवप में वे लोग जाय न्ञो सचाई के लिये शहीद हाँ, जो असली कार्य करने वाले हों, जो उनके साथ फटे घीयड़े कपड़े पहनने में सतुष्ट हों । मकक्कारों और वचेहमानी से उन्हें ईसाई बनाना ही फेवल अपना उद्देश्य न समझे” | इन शब्दों से स्वासी हीने पादरियों की पोज्त खोल दी | ईसाई धर्म को मानने वाले जनसमुदाय में उनके धर्म-प्रवर्तकों पर भाक्षेप करना श्यासान काम नहीं था | यद्द वही कर सकता है जिसको शात्सा फे विषय सें--
नेते छिन्दुन्ति शस्त्राणि, नेने दृद्दति पावकः।
न चेने क्रदयन्त्यापो न शोषयति सारुतः॥
का भली भाँति ज्ञान हो । रामतीर्थ अद्वेतववाद फे समर्थक होते हुए भी प्रेस की मूर्ति थे। जहाँ वे ओम! का उचांरण करते चारों ओर से छंगली पशु उन्तकी ओर घिरे चले आते । उनकी बाणी में इतना शआ्राकषंण था कि सभी प्राणी अपने श्राप उनक्नी ओर चले आते थे । वेदान्त शास्त्र का कथन है कि जब्र में? 'वृ” का सेदू-भाव समून्न नष्ट दो ज्ञाता है तभी श्रात्मज्ञान होता है। स्वामी रामतीर्थ ने अपने आपको 'में शब्द से कभी व्यक्त नहीं किया, घल्कि अपने आप को राम बादशाह कह फर पुकारा फरते थे ।इसी वात को लेकर वे प्रायः गुनगुनाया करते धे-- ह
बादशाह दुनिया फे हैं मुहरे मेरी शनरंञ्ञ के।
दिल्लगी की चाल है सब रंग सुलह व जन्न' के॥
( २३ )
स्वाप्ती राम अपने सेवर्कों को सदा शिक्षा दिया करते थे कि तुम अजुन की वरद राणात्षेत्र में .जीवन संप्राम में) डे रहो, किन्तु घोड़ों की रास भगवान_ फ्रृष्णचन्द्र फे द्वाथ में रहने दो | वास्तव में इन शब्दों में सारी गीता का सार आ ज्ञाता है। महाभारत फे युद्ध-त्षेत्र मे शत्रुओं से संघथ करते हुए बीर अज़ुन को पसीना पोंछने तक की फुर्सतनथी। उस कमवीर ने तन मत से एक "कर युद्ध लड़ा, किन्तु ज्िधर रथ जाता उधर ही वाणों की वर्षा होती थी कहट्दां रथ ले जाना पाहिये ओर कहाँ नहीं, इसका उत्तरदायित्व भगवान <पष्णा प्ल्द्र पर था | रथ के घोड़ों की वागढोर उनपे, ही हाथ में थी । यदि धोड़े कुमाग-ग।मी घन जाते हैं थो इसका उत्तर स्वयं भगवान् दष्ण देंगे। इसी भाँति ऐ मनुष्यों ९ इस संसार-न्षेत्र में दिन-रात कर्म करते ज्ञाओ, परन्तु घोड़ों फे समान ॑श्वत्ञ इन्द्रियों की रास भगवान के द्वाथ में दे दो। कभी राम कद्ठते थे कि जहां युक्ति से काम नहीं चलता वहां प्रेस से निकल सकता है । /ज्ञो इन्द्रियों फे दास हैं उनकों दूसरी अ,.हत्या करने की जरुरत नहीं ।/ यह वाक्य भी भा से सम्बन्ध रखता है । जित प्राणी ने इन्द्रियों को अपने वश में नर्पी ध्या, अवश्य ही उसकी इन्>यां उसके सन तथा 'पात्मा फो कुमार्ग में ले ज्ञायं त| छुमाग में ज्ञाना ही पआत्महत्या ऐै । गता के अनुसार स्वयं स्वामी राम का कददवा है फि--
उद्धरेदात्मनास्मानं नात्मानमवसादग्रेत्, अर्थात भश्ात्मा का अपने आप उद्धार करे, स्योंक्ति!
शात्मव था सनो बन्धुरात्मेव रिपुरात्मन: फोई किसी का शप्रु एवं मिप्र नद्दी अपितु सुपथ पर घजने
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तो ईश्वर फी इच्छा पर निर्भर है, वह जब चाह्टे शरीर से प्राणों को अलग कर दे । फिर भी इतनी छोटी अवस्था में स्वामी राम जो फुछ भी कर गये वह अन्यत्र असम्भव नहीं तो दुलंभ अवश्य ऐै। श्रात्मा का साज्षात्कार तो अनेकों मे किया पर आत्मज्ञानी होते हुए भी प्राणीमात्र के कल्याया की कामना करना इन्हीं में देखा गया है। इनकी भक्ति-भावना से प्रभावित ह्वोकर एक दिन जगदगुरु स्वामी शंकराचाय जो ने कहा था कि ' इस समय तक अनेक स्थानों में हमने श्रमण क्रिया, ड्विन्तु रामतीथ की तरह भगवद् भक्त हमने अ्रभी तक नहीं देखा” । स्वामी शंकराचाय फे वचन अत्तरशः सत्य थे। स्वामी राम जब दरिद्वार या . ऋषीफेश के जह्क्लों में दूर तक चले जाते तो अपने साथ उपनिषद् की पुस्तक अवश्य ले जाते! ओर जब वे सममते कि अब में निन्नाधि स्थान पर आगया हूं तो पुस्तक खोलकर झात्म-चिन्तन कर ने लग ज्ञाते | सन््यास धारणण करने से पूर्व जब स्वामी राम ऋषीफेश से ६ सील उत्तर की ओर ब्रह्मपुरी, में एक्रान्त साधना कर रहे थे तो उत दिनों इन फे घर वालों ने एक पत्र भेज्न कर उन्हें घर वापिस बुलाने का आमप्रद् किया; किन्तु स्वामी राम उसके उत्तर में लिखते हैं कि. ईश्वर के चिल्तन से राम का शरीर बहुत दुबल दो गया है, अब वह ग्ृहस्थआाश्रम में अपना जीवन मुख से व्यतीत नहीं कर सकता। इसलिए अब घर लोट श्ाने से उसको क्या लाभ दोगा | अभी तक वह लोक- निन्दा से डरता था, किल्तु अब उसको किसी बात की परवाह नहीं । श्रत्र वह परमात्मा से मिलने की कोशिश कर रहा है आप लोग भी सव्रान्तर्यामी उसी ईश्वर का चिन्तन कीजिए [”? मनुष्य के जीवन में होने बाली घटनाओं का अड्डुर उनके
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वान्यकाल में--ही प्रकट हो ज्ञाता है | स्वामी रास का बाल्यकाल इनकी फूफी की देख रेख में कटा, वह बड़ी धार्मिक विचारों की थी घाद्दे उसकी सद्भावना का यह परिणाम हो, परन्तु स्वामी बम ऊच रोते थे तब इनके सामने यदि ओरेम का उच्चारण कर दिया ज्ञाता तो झट से वह हँसने लग ज्ञाते । इससे यह बात स्पष्ट है कवि इनके पूर्व जन्म के संस्कार इतने उज्ज्वल थे कि ओश्म का अर्थ न झानने पर थी शब्द अ्रवण-सात्र से ही आनन्द प्राप्त कर लेते थे। इसलिए यदि हम यह कहे कि स्वामी राम का ईश्वर के पर्यायवाची ओश्म शब्द से झनन््म-ज्ञात प्रेम था तो शअत्युक्ति न होगी | विद्यार्थी-ज्ीवन में यग्रपि आशातीत परिश्रम करते थे फिर भी भरोसा ईश्वर का द्वी रखते | साघरण मनुष्य की भाँति कभी द्वाथ नहीं फेलाये | यदि किसी वस्तु की अत्यन्त आवश्यकता होती तो वे ईश्वर को सम्बोधित करके कहते-- परम पिता इस समय आप ही मेरे सहायक हो, में तो अपना सब कुछ आपको दे चुका हूँ, 'अव चघाह्टे रखो चाहे मारो मेरी कोई हस्तो नहीं जो आपकी इच्छा के बिना कोई काम कर सकूँ | सर्वेशाक्तिमान_ प्रभु आप सब फे हृदय की बात जानते हैं, इस समय मुझे; अमुक वस्तु की आवश्यकता है श्रापको इच्छा ही तो कृपाहष्टि कीजिए” | वास्तव में ईश्वर गरीबों फ्री तथा अपने अनन्य भक्तों की पुकार अ्रवश्य छुनता है जिन भक्तों ने अपना भरोसा ईश्वर पर द्वी रखा हुआ है उनकी देख-रेख उनका पालन-पोपण वह अवश्य ही करता है। भगवान ने गीता - में इस बात को स्पष्ट रूप में कद्दा है क्चि--"तेपां नित्यामि- युक्तानां योगक्षेम॑ वहाम्यह्म? अर्थात् हे झजुन ! में अनन्य- भाव से भक्ति करने वाले उन भक्तों का योगक्षेम ( निर्वाद्ठ )
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अवश्य करता हूं | भगवान् ने यह बात फेवल कही ही नहीं घल्कि भव ओर प्रदुलाद जसे भक्तों की पूर्णू-रूप से सद्दायता भी की है | स्वामी राम ने एकमात्र ईश्वर फे सह्दारे विना पैसे विदेशों की यात्रा की । जब स्वामी जी ने पक्लापान से अमेरिका फे लिए प्रस्थान छिया तो उनके पास उस समय एक भी पैसा नहीं था। परन्तु उनक ईश्वर पर पूरा भरोसा था, इसकिए वे निर्भेय होकर अमेरिका गये और वहां इन का अच्छे से अच्छा भ्रबन्ध हो गया। स्वामी जो का मधुर मिलन इतना आकर्षक था कि जो अपरिचित व्यक्ति इन से एक बार भी आकर मिलता वह यह ऋ्ठे बिता न रहता कि स्वासी रास से मेरी जन्म जन््मान्तर से ज्ञान पहद्चिचान है । पोर्टलेंड रास छुसाइटी के सभापति जज मिस्टर ने कहा था, “जब राम से मेरी पहली गुलाकात हुई तो उनको देखते ही मेर हृदय में उनके लिये एक तरह का प्रेम पंदा हो गया, वसा प्रेम पदिले किसी को देखने से नहीं हुआ था।”
प्रायः ये बाते इन मद्दापुरुषों में द्ोती हैं जो सारे आराणियों में अपनी आत्मा का ही प्रतिविंव देखते हैं। उनकी वाणी प्रत्येक ज्यक्ति फे हृदय पर प्रभाव डालती है । वास्तव में संसार में न कोई अपना सगा सम्बन्धी है न पराया , सन न जिसको अपना समस्त लिया वह्टो अपना घन जाता है चाहे बह परदेशी हो या स्वदेशी ओर मन द्वारा स्वीकृत न होने पर अपने कुठुम्बी भी पराये घनते देखे गये हैं। फिर आत्मदर्शी राम तो सबत्र आत्मा का प्रतिविम्व देखते थे । राम स्वासी इस बात से सदा सावधान रहते थे' कि मेरे मन दोवारा सांसारिक प्रपन््च में न फँस जाय | संसार मभय से बढ़ कर फोई बुरी घाव नहीं। स्वामी राम
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कहते थे कि यदि कोई मुझ से पूछे: तो में अपने आप को भय से दुःखी करने की अपेक्षा जल में डूब सरना पसंद करूगा चोर धर में दसी घुसता है जब वह सुरक्षित नहीं होता | यदि उस में सदा दीपक जत्रवा रहे तो उसकी हिम्मत न पड़ेगी कि वह तुम्दारे घर की एक.भी वस्तु उठा सके | उसी प्रकार अपने हृदय में सचाई की रोशनी हमेशा जलाये रखो | बस फिर भय या लालच .की क्या शक्ति जो आपको अपने जाज्न में फंसा सके । द्वाथी का डीलडोल सिंह से कहीं बहुत बढ़ा द्योता है फकिल्तु उसके सनमें शेर का भय हर खमय बना रहता है, अत: शेर की एक दी गजेना को सनकर मारे भय के वह थर-थराने क्गता है. | डरपोक हाथी हर समय यही सोचता रहता है कि कद्दीं भेरा शत्रु मुक पर हमला कर मुझे खा न जाय | यद्यपि सिंह का शरीर छोटा है, किन्तु वह अपने फो द्वाथी से वल़्वान सममता है, थट्टी कारण है कि सो पचास द्वाथियों के कुण्ड पर बतवान शेर आक्रमण कर देता. है | स्वामी राम की इतनी गहरी सूक थी फ्ि वे शास्त्रों की प्रत्येक घात को लोकिक दृष्टान्तों द्वारा सोधें और सरल शर्ब्दा में सममताते जिस से ओता फे मन में वह बात जस जाती ओर स्वामी जी की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता था। उत्तका तो यर्दा तक विश्वास था कि मनुष्य ईश्वर बन सकता है। ईश्वर की ज्योति का साक्षात कार कर सकता है। वे कहते थे-कि यदि तुम ईश्वर की ज्योति प्राप्त करना पघ्वाहते हो तो ओर कुछ नद्दीं फेवल वासनाओं के काले परदे को अपने मन से परे फेफ दो | कभी अपते मन में उरो नद्दी, ठुम वो स्वतन्त्र द्ो। देखने में को दासत्व की बेड़ियां प्रतीव होती है वस्तुतः वह्दी स्वतन्त्रता की मालाएँ हैं ।
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तुम्हें कोई वस्तु हानि नहीं पहुंचा सकती, जय तक कि हानि-कारक वस्तु फो हम स्वयं न बुलाशो | तुम्हें कोई तलवार नहीं काट सकती ऊूब तक कि टुम यह न सोचो कि यद् काट सकती है। टेढ़ी चाल चलना छोड़ दो, मिथ्या-विचारों फे पुल न बांधो कोन सी शक्ति संसार में फिर शेप रह सकती है को आकर ठुम्दारे सासने सर न क्काये | पानी का चुलबुला जब तक अलग है तय तक घुलबुला है. किन्तु फूटते दी वह समुद्र हो जाता है। इसी भनंति ज़व तक ठुम श्रपने को इश्वर से प्थक सममभते दो तब तक टुम से ईश्वर सितम है । पर ज्ञव साया के पर्दे को परे हटाकर अपनी आत्मा को परमात्मा का एक अंश समझ लोगे तभी तुम्हें मुक्रित मिल जायेगी | इतने उच्च विचार हो जाने फे श्रनन्तर संसार की कोई शक्ति नहीं ज्ञो तुम्दारे आरो रुकावठ वन कर रहू सफे। स्वामी जो का कथन है, जब तह तुम्हे इस बात का अनुभव न हो कि हम में ओर संसार के अन्य लोगों में कोई अस्तर नहीं है, क्षय तक ठुम्हें यह न सालूम हो कि हम सब भ्ोर परमात्मा एक ही हैं त्तव तक तुम्हे सफज्ञता नहीं मिल सकती | आत्मा की श्वाज़, आत्मा की भांवना अवश्य अपना प्रभाव दिखाधी है। एक मनप्य यदि आत्मा की सच्ची प्रेरणा से कोई कास करता: है तो वह 'अवश्य पूरा होता है । एक स्थान पर स्वामी जी कहते हैं कि आध्यालि क प्रेम अर्थात् निःस्वाथ प्रेस से ठम जिसको चाहो बर्श में कर सकते द्वो। पुराने समय में ऋष मुनियों फे भाश्रममों में सग-शेर, सांप-मोर, बिल्ली-चूहे,
» साथ रहते थे तथा आश्रम वासियाँ के साथ स्रग कथा शेर
थे खेलते रहते थे। इसका कारण यद्दी था क्लि उच्त सब : निःस्वार्थ भावनां थी, .सधा आत्म-प्रेस था | इसी विषय में
( ३१ )
स्वामी जी उदाहरण देकर यों कथन करते हैं--'एक राज्ञा किसो जंगल में शिकार खेलने को गया। शिकार का पीछा करते हुए राज्ञा अपने साथियों से बिछुड़ गया। अधिर दूर निकल ज्ञाने वर प्यास मे ब्याकुल्न हो राजा एक सुन्दर वाग में बला गया। राजा शिकारी के भेष में या, माली ने राजा को नहीं पद्चिचाना परन्तु जब उसने कह्दा कि में बहुत प्यासा हूं जो कुछ भी पोने के लिए तुम्हारे पास दही से आओ । माली के हृदय में उस के प्रनि दया की भावना जागृत हुई; वह सीधे घाग में गया और कुछ अनार तोड़ उन्तका रस निचोड़ एक्र प्याला भर कर उसने राजा को दें दिया | राजा ने रस का प्याला पी लिया, किन प्यास की अधिक्रता के कारण माली से ओर *स लाने को कट्दा | माली लेने के लिए चला गया | इधर राजा फे मन में सद् भावना की जगह बुरे विचार होने कगे । उसने सोचा इस बाग में बढ़े फल-फूल दिखाई देते हैं, माक्षी आधे मिनट में द्वी शरबत तय्यार करके ले आता है। इसलिए इस बाग फे मालिक पर भारी कर लगा देना चाहिए | उधर माली ने देर लगानी शुरू कर दी | राजा आशय चकित टद्वो कददने लगा पहिले-पहल तो माल्ती बहुत जल्दी आगया था, परन्तु इस वार तो एक घंटे से भी अधिक समय दो गया ओऔ साली नहीं आया । थोड़ी देर फे वाद् जब साली आधा प्याला लेकर आया | राजा ने उससे पृद्दा-क््या कारण है कि पहिले प्याला भरा हुआ था इसवार आधा है।म.ली साधारया कोटि का मनुष्य होमे पर भ॑. शआत्म ज्ञानी था। उध्ने उत्तर दिया जब में पाइले रस का प्याला लेने गया या तो राजा की नीयव अच्छी थी ओर जव में दूसरा प्याला लेने को गया उसका उदार स्वभाव अवश्य बदल गया द्वोगा।
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यददी छारण है कि भनारों ने रस देना कम कर दिया, इसके अतिरिक्त में दूसरा कारया नहीं समर सकता ”' वास्वव में यही बात सच्ची थी बाग में प्रवेश करते समय राज्ञा के मन में वहाँ के ज्ञोगों फे प्रति ददार भावना थी। वद्द साचता था कि यहां के लोग गरोब हैं । इनकी सद्दायता करनी 'चादए। परन्तु भाली द्वारा लाये गये भनारों. के रस हो देखकर उसके विधार बदल गये। राजा ने ज्यों द्वी अपनी आत्मा में कलुपिद भावों को स्थान दिया बृतक्तों ने रस देना बंद कर दिदय्ां | स्वामी राम कद्ते हैं छि वृक्षों में भी वष्दी आत्मा काम कर रही है जो हमारे में | श्रात्मा सत्॒ की एक है, यदि एक आाणी की श्रात्मा में विश्युद्ध भावना है वो दूसरे की आत्मा पर उसका श्रच्छा प्रमाव पड़ेगा | स्वामी जी के इन उपदेंशों से पाठकों फो भली भाँति समझ लेना चाहिए कि उनको आत्मज्योति फा कितना प्रकाश प्राप्त था।
ये एक उच्च कोटि के मद्दात्मा थे | संसार में वद्दी क्ञोग अपनी कीर्ति को अमर कर सकते हैँ । जिन हृदय में जनता के प्रति सद्दानुभूति है, जो सब पर दया करते हैं | लोक और परलोक फा सच्चा रास्ता दिखाते हूँ । स्वामी रामतीथ भारत के उन सन्यासियों में से थे भिन्दनि अपने श्राप को भवसागर से मुक्त 'कर लिया तथा मानव-समाज का' भी अनिवचनीय कल्पांण क्रिया | हमें पूर्ण झाशा है कि मुक्ति को निज्लाखा रखने वाले क्लोग आपके सवंदा क्ृतज्ञ बने रहेंगे |
प्रकाशकः - भारद्वाअ पुस्तकालय गणुपत रोड, 'अनारकली' लाइोर (्न्द क्र सुद्रफ:--लाइोर झट प्रेस; १६ अनारकद्धी ल्ञाद्दोर |
पञ्ञाब कसराो लाज्ला लाजपतराय
प्राकृतिक नियम॒ के अनु 82 संसार का प्रत्येक प्रान्त एक ऐसे 'बचीर कमण्य ते न्स्वी पुरुष को जन्म देता है जिससे उसका अपना मुख ही उज्ज्वल नहीं होता वरन संसार का भी महान् उपकार होता है। लाला लाजपतराय भारतवप के इने-गिने नेताओं में से एंक थे। यो तो लाला जी का नाम लेते ही सहसा पञ्ञाव की ओर दृष्टि पड़ती है, क्योंकि वीर पुरुष पशञ्ञाव भूमि का ही यद सौभाग्य है कि ज्ञिसकी गोद में लाला लाजपतराय जैसे सनस्दी कमेवीर ने बालक्रीड़ायं की हैं। फिर भी लाला जी एक प्रान्त के होते हुए भी सा्वदेशीय, माने जाते हैं। उनकी सेचा-भावना फेवल पश्चाव के लिए ही नहीं अपितु सारे भारतवर्ष के लिए थी। अपने जीवन- : काल में उन्होंने जो सेवा-का्य क्रिया उसमें किसी जाति, किसी प्रान्त और किसी देश का भेद-भाव नहीं रखा । हाँ इतना थ्वश्य है कि उत्तरीय भारत के नवयुवको' में क्रान्ति की लहर उठाने का प्रेय ज्ञाला जी को ही है । भारतीय संस्कृति, वेश-भूण और धमम की रक्षा करना लाला जी का नेसगिक गुण था।
लाला लाजपतराय का जन्म ई० सन् १८६४; श८ जनवरी को लुधियाना ज्िलाकेअन्तगेत जगरांव नामक गांव में हुआ | ये जाति
' क्रेग्मग्रवाल वैश्य थे | आपके पिता का नाम राधाकृप्ण अर पितामद्द का नाम रहल्लामल था। रह्लामल जी पदिले पटवारी थे, परन्तु वाद में एक छोटी सी दुकान से अपने परिवार का खर्च चलाते रहे |
उनके पुत्र राधाहृष्ण पदने-लिखने में बढ़े चतुर थे । उ्दू मिडिल
(२)
कौर नामल परीक्षा पास करने के उपरान्त ये अपने गांव सगरांव में हीस््कुन में अध्यापक लग गये थे । राधाकृष्ण जी के विचार श्रा्ेसमानिक थे इसलिए पिता का प्रभाव पुत्र पर भी पड़ना स्वाभाविक था । यही बात है द्धि,, लाला लाजपतराय एक पट्टर सबंसमाजी हुए । इसके पिता छव्य विद्या-अयमसनी थे इसलिए उन्हनि अपने पुत्र को योग्य बनाने के लिए किसी प्रक्रार की कसी 'में रखी | लाला जी ने ४-६ बे की अवध्था से ही विद्या पढ़नी प्रारम्भ की | अपनी शेणी में हर समय प्रथम आना इसका वाँया द्वाथ | का खिन था। लाला जो की माता भी बड़ी बिदुवी थी। उसने भी वालम को इतना चतुर बना दिया कि सुदूर भविष्य में वह बालक सयातनामा भारतयप का मह्यान नेता बन गया । «सन १८८० में लाला लानजपतराय ने पश्चाव और कलक्षत्ता की एक साथ से ट्रक परोज्ञा पास की । इसके बाद इनको छात्रवृत्ति मिलन लगी ओर ये लाध्यैर गवनमेंट कालिज में प्रत्रिष्ट हो गये। एफ० ए० की परीत्षा के साथ ही इन्होंने मुख्तारी की परीक्षा-भी दी । दो बपे तक कालिन में पढ़ने के वाद १८ वर्ष को अवस्था से ये अपने गांव जगरांव में जाकर सुख्तारों करमे लगऐे। साथ ही ध्न्हो ने चक्ालात की परोक्षा भी दे दी, परन्तु परिश्रम अधिक न हो पकने के कारण उत्तोणं न हो सके | दूसरे वर्ष फिर उन्होंने बअकालात की परीक्षा दी । अत्र की बार वे पास हो गये । ३० छात्रों मैं से आपझा दूसरा नम्बर रहा! चक्रालव की परीक्षा में पास होने के बाद लाला जी ने सन् १८८६ से जिला दिसार में वकालत का कार्य प्रारम्भ कर दिया । अपने काय में लाला जी ने आशातीत सफन्नता प्र॒|्त की। वे एक योग्य और प्रतिभाशाली व्यक्तित थे. अत: थोड़े ही समय में गय्यमान्य व्यक्षियो' में गिने जाने लगे।
(६.३: 3)
य वकीलो' की अपेत्ता लला जी का सार्वजनिक जीवन था, क्योकि वे भू मुकदमो को कदापि नहीं लेतेथे और ग़रीबो की पेरवी बिता शुल्क के ही करते थे। न्याय का पत्त लेना इनका स्वाभाविक गुण था | स्वभाव से सरल,व्यछित्वमें उंचे विचारो'सें पवित्रता और अनथक परिश्रम आदि श्रसाधारण गुण बाल्यकात् से ही लञालाजी में पाये जाते थे | ल.लाजी शआय में दसरों से छोटा होने पर भी अनुभव में सर्वोतरि थे। आपके चरित्र पर प्रभाव | डालने का श्रेष॒ सर सेयद श्रहमद को है। सर सैयद श्रह्मद एक उठ का अखबार निकालते थे, जिसका नाम 'तहज़ीय-उल इखलाऋ! था| इपमें देश के प्रति ऊँचे भावो' से भरे सुन्दर लेख प्रकाशित हुआ करते थे। लाला लाजपतराय वचपन से ही इस श्रखवार को मेंगाते तथा पढ़ते थे । राष्ट्र के पति सर सैयद के भी ऊँचे विचार थे। एरफबर उन्होंने अपने पत्र में लिखा था कि--हिन्दू और मुसलमान मेरी दोनो' ओंखें हैं, क्या ही श्रच्छा होता कि मेरी ' एक ही आँख होती और एक हो श्रॉख से दोनो को देखता।
विचार बड़े उच्च हैं किन्तु भावना से कतेव्य ऊँचा होता है। सर सैयद के विचारों से लाला लाजपतराय का महान् उपकरार हुआ। अपने चरित्र-निर्माण में लाला जी ने अपनी पृज्य माता का भी उल्लेख किया है। उनका कथन है कि--में अपनी नाता जी का बहुत ही ऋणी हूँ।. उन्होंने द्वी मु के उदारता,दीन तथा श्रनाथो की सेवा करना और दान देने की शिक्षा दी। स्वयं भी माता जी दान ओर अतिथि-सेथा में लगी रहती थीं। वे कभी भी दूसरे की निन््दा नयी करती थीं। मेरे व्यक्तिगत चरित्र पर माता जी का अधिक प्रभाव है । उन्होंने मेरे दृदय में धार्निक्र-विचार, देश-संवा कर भारतोय संस्कृति के भाव बचपन में ही भर दिये ये ।
[9४] कक -
वास्तव में विदुवी माता अपने पुत्र को जितना अच्छा सुशील, सदाचारी ओर धार्मिक बना सकती हैं उतना कुशल अध्यापक नहीं। शिव्राजी हिन्दु जाति के परित्राता वीर, यशस्वी हुए। इसका एक मात्र कारण उनकी माता की शिक्षा का प्रभाव ही था। शिवाजी को उनकी माता ने बचपन में ही रामायण और महाभारत के बीरों का चरित्र पढ़ा दिया था। इस प्रकार के सैकड़ों दृष्टान्त भारतीय इतिहास में मिलेंगे। सर सैयद और ब्रिदुपी माता फे अतिरिक्त लाला जी के जीवन पर जिनका सब से अधिक प्रभाव पड़ा वे महर्षि दयानन्द सरस्वती थ्रे। हम पहिले ही इस बात की संक्षेप से चर्चा कर चुके हैँ कि लाला जी के पिता राधाकृष्ण जी आयेसमाजी थे श्रतः पिता का प्रभाव भी पुत्र पर पड़ा था, किन्तु जिन दिनों लाला जी लाहोर में पढ़ते थे सारे पंजाब में स्वामी दुयानन्द के व्याख्यानों की धूम मची हुई थी। स्वामी जी स्थान २ पर व्याख्यान देते धर्म के पाखरिडियों को शास्त्राथ द्वारा परास्त करते ओर जगह-जगह आये समाज की स्थापना करते । लाहौर में स्वामी जी ने १८७७ में आये प्माज की स्थापना कर दीं थी। इस महर्पि के प्रभावशाली व्या- ख्यानों से लाला लाजपतराय बहुत ही प्रभावित हुए । इनको समाज की सेवा करने. का यह एक बना बनाया सागे मिल गया था। फंलत: लाला जी ने. पं० गुरुदत्त विद्यार्थी एम० ए० और लाला हंसराज़् जी के साथ शआआरयसमाज में सम्मिलित हो देश की सेवा करने का बीड़ा उठाया | उस समय आयससाज का वृक्ष वाल्यावस्था में ही था। उसको अंकुरित तथा पह्लवित करने का अय इन्हीं तीन कर्मवीरों को है । ये तीनों मिल कर आयेसमाज . कै प्रचार में बड़ी तत्परता से सहयोग देते थे। लाला जी ने अपनी
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बकालत का काौँय लाहौर में प्रारम्भ कर दिया | कचहरी से अवशिष्ट समय में लाला. जी समाज की सेबी करते। पहिले तो' आयेसमाज एक संस्था के ही रूप में .थां, किन्तु आयसमाज के प्रवत्ेक स्वासी दयानन्द का १८८३ “में देहान्त हो जाने पर उनको स्मृति में १८८६ में डी. ए:“वी. कालेज की स्थापना इन तीनों मित्रों ने की। यह कालेज आज भी पंजाब के सारे कालिजों में प्रथम स्थान रखता है। लाला जी सदेव से शिक्षा-प्रेमी रहे हैं। उन्होंने डी. ए, थी. कालेज 'की स्थापना ही नहीं की वल्कि वारह वपे तक अवैेतनिक मंत्री रह कर कालेज को उन्नति के शिखर पर पहुँचाया | साधारंण सी संस्था को चलाने के लिए भी धन की आवश्यकता होती हैँ फिर कालेज के संचालन के फिए कितनी धन-राशि चाहिए, पाठक इसका श्रज्ञु- समान स्वयं कर सकते हूँ । ल्ञाला ज़ी ने अपने दोनों मित्रों पं० गुरुदत्त और लाला हंसराज की धन एकत्र करने को कहा, स्वयं भी गांव २ तथा शहर २ में जांकर कालेज के लिए चन्दा इकट्ठा किया। इन दिनों ज्ञाला जी मे वकालत का फाये स्थगित कर दिया ओर प्रसन््नता-पूवेक कालेज का कारये संभाला । कालेज के अतिरिक्त अनेकों संस्थाओं को इन्होंने सहयोग दिया। परन्तु अधिक परिश्रम के कारण लाला जी का स्थास्थ्य बिगठू गया और वे बीमार पड़ गये। उन्हें लाहीर छोड़ - कर- हिसार जाना पड़ा। इन दिनों लाला जी के साथी पं० गशुरुदत्त का भी देहान्त हो गया ओर फिर लाला जी १८६२ के बाद स्थायी रूप से लाहौर में ही आ गये। चीफकोर्ट में वकालत प्रारम्म कर दी। वे वकालत से जितना धन कमाते उससे वे सुख्न-प्रथक्त से रह सकते थे किन्तु उन्होंने विलासिता को त्याग कर अधिक
बफर
है
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से अधिक धन दीन श्नार्थों की सेवा में लगाया फिरोजपर में एक अनाथालय खोला, श्रन्य स्थानों में जनता को प्रेरित कर कई संस्थाएं खुलवाई' । किसी संस्था में जब श्धिक सदस्य काम करने लग जाते हूं तो जहाँ एक शोर उन्नति की सीढ़ी समीप होती जाती हैं वढों कभी २ वेमनस्य के कारण शवनति का झुख भी हैखना पड़ता है। ज्लार के आार्यसमाज में भी फ़छ कार्य-कर्ताओं फी फूर के कारण उसके दो दल घन गये । लाला जी ने दलवंदी तोड़ने के लिये भग्सक प्रयास किया पर कोई सफलता न मित्री । एक पत्त लाला मूलराज एम, ए. के नेतृत्व में घास पार्टी के नाम से प्रसिद्ध हुआ शोर दूसरा टी. ८, वी. कालेज का दल घना जो मांस खान के विपक्ष में था। लाला जी ने दलबन्दी अच्छी न समझी इस लिये उन्होंने आयसमाज से त्यागपत्र दे दिया, किन्तु मित्रों के अनुरोध करने पर फिर कालेज पार्टी में सम्मिलित हो गये । विपक्तियों को नीचा दिखाने तथा स्वामी दयानन्द फे सिद्ध'स्तों फा प्रचार करने के लिये ल्लाला जी ने एक . समाचार पत्र भी निकाला। इससे समाज में घड़ा सुधार हुआ। यदि लाला लाजपतगाय और लाला हंसराज जी न होते तो ढी. ए. घी काले न इतनी उन्नति कदापि न कर सकता | इस तरह इन दोनों मद्या पुरुषों को कालेज का शआ्आण भी बहें तो श्रत्युक्ति दोगी। लाला हंसराजजी अवेतनिक रूप में कालेज के प्रिंसिपल का काये करते थे तो लाला लाजपतराय मंत्री तथा प्रबन्ध समिति में निस्वाथे भाव से सेवा करते। सबसे बड़ प्रसन्नता की ब[त तो यहहे कि डी. ए. बी. कालेज के लिये सरकारी सहा* ता नहीं ली “7 गईक्योंकि लाला जी की यह राय थी कि सरकारी सहायता लेने से फालेज फा-प्रवन्ध स्वतंत्र रूप से नहीं चल सकेगा ।
शक 2
.. सन् १८६६-६०» में उत्तरी भारत में भयंकर अकान - पड़ा जिसके कारण सैकड़ों मनुष्य दाने-दाने के लिये तरसने लगे । असंख्य हिन्दु-चालक अनाथ द्वो गये । लाला जी ने यह समाज-सेवा का स्वर्ण श्रवसर हाथ से न जाने दिया आर सेकड़ों अनाथ बच्चों को अनाथालयों में भेजने का प्रबन्ध किया । समस्त हिन्दु जाति से धन की अपील की, आयसमाज की ओर से अकाल पीड़ितों की स्थान २ पर सहायता की गईं भारत में विदेशी साम्राज्य आने से यह समस्या समय सप्तय उपस्थित हो जाती है कि दीनों, अना्थों, भूखों और निराश्ितों को ईसाई प्रचारक लालच देकर अपने धरम में दीक्षित कर लेते हैं। इस प्रकार १६६८-६६ के शअ्रकाल में ईसाइयों ने हजारों हिन्दू श्रनाथ बच्चों को ईसाई बना लिया। लाला जी ने जहाँ अकाल पी ढ़तां को अन्न देकर सद्यायता की वहाँ ईसाई मिश्नरियों से झगड़ा कर दिन्दू बालकों को इसाई होने से भी बचाया। अनाथ बालकों को अधिकतर पञ्ञाव के अनाथालओं में रखा ग्रया। इस तरह अकाल पीड़ितों की सहागता और अनाथों की रक्ता के इस प्रयत्न में लाला जी की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। इनकी प्रेरणा से आय समाज के का*-क्र्ता बढ़ी तत्परता से कार्य करते रहे । लाला जी ने स्वयं चारों ओर भ्रमण करके ओजस्बी व्याख्यातों द्वारा तन, सन। घन से सद्दायता करने के लिये जनता को प्रोस्लाहित किया |
इतना तो निश्चित ही है कि यदि उस समय लालाजी न होते तो हिन्दु जाति की मद्यान क्षति होति। यद्यपि पब्लि तो सरकार लाला जी से चिद्तो धी क्योंकि इन्होंने ईसाई प्रचारकों'
हा हि)
के विरुद्ध आवाज उठाई थी, परन्तु १६०१में जब सरकार दी पोर
जा 5 से एक कमेटी बैठी छि श्रक्ाल पीड़ितों के साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो सव-प्रथम लाला जी की राय ली गई। इस कार्य से लाला जी के प्रति सब-साधारण जनता में क्ृतक्षता के भाव भर गये, चारों ओर से जनता ने उनका अभूतपूव स्वागत किया । ... सन् १६०४ में पंजाब में वढ़ा भयंकर भूकम्प आया। कांगड़ा के प्रान्त भें प्रसंख्य धन जन की ज्ञति हुई। इस समय भी लाला जीने लादोर शझ्राय समान की ओर से लोग की पर्याप्त सहायता की। स्वयंसेवकों को भेजकर भूकम्प से नीचे दवे आदमियों को निकाला, दीन अनाथों को शरण दी। इसी भाँति १६०४--६ में उड़ीसा भर युक्त प्रान्त में अकाल का प्रकोप प्रवल रूप धारण कर रहा था कि लाला जी ने तब भी पर्याप्त सहायता की और भूखों को जीवन-दान दिया । अब लाला जो का कार्य-क्षेत्र फेवल पस्कात्र ही नहीं रहा। चल्कि सारा भारतवपे हो गया। भारत वर्ष की स्वतन्त्रता के लिए ४०-६० बपे से कांग्रेस बड़ा भारी सेवा कर रही हैं। कांग्रेस का १६०४ में एक विशाल सम्मेलन वम्बई में हुआ उसमें कुछ प्रस्ताव रखे गये जिचको लन्दन में बृटिश पा्लियामेन्ट के सामने उपस्थित करना था। कौन इंग- लैण्ड जाथ इस श्रश्न के उठने के बाद श्रीयुत गोंखले और लाला लाजपत राय का नाम चुना गया। कमेवीर लाला जी भ्रीयुत्त गोखले के साथ इंगलैण्ड गये ओर वहों की जनता के सामने भारतीयों की माँगे रंखी गई। लगातार सभाएँ कर वहां एक सोसाइटी स्थापित की और इसी अनथक परिश्रम से इंगलिस्तान की जनता ने भारत के प्रति सहानुभूति प्रकट की ।
. योरुप से वे अमरीका भी गये, वहां भी कुछ समय तक - भ्रमण कर. भारतवपष को लौट आये । लाला जी अभी भारत में
फ
[ ६ |]
आये ही थे कि लाड कज्ञेव ने बंगाल प्रान्त के दो टुकड़े
दिये। जनता में बड़ा असन्तोप फैला हुआ था | बंग-विच्छेद
के विरोध में सारा देश स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार और विदेशी बस्तुओं का बहिष्कार पर ज्ोर दे रह्म था । लाला जी ने भी श्री याखले के साथ भारत के प्रमुख नगरो' सें भ्रमण कर और व्याख्यान देकर जनता को उत्तेजित किया। पू् में बंगाल के टुकड़े ओर पंजाब सें सरकार ने नहरो का कर बढ़ा कर अशान्ति की लहर फेलाई | सरकार ने जनता को इच्छा के विरुद्ध दमन की नीति अपनाई | प्रसिद्ध नेता जेलो' सें ढूंस दिये। सरकार के हिमायत्ती कुछ समाचारपन्नों' ने लाला जी के विरुद्ध भी आवाज़ उठाई और सारे देश की अशान्ति का मूल कारण लाला जो
को ठहराया | एक दिन लाज़ा जी जब कचहरी को जा रहे थे तो रास्त में दो पुलिस इन्सपेक्टर उनकी मोटर में चढ़ आाये। उन लोगों
लाला जी को डिप्टी कमिश्नर का देश-निकाले का वारण्ट दिखला दिया । लाला जी बन्दी बना दिये गये। गोरे अफसरों के साथ मियांमीर छावनी और वहां से स्पेशल गाड़ी में त्रिठा कर डाइमंड हारवर भेज दिये गये । वहां से जहाज्ञ द्वार रंगून ओर बढ़ां से सांडले भेज दिये गये । बढां लाला जी पर कदी देख-रेख रखी गई, उनसे कोई मिलने नदीं पाता था । एक बार
ब्रज
लाला जो के छोटे भाई घनपतराय उनसे मिलते के किये व
सा धन व्यय करके मांडले पहुँचे पर उन्हें भी लड़ा जी मिलने नहीं दिया गया। कहा जाता है कि बन्द्ी द्न के समय लाला जी ने अपने घर बालो को सूचना देनी चाही पर इन फो ब.त्प किया गया कि वे एक पतन्न लिख वह पत्र आपसे
हर मल
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घर भिजवा दिया जायगा | यद्दी हआ जब लाला जी को स्पेशल गाड़ी में बिठला फर लाहीर से बादर भेज दिया तब उनके घर समाचार भेजा गया । उधर निम्न कोटि के बन्दियों' की भांति लाला जी को जेल में उचित सुविधाओं से भी वंचित रखा गया ।
भोजन बनाने के लिये इन्हें एक्र मदरासी रसोइया दिया गया जो कि इनके अलनुकूत् भोजन नहीं बना सकता था-। कोई अख़बार भी पढ़ने के लिये नहीं दिया जाता था। बाहर से श्राने जाने वाली चिट्ठियां फाड़ ली जातीं। यदि कोई विशेष बात नदोतीतो उन्हे दे दी जातीं श्रन्यथा जब्त कर ली जातीं। इधर लाला जो के निर्मासन का समाचार सरकार की ओर से गुप्त रखने पर भो चिजल्नो की भांति सारे देश में फेन्न गया । समाचार-पत्रो' ने सरकार की कड़ी आलोचना करनी प्रारम्भ कर दी । देश के सारे नेता जोश में ञ्रा गये। कोंसिल आफ़ स्टेट में बड़ी ममेस्पशिनी विवेचना हुई । लाला जी ने भारत मनन््त्री से पत्न-व्यवह्ार क्रिया, किन्तु कोई सुनाई न हुई। श्राखिर कूटी यात कब तक छिपी रह सकती है. सरकार को मकुकना पड़ा । लाला जी निर्देशि सिद्ध हुए और ११ नवम्बर १६०६ की लाला जी कारागार से मुक्त कर दिये गये, परन्तु श्पेशल गाड़ी द्वारा जब तक उनछो लाहीर नहीं लाया गया तब तक यह समाचार गुप्त रखा गया । मियांमीर छावनी लाहोर के जेल में लाने के वाद मुक्त होने की आज्ञा सुनाई गई ।
जनता की दृष्टि जेल की चारदिवारी पर लगी हुई थी किसी फो पता न था कि लालाजी च््द नी जल्दी छोड़ दिये जायगे | मियांमीर से मुक दोकर जब लाला जी लाहोर शहर में अभी आ
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ही रहे थे कि शहर वालों ने आपका अभूतपू्े स्वागत किया। चारों ओर से बधाई की ध्वनि सुनाई देने लगी। सारे भारत में प्रसन्नता छा गई, शोक के बादल फट गए । छुछ दिन घर पर आराम करने के बाद आपने सारे देश में भ्रमण किया | सरकार की और से लाला जी पर जो श्राज्षेप किये गये थे उनका उन्होंने मुं तोड़ उत्तर दिया। जिन जिन समाचार-पत्रों ने उनके प्रति जहर उगल्ा था लाला जी मे उन पर मानहानि का मुकदमा चला दिया ।
इन दिनों कांग्रेस के नरम और गरम दल नाम के दो दल बन चुके थे । गरम दल के नेता लोकमान्य तिलक थे और नरम इल के नेता श्रीयुत गोखले | लाला जी ने बहुत प्रयत्न किया कि दोनों दलों में समझोता हो जाय । सूरत में जब कांग्रेस का अधिवेशन डुआ तो उस समय लाला जी ने व्यक्तिगत रूप से दोनों दलों में भाग लिया, परन्तु कांग्रेस में फूट रहने के कारण दे उससे उदासीन ही रहे | लाला जी की व्यक्तिगत इच्छा गरम इल की पक्षपातिनी थी । जैसे कि उनके भाषणों से पता चलता
उन्होंने एक सावजनिक सभा में यों कहा कि--+
“ज़च पूछिये तो में नहीं समझता कि ये शब्द जिन दलों के लिये व्यवहृत होते हैं, वे उनके सिद्धान्तों के वास्तविक घोतक हैं या नहीं । पर यदि वे शब्द हमारे लिए ही व्यचह्वत होते हों तो में अपने नरम दुल वाले भाइयों से प्राथना करता हूँ कि वे विरोधियों के हाथ की कठपुतली न बनें, सम्मच ई कि गरम दल वालों के काय के कुछ ढंग उन्हें पसन्द न हों, पर एक दल को इसीलिये उन्हें दूसरों के हाथ सपना ऋर उनकी निन्दा करना अथवा उन्हें गवनेमेंद का छोप-भाडन पनाना
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वैदना प्रकट की। जिसका सार निम्न है क्रि-भारत की जनता इस समय अकाल से पीड़ित है में चाहता हूं कि भारत में आकर श्रपने भाईयों की सेवा कहूँ, जैसे क्रि पहले से करता आया हूँ परन्तु भारत मन्त्री आज्ञा नहीं देता । । - लाला जी का हृदय कितना विशाल तथा सहानुभूति पूर्ण था, उनके कितने उच्च विचार थे ओर भारतीय जनता के प्रति कितना प्रेम था | इस बात का पता उनके कार्यो से तथा लेखों से चलता है। हिन्दू और हिन्दुस्तान के लिए लाला जी में पक्की लगन थी । इसके लिये वे बड़ी तत्परता से कार्य करते तथा देश हितकारी संस्थाओं का सुदृढ़ बनाने में यत्नशील रहते थे । मिस्र मेयो ने; भारत-बासियो' को कूठा, पातकी और असभ्य सिद्ध करने के लिए मदर इस्डिया? नामक महागन्दी पुस्तक निकाली | लाला जी ने उप्तका जवाब 'अनहेपी इण्डिया? लिख कर दिया । पुस्तक में अक्ात्य प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध किया कि पराधीन देश को ओर भी पराधीन बनाने के लिये कौसी चाल चली त्रा रही है। पुस्तक ने सारी दुनिया में खलबली मचा दी यूरोप वालों की पोल खुल गई--जानकार अंगरेज्ञो' का कहना & कि मिस मियो ने 'मदर इण्डिया! लिखकर भारत वासियों क्रो यूरोप के प्रति कटाक्ष करने का मौका दिया | लाला जी ४ साल तक अमरीका रह कर २० फरवरी १६२० को भारत कीट आये । परदेश में रहकर इनको कई एक कठिताईयो' का धामना करना पढ़ा। जिस कर्मबीर को देश-निर्वासन का दण्ड मिला हो और बृटिश साम्राज्य जिसके प्राणों तक्र का घातक हो । वह सुख से कैसे रह सकता दै--किन्तु .लाला जी. निर्भाक तेजस्वी और कर्मबीर पुरुष थे । ये बड़े से बढ़े क्रो के आने
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पर भी असनन््न-मुख रदते | उनका एक मात्र कथन यह होता था कि मनुष्य वढी है जो विपत्तियो' से निरन्तर संघर्ष करता रहे ।
लालाजी--भारतवप॑ में श्रसी आये ही थे कि मह्दत्मा गांधी के नेढृत्व में राष्ट्रीय नेताओं ने आन्दोलन फिर से शआरम्भ कर दिया। आन्दीलन का मुख्य कारण यह था कि चेम्सफोर्ड ओऔर मांदेगू घोषणा के श्रनन्तर पंजाब में हत्गकांड माशेंला आदि से भारतीय जनता छुब्ध द्वो उठी थी। श्रत्याचारी गोरे अफसरों के अत्याचारों की छान-बीन करने के लिए एक जांच फसेटी नियुक्त की गईं। जिसने उनको शत अतिशत दोपी ठद्वराया, किन्ठु सरकार ने उनके विरुद्ध कोई प्र नहीं उठाया। इसलिए असहयोग भान्दोलन ने उम्र रूप धारण कर लिया । लाला जी ने भी पूर्ण सहयोग दिया। इस में मद्दात्मा जी के शअसह- योग का काये क्रम यह था कि लोग सरकार को किसी तरह का सहयोग न दें। सव लोग सरकारी नोकरो छोढ़ दें। अदालतों का वहिष्कार किया जाय, वकील वकालत छोड़ दें। विदेशी वस्तुओं का सर्वेथा बहिष्कार किया जाय श्स आन्दोलन की आंधी सारे भारत में फेज् गई । लालानी ने देश का साथ देते हुए पंजाब में असदयोग की श्राग लगा दी । प्रान्तीय सरकार ने आन्दोलन का प्रमुख नेता उनको समझ फर ३ सितम्बर १६२२ फो उन्हें गिरफ्तार कर लिगय्रा और छेद बंप की कड़ी सजा दी गई। श्रादतायी सरकार ने जेल में भी इनको अनेकों कट दिये। फल्न-स्वरूप इनका स्थास्थ्य बिगड़ने लगा, परन्तु लव उनकी रुग्य अन्रस्था भ्रधिक द्वानिप्रद सिद्व ह तो १६ अगस्त १६२३ को ज्ञाचार घोकर सरकार ने इन्हें छोड़ दिया। दाद में लाला जी को अच्छी चिछित्सा द्वारा आराम
[हे]
आ. गंया और वे फिर पूवेत् अपना काय-ऋम में तत्पर हो गये श्रान्दोलन जारी रहा, पर उसमें आशातीत सफलता- नहीं सिली हिन्दु जाति की संख्या कम करने के,लिए अछूतों को भड़काया जाने लगा। सैकड़ों अछूतों को मुसलमान तथा इसाई बनाना सांप्रदायिक संस्थाओं का - मुख्य उद्देश्य बन गया। लाता जी ने पं? सदनसमोहन मालवीय ओर श्रद्धानन्द के साथ इसाई और मुसलमान बने हिन्दुओं की शुद्धि की। हिन्दू लोग अस्प्रश्य जाति के साथ जो अनुचित व्यवहार करते आ रहे थे | उसको दूर करने के लिये भी लाला जी ने आयेसमाज की ओर से अछतोद्धार का आन्दोलन जारी किया। धीरे-धीरे असहयोग आन्दोलन शिथिल होता गया। पर लाला जी की वाक, -पढ़ुता तथा, कमेण्यता को' देख कर स्वराज दल .की ओर से : उन्हें असैम्बली में भेजा गया | वहाँ जाकर लाला जी ने अतिपत्षियों से संघण कर, देश के हितों की रक्षा की | इनके युक्ति-पूर्ण वक्त- ज्यों. से सरकारी पक्त-पोषक थर्रा. जाता था ।
.. सन् १६१६ के शासन-सुधार की घोषणा से भारतीय जनता को पूर्ण सन््तोष तो न हुआ, किन्तु उसमें कुछ आशा की “किरण भी उनको दिखाई दी | वृटिश क्षरकार कूटनीतियों से अपने साम्राज्य को दृढ़ बनाने भें भरसक प्रयत्न करतो चली आई है । इस लिए १६१६ में उसते भारत को भी अश्वासन दिया कि १०बप बाद भारतीयों को पूणुरूप से शासन अधिकार दे दिये जायेंगे ' किन्तु भारतीय जनता शासन करने के योग्य है या नहीं इस बात के निर्णय के वाद ही योजना कार्य रूप से परिणव हो सकेंगी यह नियस भी साथ ही घोषित कर दिया था। सब १६२८ में पालियामेन्ट ने एक साइमन कमीशन” जांच करने के लिए
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भारत भेजा। ३० अक्टूबर को जब साइसन कसीशन+%, रा छू(< आया तो जनता ने कमीशन का विरोब करने के लिए कालो म्मेडियाँ द्वारा उनका स्वागत करने के लिए एक विराट जलूस निकाला | सरकार ने जलूस को रोकने के लिए १४४ घारा लगा दी; किन्तु जनता ने उसकी छुछ भी परवाह न की। दिन के दो बजे स्टेशन परजत्र जलूस पहुँचा तो पुलिस ने बड़ी निदूयता से काम लिया । जनता अभी शाम्त थी, उप्तके पास कोई हथियार न थे। किन्तु अत्याचारी पुलिप्त अधिकारियों ने जनता को पीटना प्रारम्भ कर दिया। लाला जी. सबसे आगे थे इसलिये उन्हीं पर सबसे पदिले पुलिस की लाठियां बरसीं। इनकी छाती पर गहरी चोट लगो, किन्तु कंमंब्रीर लाला जी अपने स्थान से इंच भर भी पीछे हीं हूटे | इसके अतिरित्त रायज्ञादा हंसराज डाक्टर सत्यपाल डाक्टर आलप्त, डाक्टर गोपीचन्दर आदि नेताओं पर भो लाठियों से चोट अआइई। लाला जी के छाती का चमढ़ा छिल. गया और उसी दिन से उनको ज्यर ने घेर लिया। शाम को एके विराट रूभा लाला जी के सभापतित्व में हुई। पुलिस के अत्याचारों की लाला जी ने घोर निन््दरा तथा कड़ी आलोचना की। इटिश सरकार के प्रति लाला जी ने घुणा प्रकट की आखिर म॑ सभा समाप्ति के बाद सब लोग शो काछुल अपने-अपने घरों को लौट गये लाला जी घर पर जाते द्वी बीमार हो गये | उसी चोट फे कारण उनका, स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन विगड़ता गया | श्राखिर ९७ नवम्बर श्ध्रूथ को सवेरे ७ बजे हृदय की गति रुक जाने से लाला जो मे इस असार संसार को त्थाम'दिया । लाला जी की मृत्यु का समाचार सारे देदशा भें घाय सुना गया। लाइर शहर में तोशोर की
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छो.गई+- सारे स्कूल कालेज्ञ, दफ्तर बाज़ारों ने उनके शोर में ऋंपना सारा कार्यक्रम बन्द कर दिया। शोक-सभाएँ की गईं। लाला जी 5३-६४ वष की अवस्था में स्वग सिधारे, परन्तु लाला जी एक नवयुवक के समान सदा काय में तत्पर रहे। वे उन पुरुषों में से थे जो कतेव्य-पथ में बाधाओं को शुभ और सफलता का कारण सममते हैं ' यदि वह चाहते” तो चक्रालत से लाखों रुपया कमा सकते और बड़े आराम से अपनी जिन्दगी बिताते पर उनमें त्याग की एक विल्क्षण शक्ति विद्यमान ,थी। देश के काय के लिये उन्होंने सव छुछ न्योछावर कर दिया । इसमें कोई सन्देद नहीं कि लाला जी भारत माता के सच्चे पुजारी थे। दीन दुखियों के प्रति लाला जी के हृदय में अकथनीय दया थी। हुखियों को देखकर उनका हृदय इतना उमड़ आता था कि जे अपना सर्वेस्व समपण करने में भी नहीं हिचकते थे। हिन्दू और हिन्दुस्तान के लिए लाला जी में पक्की लगन थी। वे बड़े ही मिलनसार थे । उनकी वाणी में ऐसा जादू भरा था कि जो एक बार उन से मिल लेता चंह अवश्य प्रभावित होता। अमिमान करना तों लाला जी जानते ही न थे। वे सदा साधारण वेष-भूषा में रहते थे.। विदेशों में भी अंपनी संस्कृति तथा सभ्यता को अज्ुब्ध धताये रखना लालों जी का ही काम था। भारतीय इतिद्ास में लाला जी का नाम सुनहरे अक्षरों से -अंकित है। ऐसे धमंवीर . को पाकर ही भारत गौरवान्वित हुआ- है । | साइमन कमीशन को रोकने के लिए यद्यपि लाला जो कुछ भी नहीं करना चाहते थे, किन्ठु भारतीय जनता की ओर से प्रति- निधि रूप वे इतना अवश्य प्रकट करना चाहते थे कि इस कमीशन से[हमें छुछ भी लाभ नहीं। हम बंटिश सरकार से प्रार्थना करते
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हैं कि वह हमारे अधिकारों को शीघ्र दे दें । फिर क्या था बहुत से लाहौर निवासी स्टेशन पर पहुँच गये । छिसी प्रकार का विद्रोह करना जनता का उद्देश्य न था। लाना जी ने उस समय का वन स्वयं अपने सुखकमज्ञ से इन शब्दों में वन किया है--
“जलूस विल्कुत्न निहत्था था, हमारा इरादा कगहा करने का नहीं था । में कहता हूँ कि हम इन लाठियो' को खाने के लिये तैयार हैं और जब तक यहों अंगरेजी हकूमत है तथ तक दम उनके खाने के झुस्तहक हैं। लेकिन यह एक एक लाठो की चोट गवनमैट के शवाधार (चख्ता)के लिए एक एक कील, कफन का एक एक तागा सावित होगी । श्रगर देश में कोई हिंसात्मक क्रान्ति होगी तो उसकी ज़िम्मेदारी पुलिस और उप्तके अफसरो' पर दोगी। अगर गवनेमेंट और उसके अफसर इसी प्रकार का श्रत्याचार करते रहेंगे जैसा कि उन्होंने आज्ञ तक किया है, तो भारत फे जोशीले नौजवान उत्तेज्ञित और अधोर हो उठेंगे। उस समय मेरे: मालवीय जी के यथा महात्मा जी के लिये भी इन्दें अर्दिसा की मयांदा के अन्दर रखना असम्भव हो जायगा ।
लाला जी के इन शब्दों से स्पष्ट है कि जनता के शान्त दान्त रहने पर भी सरकारी अफसरों को कितनी अदृर-दर्शिता थी। वे दमन से देश में शान्ति स्थापित करना चाहते थे | डिन्तु दमन-नीति का अवलम्बन न लेने से प्रजा को शास्ति में ऋति 'की लद्दर दौंड़ पड़ती है । चृटिश गवनेमेंट ने सदा दमन दी नीति का सद्दारा लिया | उसी का ही यह परिणाम हूँ कि भारत- वर्ष आज जागृति की दृष्टि से कोसो दूर आगे बढ़ चुट्ा है। अपनी छातों पर उंडे की गहरी चोट खाकर भी उन्दांन लिस सहनशीलता झौर दीरता क्वा परिचय दिया ई. उससे लाता
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>जीका यश गौरव के शिखर पर प्रतिष्ठित हुआ । साथ ही नोकर शाही के छुक्वत्यो' एवं अत्याचारो' का एक नमूना सदा के लिये उदाहरण बन गया । कक & ' * यह चोट केवल लाला जी के वक्त:स्थल पर ही नहीं लगाई गई थी, अपितु देश से प्रेम रखने वाले तथा लाला जी के पंद-चिन्हो' पर चलने वाले नवयुवको' के हृदय . पर पहुँ चाई गई । कम्ेचीर लाला लाजपतराय ने अपने-अदूभुतू सांहस और त्याग का परिचय देते हुए हमको यह बतला दिया है, क्नि यदि तुमने स्वतन्त्रता का संग्राम लड़ना है और-आततायी बृटिश गवर्नमैंट से संघव करना है तो अपने जीवन को हथेली पर रखकर आगे कद्म बंढाते चलो । पाश्चात्य शासको' के पाशविक वल का शारीरिक वल से नहीं अपितु आत्मिक बल से दसन करो। जब कभी राजनैतिक क्रान्तियां हुईं उन सब .में लाला जी का अपने जीवन काल में अमुख हाथ रहा । असहयोग आंदोलन में जब ये जेल में थे और देश के लिये स्वयं छुछे नहीं कर सकते थे तो उस समय लाला जी द्वंरा स्थापित दो संस्याएँ .( तिलक राजनीति विद्यालय, और लोक-सेवक संघ ) ' अपना कास पूररूप से करती रहीं । लाला जी इस वात को प्रहिले से ही जानते थे कि नेताओ' के गिरफ्तार हो जाने के बाद समाज में जागृति पैंदा करने वाला कोई न रहेगा। इसलिये यदि संस्थाएं स्थापित की जायेंगी तो वे अपना कार्य करतो रहेंगी | दानवीर लाला जी ने “ततित्रक राज़नीति विद्यालय” कें' लिये ४० हज़ार रुपये का अपना पुस्तकालय और डेंढ लाख रुपये का अपना भवन दान में दे दिया था । इस विद्यालय: में स्वृतन्त्र राष्ट्रीय शिक्षा पढ़ाई जाने का आयोजन भी किया गया। लोक सेवा संघ का काम था कि बह राष्ट्रीय कार्यकर्ता तयार -
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करे | इसका यह मुख्य उद्देश था कि भेद-भाव रहित समस्त सारतीय जनता की सेवा करना | आज भी यह लोक-सेचक-संघ बड़ी सफन्नता से अपना कार्य करता हुआ लाला जी की कीर्ति को देदीप्यमान कर रहा है ।
लाला जी यद्यपि ६१--३६४ व की आयु में परलोक सिधारे परन्तु उनके उत्साह और कर्मण्यता की वराचरी २०-२४ वर्ष का न्वयुवक भी नहीं कर सकता था। प्रायः सभी मनुष्य किये जाने बाले कर्मो' में विश्नवाधाओ को अपशक्षत सममते हे किन्तु लाला जी उन मनुष्यों में से थे जो कततेव्य-्पथ में बाधाओं के शुभ शकुन और कार्य सफन्नता का कारण सममते थे। उनमें त्याग को एक विलज्ञण शक्ति थी । श्रन्त्र धनिक्रों' की भांति भोग- विल्लास में जीवन व्यतीत करना लाला जी के प्रकृति के विरुद्ध था। वे पर-दःख से दःखी ओर पर-सुख से सुखी रहने याले व्यक्ति थे | उनके हृदय में अपने दुख्िया देश के लिये अपार करुणा-भरी पीड़ थी । राष्रवादी होते हुए भी हिन्दुओं के साथ होने वाले अत्याचारों को वे सहन न कर सकते थे | यदि दखिया अपनी सच्ची करुणा-कदानी सनाता तो लाला जो वा हृदय उमड़ पड़ता ओर वे उसे अपना सवध्य तक देने फे लिय पैयार हो जाते थे | महात्मा यांधी की तरह ये शदूतों को झपना अंग समझते थे | उनझा हमेदा यह प्रवत्त रहता था कि श्रद्टनों में सुधार हो, उनके प्रति वही व्यवद्वार क्रिया जाय जेंसा हम दूसरों से अपने प्रति चाहते ४ । द्विन्दू जाति से अस्पम्यता शोर वरणव्यवस्था दूर करने फे सम्बन्ध में लाला जी के वियार बड़े दृद थे | उनको यह विश्वास हो चुरा था क्वि जब तक दिन्द जाति अपने एक सारी अंग श्रस्पृश्य जातियों के साथ उँद-नीए
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काज्थिबहार मिटा कर उन्हें भी. अपने जीवन-संघर्ष में साथ- ज्लथ ले चलने को उद्यत नहीं होती तब तक वह संसार की संग- ठित जातियों के सम्मुख अपना मुख उज्ज्वल नदीं कर सकती । हिन्दू समाज को संगठित तथा शक्तिशाल्नी बनाने के लिये लाला जी कभी साम्प्रदायिकता के प्रपञ्व में नहीं फंसे । दिन्दू प्रह्यसमा ने कई ब/र अपनी सभा के पदाधिकारी बनने के लिये लाला जी को निम्नन्त्रित किया, परन्तु उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया । क्योंकि थे सम्रकेते थे कि साम्प्रदायिकता का सद्दारा लेकर मेरी व्यापक राष्ट्रीयता नष्ट हो जायेगी ।हाँ हृदय से वे हिन्दुत्व के पक्तपाती अवश्य थे । पदजाब के हत्याकांड के समय हायर और झोडवायर ने जनता के साथ जैसे श्रत्याचार किये धै, निडृत्थों पर मशीन-गन चलाई थी, गोरे अफ़सरों द्वारा भारतीय महिलाओं के पढे उठाये गये, उनका सतीत्य नष्ट किया गया था | इन सब अमानुषिक अत्याचारों का लाला जी के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा यद्यपि नीति-निपुण ब्ृटिश सरकार ने इस घटना की जाँच के लिये “हंटंर कमीशन” नियुक्त क्रिया था, जिससे लोगों को आशा थी कि पक्तपात-रहित निर्णय होगा, किन्तु उसने भी गोरे अधिकारियों का ही समथन लिया । लाला ज्ञीने सरकार की इस कूरनीति को देख कर अपने देनिक उद अखबार में शासन-सुधार में भारतीयों को भाग लेने की प्रेरणा की | उनका कथन था कि कॉंसिलों में सरकारी . कम- चारियों के साथ जनता के प्रतिनिधि मिलकर ही कुछ काम कर पत्ते हैँ, परन्तु जब उन लोगों की मनोधृत्ति भारतीय जनता को इस प्रकार अपमानित और अत्याचार से पीड़ित करने की है, चदां आपस में एक दूसरे का विश्वास नद्दीं सकता। इस
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लिये फोसिलों में जाकर शासन-सुधार में योग देना भारतियों के लिये निरर्थक और अपमान-जनक है । लालानी की इस प्रेरणा में यह वात स्पष्ट है कि वे केवल कोसिल के पद प्राप्त करने के भूखे न थे । उन्होंने स्वयं भी कोंसिल में जाना स्वीकार इसलिये किया था कि वहां जाकर भारतोय जनता की छुछ सेवा कर सके । उनका छोटे से छोटा भी कोई ऐसा काम न था जो परोपकार के लिये न हो | जिस समय लाडे कज्ञन ने अपनी अदृरदर्शिता का परिचय देते हुए बंगाल के दो टुकड़े कर दिचे तो बंगाल निवातध्तियों फे साथ सारे भारत-वासियों में उत्तेजना की लद्दर दौढ़ छठी थी, उन्हीं दिनों 'पठ्जाबी' नामक अखबार पर राजद्रोह फा मुकदमा चला कर सरकार ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया। इस मुकदमे की कोई विशेष मोलिकृता भी न थी ! साधारण सी घात थी--एक अंगरेज्ञ पुलिस सुपरिटेंडेंट एक दिन शिकार खैनने जंगल गये, उन्होंन एक सूअर मारा। जब उन्द्वने श्रपने मुसलमान खानसामा को मरा हुआ सूझ्नर अपने बंगले पर पहुंचाने को कहा तो उसने इस्लाम धर्म में सृअर हराम माना जाने के कारण उसे छूने से इन्कार कर दिया । इस पर साहब ने खानसामा को गोली मार कर यमलोक पहुँचा दिया। इस समा- चार को छापने के कारण 'पंजाबी' नामक अखबार दमन परी चक्की में पीसा जाने लगा | पंजावी ने यह खबर इस लिये छापी थी कि इस घटना की जांच की जाय । योदपियन होया हिन्दुघ्तानी हृत्याकाए्ड फरने वाले फो सज्ञा अवश्य मिलनी चाहिए थी, परन्तु इटिश सरकार के पश्रफसरों ने उल्दें इस पर जाति-गत द्रोह फैज्ञने का दोष लगा कर राजटद्राहद फ्ा फेवल
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एम. ए, तथा सम्पादक काशीकृप्ण को छ: छः: महीने की सज्ञा- भी दे दी | पंजाबी” अखबार के ऊपर की गई कठोरता का लाला जी पर अत्यधिक ग्रसाव पड़ा । अब उन्होंने यह अच्छी तरद से सम लिया कि अंगरेज्ञों की त्रीयत मारतवासियों के प्रति अच्छी नहीं है | सावेजनिक कारयों की या जनता को मांगों को उपेक्षित दृष्टि से देखना वृटिश सरकार की आदत. सदा से चली आ। रही नीनि है। इस बात से लाला जी आगबगूला हो गये और सर-, कार की, कूटनीति का आम जनता में, बहिष्कार का प्रचार करने हंगे। इस सम्बन्ध में जनता में उत्तेजना फैलाने का काये सरदार अजीतसिह ने बड़े ज्ञोर से किया। लाला जी नें स्थान-स्थान प्र जनता द्वारा की गई सार्वजनिक सभाओं में यह बात स्पष्ट कह दी कि सरकार आन्दोलनों को शान्ति करने के लिये जनता के अधिकारो' को अमानुपिकता के साथ न छुचले । इंससे सरकार की सदभावना के स्थान में भ्रधिक कठोरता का पंरिचय मिला | फन्न-स्परूंप लॉला 'लाजपतराय और सरदार अजीतसिंह को देश-निकाला हो गया । किन्तु इन दोनों देशं-भक्तों ने इस उम्र दण्ड को सहृेष स्वीकार क्रिया और सवे-साधारण जनता के सामने अपना आदर्श उपस्थित कर दिया कि सच्चे वीर जो काय करते हैं उसे पूरा न करने तकं कभी पीछे नहीं हटते | जिस समय देश-निक्रोला हुआ उस सप्रय उनकी निर्भयता देखने योग्ये थी। इस मनस्ंवी परुप से गवरन मेंट को इतना भय था कि देंश-निकाले के समय जब तक लाला जी लाहौर से बन्द और स्पेशल गाड़ी के द्वारा मांडले नहीं भेजे गये तब तक किसी को पता भी नहीं लगने दिया गया। येंहां तक कि उनके पास कोई हिन्दुग्वारी नहीं
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ने दिया गया और आम्-पास गोरे सिपाहियों का बन्दरकों का पहरा लगा रद । लाला जो का व्यपित्व क्रितना ऊँचा था। भारतीय जनता पर उनका क्ितता प्रभाव था इसका वर्णन करना हमारी लेखनी से बाहर है। उनके देश से निकाले जाने पर एक पत्र ने उनके विपय में थों लिखा था--“"देश का रोना लाला लाजपतराय के लिये नहीं है, उन्हें पराधीन पश्चाच से साण्डले की जेल लाख दर्ज अच्छी है। बढ़ा इनके पीछे जासूस नहीं दौढ़ेगे । न कोई मजिस्ट्रेट ही वहां के वृक्षों और पर्वतों को उन के व्याख्यान सुनने से रोकेगा । जीवन-व्यापी सवा त्याग के ऊपर यदि कोई भेंट चद् सझता तो यही जन्म भर की माई | कांगड़ा के प्रचण्ड भूकन्प के समय सरकार से भी दो दिन पहिले सद्रायता लेकर ऋष में पड़े हुआ की रक्षा और मदद के लिये पहुँचने वाले परोपकारी लाला जी का ही फाम था। आज एक-एक बचा लाला जी के वियोग में तड़प रहा हैँ । श्राज बटर समातनथर्मी भी प्रायसमान रे समथक्र इस देश्य ज्ञाति के रत्न के प्रति क्पनी समचेदना प्रकट करता है। वीरभूमि पश्चाव का वीर पुत्र गरीबों का सदापक, प्रश्मुख राजनेतिक टससे यद फर उचच पद क्या प्राप्त कर सकता है. कि देश-सेवा के हर प्रसिद्ध व्यक्ति को अपने देशसेवा द्वित देश से निशाल दिया जाय, लाला जी का घिद्धान्त और भन्तव्य यही था कि मेरा मतहय हऋ-परस्ती है!! सेरें! मिल्लत दौस परस्ती है, मेरी इधाइत शलक
या ० % ०
का तल परघ्ती 6. मेरी प्रदालत मेरा इ्त-करण हें. मेरी जायदाद न स आ
है| मेरी कलम है, मेरा मन्दिर मरा दिल है, जवान हैं।., तत्झालीन समाचार-पत्त के इस दादी से साधारगा कोटि का मनुष्य भी घच्णी तरह समस्त सहताई दि का जी का प्रभाव खूब हो भांति सारे देशामें दिस प्रसार प्रमाश
“कह ३००० ही 3६ फृ है।
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चृटिश सरकार की दमन-नीति से छुचले जाने वालों की रक्षा तो लाला जी अपने जीवन में निरन्तर ऋरते ही थे । परन्तु देश में अन्य प्रकार की विपन्चि आने पर लाला जी तन मन ओर घन से उसका पअतिकार करने में सदा संलग्न रहते थे । इनके जीवन-काल में कई्टे बार सारत-वासियों को अकाल का ग्रास बनना पढ़ा। वृटिश सरकार यदि अकाल पीड़ितों वी सहायता करती थी' तो केवल इस लिये कि उन्हें बहका कर ईसाई मिश्नरियों द्वारा ईसाई बनाने का अवंसर मिल जाताथा। सरकार के एजण्ट स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा करते थे कि यदि ईसाई बन जाओगे तो पेट-भर अन्न खाने को मिलेगा | अकाल- पीड़ित प्रजा अपने ग्राण बचाने के लिये सहष ईसाई बनना स्वीकार कर लेती। लाला लाजपतराय ने आअंग्रेंज्ञो की कूटनीति को समझ कर इन अकाल-पीड़ितों का भार अपने ऊपर लिया | रात दिन दौड़-धूप कर चन्दा इकट्ठा किया । कई स्वयं-सेव्कों का दल बनाकर आयेसगाज की ओर से प्रजा की प्रशंसनीय : सेवा की । हज़ारों रुपये अपनी जेब से परोपकार में खर्च किये।
... थाँतों राजनैतिक नेता एक से एक बढ़ कर इस भारत भूमि में हो चुके हैं, ओर कई एक ससाज-सेवक, घस-रक्षक, एवं जाति-रक्षक भी हो चुके हूं, परन्तु लाला लाजपतराय के अति- रिक्त ऐसा और कोई; नहीं हुआ जिप्तमें ये सारे गुण विद्यमान हों। अपने समय में थे उच्चकोटि के राजनैतिक होने के साथ रे अट्डितीय समाज-सुधारक भी थे | इन गुणों के अतिरिक्त उनमें एक विशेषता और भी थी, वह थी दानवीरता ! जब कमी देश- सेवा के लिये घन की आवश्यकता होती तो स्वे-प्रथम लालानी अधिक से अधिक घन दान करते तथा ओरों को भी प्रेरित करते | अपने प्रान्च पत्चाव में हो नहीं उड़ीसा. मध्यप्रान्त, ओर
टच
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युकप्रान्व आदि सें भी जब भीपण अक्नाल का प्रकोप हुआ वो उस समय लालाजी के अथक परिश्रम हा यह फल होता था। कि लाखों प्राणी सौत के मुख में जाने से बच जाते। सचमुच यदि १६०७-८ के अकाल में लाला लाजपतराबय जैसा कमेवीर मैदान में नआता तो उस समय भारतीय जनता श्रीर विशेष कर हिन्दुओं की जो हानि होती इसका अनुमान सहज में ही लगाया जा सकता है । लाला जी कारों में इतने संलग्न रहते थे दि यदि कोई दूसरा व्यक्ति होता तो वह उत्साह छोड़ बैठता, परन्तु ये तो अपना एक क्षण भो व्यर्थ नहीं बिताते थे। जहों व्याख्यान में पिह-गजना कर वेरियों का हृदय दहला देते वहोंये एक अच्छे सिद्धदस्त लेखक भी थे । अमेरिका में लालाजी ने श्रपनी लेिखन-कला के द्वारा ही उन बिदेशियों को अपने सिद्धान्तों का समथक वनाया तथा अद्वितीय लेखन-दला द्वारा ही श्रपना ग्राजीविका चलाई | जब लाला जी अमेरिका में थे तो इनकी करे पुस्तका तथा लेखां को वहों की जनता ने बढ़े हप तथा चाव के साथ पढ़ा । पराधीन ओर छोटे-छोटे राष्ट्रों के सम्बन्ध में विचार करने फे लिये अमेरिका में बेठी हुई एक बंदेशिक समिति के सामने उपस्थित करने के लिये उन्दोंने पक विश्लप्ति छपचाई का शीपक भारत एक श्मशान भूमि” था इसका यूराप ते अमेरिका फे अतिरिक्त एशिया की सभी भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हुआ । भारत की वास्तविझता से सभी जानशार दा गये, सारा संसार वित्नप्ति को पढ़कर दृहल गया। लाहाडी मय लेखनी ने इतमें जो कमाल कर दिखाया वह 'प्रन्थम्त्र दुलभ £ै । इसका एक २ शब्द चुना हुआ हीरा है । झो जम्विनी भाषा गई इस छोटी सी विज्ञप्ति नेन फेइल लाला जो को ही से चद्ाया अपितु सारे रे भारत का सुस चयपत् दिया । थि रोग? नले अगली दया फर शाप्यय-चक्िन रह गये कप ना
हित
पड़ी क्रिशुद्धि-बल में भी भारत सब से बढ़ कर है। लालाजी ने अमेरिका के भारतीब मज्दरों के सम्बन्ध सें भी बड़ा श्रच्छा . काय किया। उन्होंने उन्ता संगठन कर एक मज्ञदर संघ की स्थापना की। शिक्षा का प्रचार करने के लिए रात्रि पाठशालाएँ
खोलीं । हि लाला जी सदा से ही वृटिश सरकार के विरोधी रहे हों,
यह बाते भी नहीं। जब यूरोप में प्रथम महायुद्ध छिड़ा था, अंग्रेजों ने भारत से सहायता मांगी तो महात्मा गाँधी की भांति लाला लाजपतराय ने भी अपनी यही अनुमति दी कि भारतीय चीर इस महायुद्ध में अंग्रज्ञों की पूरी सहायता करें। क्योंकि उन को अपनी वीरता दिखलाने का अ्रवसर मिल जायेगा। भारतीय जंनवा ने इस युद्ध में सच्चे हृदय से धन तथा जन से अंग्रेजों की पर्याप्त सहायता की । सुदूर फ्रॉस के मैदान में बीर बांकुरे भारतीयों ने जमेनी वालों के छक्कें छुड़ा दिये । अपने नेताओं “की आज्ञा पालन फर भारतीय जनता ने अपने ऋतेव्य को पूरा किया। किन्तु क्तन्न नीति-नीपुण सरकार ने उसके बदले में रोलट ऐक्ट पारितोषिक-रूप में भारतीयों को प्रदान किया। फिर क्या था इस घंटना के बाद तो लालाज्ञी सरकार के कट्टर शत्रु बन गये । तब से आजीवन घराबर वृटिश सरकार से संघ करते ही रहे । लाल्ाजी सच्चे कमेवीर थे। संसार भें सच्चे जीवन का संदेश ताने वाली आत्मारँ सदा अमर रहती हैँ। भावुक तथा कर्मण्य संसार के लिए आत्मा के सच्चे भाव ही स्फूर्ति-दायक सिद्ध दोते हैं। पञ्नान का चित्र भल्ते ही संसार से मिट जाय, परन्त नहान आत्माओं का त्याग और आदशे सदा - श्रमिट रहेगा । उनके आदशे का सूर्य सदा संसार में प्रकाशमान रहता है। यह ठीक है कि समय के प्रभाव से ही भगवान की विशिष्ट विभूतियाँ +प पश्रढ्ी पर अवतरित होती हैं। जिनके जन्म अहण का कारण
औ। ल्टटा
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एक मात्र दूसरों को दुःख से छुड़ाना होता है । घ्म तथा जांति पर बलिंदान होना उनका चुटकोमात्र का खेल होता है। परन्तु बलिदान होने से संघर्ण की कसौटी पर घिल २ कर जीवन-लीला समाप्त करना महत्व का काय है। लालाजी में यही एक विशेषता थी कि रात दिन देश की भलाई के लिये वे अपने जीवन की आहुति देने में ज़रा नहीं धत्रराते थे। माठ-भूमि के सच्ची पुजारी देश के दमनीय प्राणियों के शरणदाता, दीन असहायों फे बन्धु सारे राष्ट्र के सेवक माननीय लाला जी यद्यपि श्राज हमारे सामने जीवित नहीं हूँ, परन्त उनके पवित्र बलिदान ने सारे भारतवर्ष ओर विशेपक्र पत्ञाच को अमर कर दिया है। लाला जी उत्साह- हीन होना तो कभी जानते ही न थे। एक निष्ठ होकर देश-सेवा ब्रत का आचरण करना शआपके जीतने फा लदघ्य था। संसार के युवकों को जोशीले व्याख्यानों द्वारा कम-न्षेत्र में प्रेरिह करना तथा कतिमय लोगों को स्व॒रचित प्रन्थों द्वारा कतंव्य का पाठ पढ़ाना आपका सुख्य ध्येय था । झापझा स्थाग झपू्न था देश सेवा के लिए आप अपना सर्वस्व बलिदान किये हुए थे। एण सावेजनिक--झोर सच्चे नेता में जो गुरा शोने चाहिये, थे सभी गुण लाला जी में विद्यमान थे ! प्रपू्े स्वाथ-त्याग, प्रदम्य उत्साह सज्नता, उद्योग-शृढ़ता ओर बंय घादि शुग्य आप में जन्मजात थे |
कल. घर ता, ् हु हु वास्तव में यह हिन्दुस्तान का सेमिन्य टे, यहाँ तिलक, राना
श ऐड का गोखले, शअरविन्द, घेकिमचन्द झादिटो भाँति लाला लाभपन
पा नजर गीम 225 उपासक मर-ग्य्म छत कण १८ तग मन शाय जस स्वाएनदता के उपांसक्त नर-रत्य पा हुए है। सगदारः
चन्द्र का चन्द्र राय 520 60 2, घ्चिम्द्रा रत 2 00 न्द्र्वांत, सर प्रफुनञ्ञचन्द्र राय जस चबशव-ावस्पाव पशानर
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पु ध्ि क्र + तथा रखीद्रनाथ जसे विश्वफयि कने जनम देनेछझा शेय इसे;
् िक ७. के बन कल >ग्हअ के ् | वृद्ध भारत चए छी हो हूं। पअंप्रेज्ञी शासन ऊके प्रानि से हिन्द जञ्ञा 868० हा गण लत तट सोर नकल, सन के डर) अत्ककक भव 3 5. सुजतर जाति ्रधोगति की घोर चली जा रहा था | लटाफ। के फरार
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स्याग-न उस ऊपर उठा दिया। हिन्द जाति के रोम-रोम में जागृति की लहर दौड़ा दीं। जब वे अंग्रेज्ञों की चाल तथा दुःखी भारत की दीन दशा देखते तो उनके झुजदंड फड़कने लग जाते हदय सें नवीन उमंगे समुद्र की उत्ताल तरंगों की भांति उम्रढ़ने लगतीं। लाला जी उन वीरों में से थे जो ऋपने विरोधियों को मेंहतोड़ जवाब उनके सामने ही दे देते थे। जिस समय कांग्रेस का चौथा अधिवेशन सन् १८८६ इईंसवी में प्रयाग में हुआ तो लाला ल्ाजपत्तराय पहिले पहल इसी अधिवेषण में कं ग्रेंस में सम्मिलित हुए थे । उस समय इनकी अवस्था केवल तेइस वे की ही थी। पर सेयद संय्यद जो कि पहिल्ते हिन्द-मुसलिम एकता का ' छम्मथंक कांग्रेस का पक्तपाती था । बह कॉँग्रेस-विरोधी सभा स्थापित कर कांग्रेस का कट्टर विरोधी बन गया। सम्मेलन में लाला जो ने बड़े ओजस्वी भाषण देकर सर सैयद के विरोध का मुंद-चोड़ उत्तर दिया। इस भाषण को सुनकर सब लोग स्तव्य रह गये। यही कारण था कि जब इंगलैंड में पार्लि- यामेय्ट का चुनाव होने वाला था, तो श्री गोखले के साथ लाला लाजपत्तराय को इंगलंड भेजा गया | योरुप में भ्रमण करते समय 5त देशों में सत्र प्रज्ञातंत्र को अवानता देखकर तथा ज्ञनता को अपने अधिकारों के विषय सें जागृत देखकर लाला जी के हदय में यह प्रचल भावना जाग्रत हो उठी छि से भी इसी भांति अपने देश को कब स्वतंत्र देखूं। उन्होंने अपने मन में इस वात का भी अच्छी तरह अनुभव किया कि ख्यतंत्रा मॉगने से नहीं - मिलेगी, इसके लिये सवस्व बलिदान करना पड़ेगा। साथ ही घारी भारतीय प्रजा को अपने परों पर खड़े होने की आवश्यकता है। स्वतंत्रा ग्राप्त करने के लिए लालाजी शिक्षा का प्रचार अधिक - से अधिक होना अनिवाव समझते थे। उन्हीं के परिश्रम का . फल है कि लाहौर का डी० ए० बी० कातज्ेज पंजाव प्रान्त में
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अद्वितीय विद्या-फेन्द्र वना। प्रचार करने के नाते विद्याप्रेमी, थार समाज का उत्थान एवं प्रचार करने से देश-भक्त या देश का महान राजनैतिक, दीन-अनाथों की तन, मन, धन से सहायता करने पर दीन-बन्धु. अनन्त धन-राशि दान देने से दानवीर आदि उ्पाधियों द्वारा विभूषित किया जा सकता है। वस्तव में लाला जी किसी एक पन्थ के अलुयायी न थे। जिस माये से जन साधा- रण का कल्पाण हो वे उस पर चलने के लिये हर समय तथ्यार रहते थे। अन्य नेताओं में प्रायः यह वात देखी गई है कवि बदि थे राजनैतिक हैँ तो उन्हें दया. घर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। थदि घार्मिकया सामाजिक नेता हैँ तो फिर राजनीति फे चफर में जाना वे कीचड़ में पेर फँसाना समझते हैं। लाला लाजपतराय जब राजनैतिक कार्यो से छुट्टी शते तो समाज-सम्बन्धी दूसरे कार्मो में संलम्त हो जाते । चकालत करते समय सभी वकीलों का ध्यान पैसे की ओर रहता हैं। जिधर अभिफ पैसा मिले उधर पेरवी के लिये खड़े हो ताना उनका सुख्य ध्येय रहता ट. परन्तु लाला जी कूठे जाल-साज्ञी के मुकदर्मों को पिलछुःल नहीं लेते थे । साथ ही दीन तथा श्रनाथों की ओर से विना पँस थे भी पेरदी करते थे । लालाजी प्राणिमात्र क्षी सेवा एरनादँ अपना सर्च-प्रथम ऊर्तज्य समझते थे ।
भारत में हो नहीं अ्रपितु भारतवप से बाहर अमेरिका ध्यारि देशों में रहने वाले भारतीयों से भी लालाजी अचुर सहादुभूमि रखते थे। समय समय पर वे प्रशसी भारतोदों की प्राप्ति सहा- यता करते रहे। ऐसे स्वतोमुली देश-सेव्रा झ छा का एहे तक बन किया जाय। उनके दैश-निवरासन से उन दिसों फो अधिक क्षति पहुँची, फिन्तु लाला जीने ऊझाल अधिकतर प्रवासी भारतोयों की सवा में ही घिवाया। यदि
लाला ऊं॑ टक टेश-निवा कि ना कि ५ 2 लय; लाला जी को देश-निर्वासन ने होता तो अभेमिया फिललडननं,,
[ ३२ ] क्ोजोरत की वास्तविक स्थिति से परिचव नहो पाता। दृ'
अंबनमेण्ट के अतिरिक्त सभी विदेशियों ने आपके भापणणों, लेखों औगऔ र सावंजनिक सेवाओं का स्वागत किया। इतने विश्वविर्यात
मह्ान् व्यक्ति होने पर भो लाला लाजपतरांग्र साधारण वेश-
भूषा, खान-पान तथा सादा-चलन से रहते थे। यदि उनके साथ कभी नौकर नहीं होता तो अपने देनिक जीवन का आब- श्यक कार्य स्वयं कर लेते । निरन्तर दोड़-धूप के कारण लालाजी का स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता था । फिर भी एक सफल 'खलनिक की भांति कम-न्षेत्र में डटे रहते थे। ऐसे महान व्यक्ति ही इस नश्वर शरीर से अमर कीति प्राप्त करते हैँ। यद्यपि लाला जी के बाद उनके वंश में उन जैसा प्रभाव-शाली पुरुष तो नहीं जन्मा फिर भी आज तक उनके वंश के स्त्रीपुरुप देश-सेवा के कार्यों में अग्रसर ,.होकर अपनी देश-भक्ति का परिचय देते हैं। लाहौर गोलबाग में पूज्य लालाजी की घुन्दर मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के चारो ओर जनता के बैठने के लिये ब्रेंच लगे हुए हैं | लाला जी एक अंगुली खड़ी किए हुए ऐसे म्रंतीत होते हैं मानों सचमुच ही सजीव रूप में जनता को , सावधान होने तथा एक मात्र स्वतंत्रता पाने के लिए प्रेरित कर रहे हों । इसके पास ही ज्ञाजपतराय भवन बना हुआ है। भवन का बड़ा हाल जनता के हिंत सभा सोसाइटी आदि के काम आता है तथा हाल के ऊपर सुन्दर तथा विशाल लायब्रेरी बनी हुई है। स्थानीय लोग इस पुस्तकालय से बड़ा लाभ उठाते हैं। इस प्रकार यह विशाल' भवन लाला जी की कीति छा स्तम्भ है। हम उनके पवित्र कार्यों की महान त्याग की सराहना करते हैं। और इश्वर से प्राथेना करते हैं कि हमें भी लालाजी वा आदसशें आप्र हो |
मुद्रक--दी आये प्रेस लिसिटिड, मोहनलाल रोड, लाहीर
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